Independence Day 2021: आजादी से पहले कैसी थी दिल्ली, इतिहासकारों ने बताई अनसुनी बातें

इतिहासकार हरबंस कौर का कहना है कि जिस महान गुरु को ‘हिंद की चादर’ कहा गया पंजाब की चादर नहीं उन गुरु तेग बहादुर साहब को औरंगजेब के आदेश से इस्लाम कुबूल न करने पर दिल्ली के चांदनी चौक में बलिदान किया था।

By Mangal YadavEdited By: Publish:Sat, 14 Aug 2021 04:17 PM (IST) Updated:Sat, 14 Aug 2021 04:17 PM (IST)
Independence Day 2021: आजादी से पहले कैसी थी दिल्ली, इतिहासकारों ने बताई अनसुनी बातें
मतवाले...दिल्ली की धरा को खून से सींचने वाले

नई दिल्ली/ गुरुग्राम [प्रियंका दूबे मेहता]। इतिहास के पन्नों में झांके तो एक सबसे भ्रामक तथ्य यह मिलता है कि देश हजारों वर्षो तक लगातार गुलामी झेलता रहा। इतिहास के जानकारों का कहना है कि दिल्ली सदा प्रतिशोध का, मुगलों की जय-पराजय का, उनकी क्रूरता और घुटनों के बल झुककर सिखों से शरण मांगने के इतिहास की साक्षी रही है। जब मुगल सल्तनत कमजोर होने लगी और कुछ हिस्से तक ही सीमित होकर रह गई तो क्षेत्रीय योद्धाओं ने दिल्ली की तरफ बढ़ना शुरू किया। हालांकि सामान्य इतिहास में सिखों के दिल्ली पर राज करने की जानकारी नहीं मिलती।

इतिहासकार हरबंस कौर का कहना है कि जिस महान गुरु को ‘हिंद की चादर’ कहा गया, पंजाब की चादर नहीं, उन गुरु तेग बहादुर साहब को औरंगजेब के आदेश से इस्लाम कुबूल न करने पर दिल्ली के चांदनी चौक में बलिदान किया था। उनके साथ भाई मतिदास, भाई सतिदास और दयाला का भी बलिदान हुआ। उसका बदला लेने और मुगलों को सबक सिखाने बाबा बघेल सिंह की मिसल (युद्धक दस्ते) ने 11 मार्च 1783 को दिल्ली पर हमला कर लाल किले पर निशान साहब फहराया।

बाबा बघेल सिंह ने जस्सा सिंह रामगढ़िया को तख्त-ए-ताऊस पर बैठाकर दरबार सजाया। इतना ही नहीं जिस तख्त-ए-ताऊस से औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर साहब के बलिदान का हुक्म दिया था, उसका एक पत्थर उखाड़कर हर मंदिर साहब अमृतसर भेज दिया।

पुस्तकालय के बाहर 740 सिखों की शहादत

आज हम जो दिल्ली का पुस्तकालय देखते हैं, यहां के कण-कण पर सिखों के बलिदान की कहानी है। रेलवे स्टेशन के सामने यूएनओ द्वारा बनाया गया यह पुस्तकालय 1950 में अस्तित्व में आया था। इस स्थान का इससे पहले का इतिहास बड़ा स्याह है, शहीदों के खून में सना हुआ।

इंटरनेशनल सेंटर फार सिख स्टडीज की निदेशक, शोधकर्ता और खालसा कालेज की पूर्व प्राचार्य हरबंस कौर का कहना है कि इसी पुस्तकालय के पास 1716 में बंदा सिंह बहादुर के साथियों समेत 740 सिखों को मारा गया था। उनका कहना है कि हर रोज 100 लोगों का कत्लेआम होता था और एक सप्ताह में इन सभी को मार दिया गया था।

हौसले ने बांधी हिम्मत, नहीं रुके कदम

जून 1716 के संहार के बाद भारतीय समाज में चेतना जागी, हिम्मत और हौसला बढ़ता गया। सिखों ने युद्धक बाना पहन मुगलों पर चतुíदक हमले किए और जस्सा सिंह अहलूवालिया और सेनापति बाबा सिंह बघेल के नेतृत्व में करोड़सिंहिया मिसल (युद्धक जत्थे) के बारह हजार सैनिक संसाधनों की कमी के बावजूद मुगलों को चोट पहुंचाते रहे। उनके पास अंबाला, करनाल, हिसार, रोहतक, चंडीगढ़ की ओर यमुना का सारा हिस्सा था। बाबा बघेल सिंह ने 1764 में सरहिंद विजय के बाद देश की आजादी के लिए दिल्ली की ओर रुख किया। फरवरी 1764 में उन्होंने यमुना पार के सहारनपुर पर कब्जा किया और वहां के नवाब नजीबुद्दौला से 11 लाख रुपये का जुर्माना वसूल किया। फिर 1775-76 तक उन्होंने अपनी फौज में और सैनिक भर्ती किए और साठ हजार सैनिकों के जत्थे के साथ 1783 में लाल किले पर हमले की तैयारी शुरू कर दी।

