अब कहां प्रेमचंद और निराला पैदा होंगे, जाने किस मशहूर लेखक ने कही ये बात

गाजियाबाद की धरा पर कैसा समृद्ध रहा साहित्य और गोष्ठियों में कैसे मेलभाव होता था...इन्हीं सब पर साहित्यकार से रा यात्री से मनोज त्यागी ने विस्तार से बातचीत की।

By Pooja SinghEdited By: Publish:Thu, 10 Oct 2019 01:35 PM (IST) Updated:Thu, 10 Oct 2019 01:35 PM (IST)
अब कहां प्रेमचंद और निराला पैदा होंगे, जाने किस मशहूर लेखक ने कही ये बात
अब कहां प्रेमचंद और निराला पैदा होंगे, जाने किस मशहूर लेखक ने कही ये बात

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। मोहब्बत जब कलम से हो जाती है तो जज्बात उम्र का पड़ाव नहीं देखते न ही हालात देखते। तभी से रा यात्री आज भी 87 बरस की उम्र में लेखन के 'शेरा ही हैं। तभी हाल ही में इनकी दो किताबें भी आई हैं। लिखने में थोड़ी दिक्कत होती है, पर उनके बेटे आलोक यात्री उनकी मदद करते हैं। दिल्ली के साहित्यकारों के साथ साठ साल का लंबा समय बिताया। गाजियाबाद की धरा पर कैसा समृद्ध रहा साहित्य और

गोष्ठियों में कैसे मेलभाव होता था...इन्हीं सब पर साहित्यकार से रा यात्री से मनोज त्यागी ने विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश :

आपने गाजियाबाद शहर को किस तरह जिया, बचपन की यादें..?

साठ वर्ष पहले गाजियाबाद एक छोटा सा तहसीली कस्बा हुआ करता था। जिसमें पचास हजार लोग रहते थे। धीरे-धीरे गुरुग्राम और फरीदाबाद की तरह गाजियाबाद औद्योगिक विकास के पथ पर चलना शुरू हो गया और महानगर बन गया। गाजियाबाद का विकास तो हुआ पर विदेशी ताकतों का पंजा कसना शुरू हो गया। अनेक तरह के धंधेबाज जिसमें राजनीति से लेकर हर तरह के दलालों का केंद्र भी गाजियाबाद बन गया। पता ही नहीं

चला कब सुरसा की तरह फैल गया। 50 हजार की जगह 30 से 40 लाख की आबादी हो गई। अब आगे भी कहां तक फैलाव होगा कोई ठिकाना ही नहीं है।

इस शहर की धरा साहित्यिक दृष्टि से कितनी धनी रही?

मेरठ जिले का हिस्सा रहने तक गाजियाबाद साहित्य की दृष्टि से बेहद समृद्ध था। भारत भूषण, बशीर बदर, हरिओम पंवार, रघुवीर शरण मित्र जैसे नामचीन रचनाकार मेरठ में रहे। जिनसे स्थानीय साहित्यकार सीधे जुड़े रहते थे। गाजियाबाद जिला बनने तक आसपास के कस्बों और शहरों के साहित्यकार आपसी संपर्क के स्तर पर निरंतर सक्रिय रहे। हापुड़ के अशोक अग्रवाल, सुदर्शन नारंग, नफीस आफरीदी, इंदु कौशिक, धर्मपाल

अकेला, अवधेश श्रीवास्तव, रामानंद दोशी, क्षेमचंद सुमन ने साहित्य जगत में लंबे

समय तक हापुड़ का प्रतिनिधित्व किया। पिलखुवा के भक्त रामशरण दास, रामनाथ सुमन,

शिवकुमार गोयल और शिव कुमार मिश्रा के योगदान को कौन भूल सकता है।

...और आज के परिवेश में क्या कहेंगे?

