दिल्ली मेरी यादें: पूर्व न्यायाधीश ओम सपरा ने साझा की पुरानी यादें, दीवान ए खास में खुदको राजा समझने लगते थे
पूर्व न्यायाधीश ओम सपरा ने साझा की पुरानी यादें- हम अक्सर लाल किला घूमने जाया करते थे। दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास पसंदीदा जगह थी क्योंकि वहां पहुंचने के बाद हमें ऐसा लगता जैसे हम ही वहां के राजा-महाराजा हों। उन दिनों वहां एक घंटे का साउंड और लाइट शो होता था।
नई दिल्ली, रितु राणा। दिल्ली में जन्में 68 वर्षीय पूर्व न्यायाधीश ओम सपरा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के श्याम लाल कालेज से बीएसई की। फिर एमए व एलएलबी की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1973 से 2013 तक दिल्ली सरकार में सहायक श्रम आयुक्त पद पर कार्य किया। वहां से सेवानिवृत्त होने के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय में विशेष महानगर दंडाधिकारी के पद पर सेवा देते हुए 2018 में सेवानिवृत्त हुए। वर्तमान में इंटरनेशनल एयरपोर्ट अथारिटी और दिल्ली नगर निगम फैकल्टी में श्रम कानून पर लेक्चर देते हैं।
मेरे बचपन की दिल्ली, बिलकुल अलग थी। शांत वातावरण, मिलनसार लोग। अब न तो वो लोग हैं और ना ही वैसा माहौल। अब है तो बस उन दिनों की खूबसूरत यादें। जंतर-मंतर के भूल-भुलैया में दोस्तों के साथ गुम होने का जो आनंद आता था उसे बता नहीं सकता। पहले तो बड़ा डर लगता था कि भूल-भुलैया में कहीं खो न जाएं, लेकिन दो-तीन बार जाने के बाद तो वहां दोस्तों को आवाज देकर छुप जाने में मजा आने लगा। वो खेल भी बड़ा मजेदार होता था। मेरा जन्म किंग्सवे कैंप के पास स्वर्गाश्रम में हुआ। हम वहीं रहते थे।
विभाजन के बाद दिल्ली आए शरणार्थियों के रहने के लिए वही जगह थी। हम भी शरणार्थी थे। शरणार्थियों को दिल्ली के लोग पुरुषार्थी कहते थे, क्योंकि वे मेहनत करने से जी नहीं चुराते थे। परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए कड़ी मेहनत करते और एक छोटे से कमरे में गुजारा कर भी खुश रहते थे। बाद में शरणार्थियों के नाम पर ढका से थोड़ा आगे एक पुरुषार्थी हरि मंदिर बनाया गया। 1976 में मेहर चंद खन्ना ने सभी शरणार्थी कालोनियों को बसाया। यहां बहुत बड़े स्तर पर शरणार्थियों की सूची बनी। लाटरी में जिसका जहां नंबर आया उसे वहां घर दे दिया गया। मुखर्जी नगर, लाजपत नगर, राजेंद्र नगर और आइटीओ के पास फिरोजशाह कोटला में सबको बसाया गया।
पूरा मुगलिया दौर आंखों के सामने आ जाता था : हम अक्सर लाल किला घूमने जाया करते थे। दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास पसंदीदा जगह थी, क्योंकि वहां पहुंचने के बाद हमें ऐसा लगता जैसे हम ही वहां के राजा-महाराजा हों। उन दिनों वहां एक घंटे का साउंड और लाइट शो होता था। लाल किला पार करने के बाद जहां से रिंग रोड दिखती है, वहां 300-400 कुर्सियां लगी होती थीं। शो में लाल किले का इतिहास और बहादुर शाह जफर के पतन तक की कहानी का नाटकीय मंचन होता था। शो में मुगल दौर की जीवंतता दिखती थी। एक घंटे अंग्रेजी और एक घंटे हिंदी शो देखने के लिए पांच रुपये की टिकट लेनी होती थी।
लेखकों के बीच होते थे स्वस्थ संवाद: आज जहां पालिका बाजार है उन दिनों वहां थियेटर कम्युनिकेशन की इमारत थी। उसमें नीचे एक काफी हाउस भी था। जहां हिंदी, उर्दू के लेखक एक साथ बैठ कर स्वस्थ संवाद करते थे। वैचारिक मतभेद होने के बाद भी सभी एक-दूसरे का सम्मान करते। विष्णु प्रभाकर उन दिनों गांधीवादी हो गए थे, इसलिए खादी के कपड़े और टोपी पहनकर काफी हाउस आते थे।
एक दिन बातों बातों में कहने लगे आल इंडिया रेडियो में नौकरी के दौरान मैंने ही वहां गांधीवाद और आदर्शवाद की स्थापना की। लेकिन कुछ समय बात नौकरी में मुङो एक घुटन सी महसूस होने लगी। बंधन जैसा लगने लगा। मैं मुक्त होकर कार्य करना चाहता था इसलिए नौकरी छोड़ लेखन का कार्य करने लगा। वह अजमेरी गेट के पास खुंडेवाला गली में रहते थे। मैं उनके घर अक्सर जाया करता था। अपनी कहानी और उपन्यासों पर चर्चा करते थे।
गोलगप्पे की दुकान जितनी भीड़ होती थी रबड़ी की दुकानों पर: जनपथ में इंडियन आयल बिल्डिंग के नीचे एक डी पाल्ज नाम की दुकान थी। कालेज के दिनों में दोस्तों के साथ वहां अक्सर जाया करता था। उस दुकान के मालिक का वजन 100 किलो से भी ज्यादा था। उनकी कद काठी अंग्रेज जैसी थी। एक दिन मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछ ही लिया कि आप अंग्रेज हो। वो हंसने लगे। बोले नहीं मैं पंजाबी हूं। दरअसल कनाट प्लेस में उन दिनों बड़े बड़े घरों के बच्चे शाम को घूमने आते थे।
उन बच्चों को आकर्षति करने के लिए ही उन्होंने दुकान का अंग्रेजी नाम रख लिया था। उनकी दुकान खूब चलती थी। दरीबां कला में आभूषण की दुकानें तो थीं ही, लेकिन थोड़ा आगे जाकर एक कतार में रबड़ी की दुकान भी लगती थी। उनकी दुकान पर ऐसी भीड़ होती जैसे आज गोलगप्पे व चाट वालों के पास होती है। उन दिनों लोग रबड़ी बहुत चाव से खाते थे, वहां दूर दूर से लोग सिर्फ रबड़ी खाने आते थे।