इन सभी घटनाओं का जिक्र भगत सिंह की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री आफ सिख मिसल्स’ ,खुशवंत सिंह की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री आफ सिख्स’ , हरिराम गुप्ता की पुस्तक ‘द सिख सुप्रीमेसी इन दोआब’ में मिलता है।

पराक्रम का प्रतीक है तीस हजारी

दिल्ली का तीस हजारी लोगों के लिए एक मेट्रो स्टेशन, बस स्टैंड या अदालत का ही पर्याय बनकर रह गया है। शायद ही किसी को पता हो कि ऐसा अलग से लगने वाला नाम क्यों है। यह केवल स्थान का नाम नहीं बल्कि इतिहास का एक पूरा दस्तावेज है जो अपने नाम में एक व्यापक घटनाक्रमों का वृतांत समेटे है।

इतिहासकार और लेखक हरबंस कौर बताती हैं कि 1776 में बाबा सिंह बघेल ने मुजफ्फरनगर पर कब्जा कर लिया तब उन्होंने सोचा कि अब वे इतने मजबूत हैं कि दिल्ली की तरफ बढ़ सकते हैं। मुगलों ने कुछ समय पहले तक शायद इसकी कल्पना भी नहीं की होगी कि उनकी सल्तनत के कुछ ही दिन बाकी रह गए थे। बाबा बघेल सिंह ने दिल्ली की ओर कूच करते हुए चालीस हजार सैनिकों के साथ मुगलों को परास्त करने की योजना बनाई। दस हजार सैनिकों को उन्होंने पीछे खड़ा कर दिया ताकि जरूरत के वक्त वे उन्हें सहायता दे सकें और बाकी की तीस हजार सेना के साथ यमुना के बाईं ओर जाकर एक छावनी बनाई। वही छावनी तीस हजारी कहलाने लगी। हरबंस कौर चाहती हैं कि अब इस स्थान पर एक पट्ट पर इसका संक्षिप्त इतिहास लिखकर लगवाया जाए ताकि लोग इसके गौरवशाली इतिहास को जान सकें।

सिखों ने इसलिए बनाया था मोरी गेट

मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को सिख हमले के बारे में जानकारी मिली तो उसकी सभा में हलचल मचना लाजमी था। हालांकि मुगलिया सल्तनत उस समय काफी कमजोर हो गई थी और शाह आलम द्वितीय के शासनकाल में यह अंतिम सांसे ले रही थी। जब शाह आलम द्वितीय को हमले की जानकारी मिली तो उसने अपने वजीर नवाब मजीजुद्दौला के नेतृत्व में सिखों को कुचलने के लिए फौज भेजी। उस युद्ध में अंत में 11 मार्च 1783 को सिखों की विजय हुई। यद्यपि इसके कोई स्पष्ट दस्तावेजी प्रमाण नहीं मिले हैं लेकिन कहा जाता है कि मोरी गेट का किस्सा भी उसी समय से जुड़ा हुआ है। सिखों ने आठ महीने तक लाल किले में प्रवेश की तैयारी की। बाबा बघेल सिंह ने पहले यह पता लगाया कि लाल किले की दीवार का सबसे कमजोर हिस्सा कौन सा था। जब उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने उसे तोड़कर एक द्वार बनाया और उसी द्वार से वे लाल किले के अंदर दाखिल हुए।

पंजाबी में छेद या निकास द्वार को मोरी कहते हैं। ऐसे में उस प्रवेश द्वार का नाम मोरी गेट हो गया। सिखों ने मजनूं का टीला, अजमेरी गेट और तीस हजारी यानी तीन तरफ से हमला किया था। बाबा बघेल सिंह विजयी फौज के साथ लाल किले में दीवान-ए-आम पहुंचे। उनके साथ प्रमुख योद्धाओं में प्रमुख योद्धा जस्सा सिंह अहलूवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया और राज सिंह मांगी भी थे। उन्होंने जस्सा सिंह रामगढ़िया को तख्त-ए-ताऊस पर बैठाकर दिल्ली पर फतेह की घोषणा की। भारत की महान गुरु परंपरा का निशान साहब लहराकर देश की स्वतंत्रता की घोषणा की। दीवान-ए-आम में शाह आलम द्वितीय के साथ लिखित संधि हुई और सिखों का राज शुरू हो गया।