मैं कुछ नाम और लेना चाहूंगा जिन्होंने इस शहर में साहित्य को न सिर्फ समृद्ध बनाए रखा बल्कि आपसी भाईचारे को भी कायम रखा। सीमित संसाधनों के बावजूद महानगर में लोक परिषद, इंगित, अदबी संगम, संकेत, चौधरी गीता मंच जैसी संस्थाएं गोष्ठी, सम्मेलनों के बूते साहित्यिक माहौल बरकरार रखती थीं। इनके कार्यक्रमों में देश

भर के दिग्गज साहित्यकार सहज रूप से आते थे। इंडियन पिपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) और पीडब्ल्यूए राइटर्स एसोसिएशन (पिपुल्स) ने भी साहित्यिक दृष्टि से महानगर को लंबे समय तक समृद्ध बनाए रखा। उस दौर में नई पीढ़ी के आगे बढऩे की अपार संभावनाएं रहती थीं। आज इस शहर का वृहद विस्तार हो गया है। पचास हजार की आबादी 30 लाख के आसपास पहुंच गई है। शहर में इंदिरापुरम, वसुंधरा, राजेंद्र नगर, वैशाली, राजनगर एक्सटेंशन जैसे कई गाजियाबाद समा गए हैं। साहित्यकारों की संख्या की दृष्टि से यह शहर आज, कल से भी अधिक समृद्ध हो गया है। कई नामचीन साहित्यकार इस शहर में रहते हैं। लेकिन हमारे और उनके बीच कोई संपर्क नहीं है। अमर भारती साहित्य संस्कृति संस्थान और मीडिया 360 लिट्रेरी फाउंडेशन पिछले करीब ढाई साल से अपने मासिक आयोजनों के जरिए महानगर और आसपास के साहित्यकारों को साझा मंच प्रदान कर रहे हैं। जो एक अच्छा संकेत है।

इस शहर की विकास यात्रा में बहुत सारे उतार चढ़ाव परिवर्तन देखे उसके बारे में विस्तार से बताइये..?शहर हर तरह की चीजों का हब बन गया। राजनीति हो, साहित्य हो या फिर उद्योग सभी बिक्री के लिए बाजार की तलाश में लगे रहते हैं। जब शहर छोटा था उस समय कठपुतली, भालू, बंदरों को नचाने वाले, सपेरे, नट यही मनोरंजन का साधन होते थे। धीरे-धीरे यह सब समाप्त होता गया। बाद में मनोरंजन बाजार के माध्यम से आगे बढ़ा। सिनेमा, टीवी अन्य माध्यम तेजी से बढ़े और लोककला समाप्त होती गई। अपने हाथ में मोबाइल

दिखाते हुए कहते हैं आज मेरे सात साल के पोते के हाथ में भी मोबाइल है। वह बताते हैं कि आज मुझे किसी साहित्यकार के बारे में कुछ जानकारी चाहिए होती है, तो मेरी पोती थोड़ी ही देर में मोबाइल से देखकर सब बता देती है।

आज इस सुविधा को मध्यमवर्ग भी अफोर्ड कर रहा है। बाजार नई-नई तकनीक लाता है और छा जाता है। अपना पुराना मोबाइल दिखाते हुए से रा यात्री कहते हैं कि आज भी मेरे पास 10 साल पुराना मोबाइल है। आज लोगों को जरूरत नहीं, इच्छाएं ज्यादा हैं। इसीलिए लोकरंजन खत्म हो रहा है। बाजार और दलाल हावी हैं। आज साहित्यकार के अंदर सादगी नहीं है। सभी बाजार ढूंढने में लगे हैं। एक समय था कि रविंद्र नाथ टैगोर ही विदेश गए थे। यहां तक कि मुंशी प्रेमचंद भी विदेश नहीं जा पाए थे। आज तमाम साहित्यकार विदेश में जाकर गोष्ठी करते हैं। गाजियाबाद भले ही महानगर हो लेकिन दिल्ली नहीं है। आज के साहित्यकार गाजियाबाद की बस्ती में रहते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि वह गाजियाबाद में रहते हैं। डरते हैं कि कहीं उनकी पहचान लुप्त ना हो जाए। वह अपने को दिल्ली का बताकर बाजार में स्थापित होना चाहते हैं। हृदेश शाहजहांपुर ही लिखते थे, लेकिन आज बात कुछ ओर है।

आप कविनगर में रहते हैं,? इस नगर के आगे कवि लगाने का क्या मतलब है?