फहरा दी हिंदू की चादर

बाबा बघेल सिंह ने जीतने के बाद सबसे पहले अपने महान गुरु तथा ‘हिंद की चादर’ गुरु तेग बहादुर साहब की स्मृति में गुरुद्वारा सीसगंज साहब का निर्माण किया। उस दौरान कुल मिलाकर सिखों ने दिल्ली में नौ गुरुद्वारे बनवाए। इनमें गुरुद्वारा रकाबगंज, जहां गुरु तेगबहादुर साहब का अंतिम संस्कार हुआ, गुरुद्वारा माता सुंदरी, गुरुद्वारा बंगला साहब, गुरुद्वारा मजनूं का टीला और गुरुद्वारा बंगला साहब सहित अन्य गुरुद्वारे शामिल हैं।

बेगम समरू की गुजारिश पर छोड़ी दिल्ली

जब शाह आलम ने घुटने टेक दिए तो आंखों में आंसू लेकर बेगम समरू बाबा बघेल सिंह के पास विनती करने आईं कि वे अपना बदला ले चुके हैं, शाह आलम को हरा चुके हैं और दिल्ली अपनी बना चुके हैं और इस बात को हमेशा माना जाएगा। अब शाह आलम द्वितीय को तख्त पर बैठने दें। बाबा बघेल सिंह ने दिल्ली से टैक्स वसूली के बाद वापस लौटना स्वीकार कर लिया और लौट गए। राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण के अध्यक्ष तरुण विजय का कहना है कि दिल्ली की इस विजय को मनाए बिना आजादी का 75वां महोत्सव कैसे पूरा हो सकता है।

जरूरी है छिपे नायकों की तलाश

हरबंस कौर का कहना है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और परीक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के पाठ्यक्रम में इन व्यक्तित्व और घटनाओं का उल्लेख होना चाहिए। बाबा बंदा सिंह बहादुर का महरौली में बलिदान हुआ था, उनका कोई जिक्र नहीं आता। लाल किला के अंदर एक और किला था जो शेर शाह सूरी के बेटे ने बनवाया था, उसमें त्रिपोलिया जेल थी जहां बंदा सिंह बहादुर को तीन महीने और नौ दिन रखने के बाद निकालकर महरौली ले जाकर बहुत यातनाएं देकर उन्हें शहीद किया गया था।

वहां सिखों ने गुरुद्वारा बनवाया लेकिन वहां उसका कोई उल्लेख नहीं है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘बंदा सिंह बहादुर एंड सिख सोवर्सिटी’ में भी लिखा है कि मुगलों को हराने वाले पंजाब में स्वतंत्र राज्य स्थापित करवाने वाला नायक शासक बंदा सिंह बहादुर ही था।

हरबंस कौर का कहना है कि दीवान-ए-आम में बाबा सिंह बघेल और शाह आलम द्वितीय की लिखित संधि के संक्षिप्त इतिहास को लाल किले में रखा जाना चाहिए। वे कहती हैं कि सिखों के विजय और शासन की घटनाएं पंजाब के इतिहास में तो पढ़ाई जाती हैं, दिल्ली में नहीं। उनका कहना है कि यह राष्ट्रीय घटनाएं हैं। उनके प्रयासों से बारहपुला को बंदा सिंह बहादुर फ्लाईओवर कर दिया गया लेकिन अभी बहुत से छुपे इतिहास के पन्नों में दर्ज घटनाओं और नायकों को तलाशना होगा।

पूर्वाग्रह युक्त इतिहास को सुधारने का अवसर..

राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण के अध्यक्ष तरुण विजय का कहना है कि इन आक्रमणों के विभिन्न वृतांत मुगल, ब्रिटिश इतिहासकारों के लेखन में मिलते हैं लेकिन दुर्भाग्य से इस इतिहास को भली प्रकार संजोकर और सत्य को किंवदंतियों से हटाकर सामने प्रस्तुत करने का एकजुट प्रयास कभी नहीं हुआ। विभिन्न शासकीय और निजी इतिहास संस्थाओं पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं लेकिन भारत विजय के पर्व का किसी ने सम्यक विवेचन नहीं किया। अब प्रधानमंत्री के इस कथन से सभी को बड़ी उम्मीदें हैं कि पूर्वाग्रह युक्त इतिहास को सुधारकर सत्य इतिहास सामने लाना है।

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