गाजियाबाद में कवि नगर बसाने का उद्देश्य ही साहित्यकारों को सम्मान देना था। कविनगर का जब गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने मैप बनाया था, तो उसमें मीर, तुलसी, कबीर, सूर, टैगोर के नाम से मार्गों के नाम दिए थे। बाद में जब कविनगर बसा, तो इन साहित्यकारों के नाम कहीं नहीं दिखाई दिए। केवल कबीर पार्क बनाया गया वह भी काफी प्रयास के बाद। तत्कालीन डीएम संतोष यादव ने गाजियाबाद महोत्सव की शुरुआत की। जब तक वह रहे हर वर्ष गाजियाबाद महोत्सव का आयोजन होता। उनके जाते ही गाजियाबाद महोत्सव का आयोजन समाप्त हो गया। वह जब दोबारा जीडीए के उपाध्यक्ष बनकर आए तो दोबारा से गाजियाबाद महोत्सव मनाया जाने लगा। गाजियाबाद में साहित्य से जुड़ी करीब 50 संस्थाएं हैं, पर कोई भी साहित्यिक संवर्धन का काम नहीं कर

रही है। अमर भारती साहित्यिक संस्कृति संस्थान ने प्रतिवर्ष 5 साहित्यकार विभूतियों का सम्मान शुरू किया। आज भी यह सम्मान दिया जाता है। जो अच्छा प्रयास है।

यहां कुछ साहित्यिक अड्डे रहे हों, जहां साहित्य का सृजन हुआ हो?

जहां तक साहित्यकारों के अड्डे की बात है तो उसमें चौधरी गोष्ठी कक्ष, जयप्रकाश गर्ग, कुमार नाथ सरस, विभूति नारायण राय, अतुल गर्ग जैसे अड्डे चर्चित रहे हैं। विभूति नारायण ने वर्तमान साहित्य, राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका को खड़ा किया। इसी तरह अतुल गर्ग ने भी रे माधव, नाम से पत्रिका निकाली। अतुल गर्ग को व्यवसायिक ज्ञान न होने के कारण उसे बंद करना पड़ा। गाजियाबाद में हिंदी भवन बनाया गया, पर व्यवसायिक दलालों के कब्जे में हो जाने से साहित्य को आगे ना बढ़ाकर अपने को आगे बढ़ाया।

आपके समकालीन साहित्यकार मित्र, उनसे जुड़ी कुछ रोचक यादें?

वैसे तो हिंदी के सभी बड़े साहित्यकारों से जुड़ाव रहा। इसी को लेकर मेरे 15 संस्मरण भी प्रकाशित हुए हैं। इसमें उपेंद्र नाथ अश्क, यशपाल, अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर, नागार्जुन, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर के नाम उसमें शामिल हैं। जब मैं पहली बार उपेंद्र नाथ अश्क से मिला। साहित्य को लेकर बातें हो रहीं थी। मैने बताया कि मै कहानी लिखता हूं। उन्होंने मेरा नाम पूछा। मैने बताया कि मै सेवा राम यात्री हूं। इतना बड़ा नाम। किसने रखा उसका नाम क्या है। मैंने बताया कि पंडित झंडू ने मेरा नाम रखा

था। इस पर उन्होंने कहा था कि तो कभी कवि न बन पाओगे और न ही लेखक। तुम सिर्फ आलोचक बन सकते हो। अपने नाम को छोटा करो। बैंक में मै अपने हस्ताक्षर एसआर यात्री के नाम से करता था। मैने इसे हिंदी में लिखा, तो सेरा यात्री लिख दिया। बाद में जितनी कहानी प्रकाशित हुईं वह सब से रा यात्री के नाम से ही छपीं। मेरा पहला कहानी संग्रह अश्क जी ने ही दस वर्ष बाद छापा। मैने अश्क जी के ऊपर एक किताब उनके जन्म शताब्दी जीवन और सर्जन लिखी। जिसे सूचना विभाग ने छापा।

दिल्ली की साहित्यिक गोष्ठियों में भी जाते रहे, वहां के माहौल से कैसी ऊर्जा मिलती थी?

अधिकांश गोष्ठियां दिल्ली में ही होती थीं। सभी बड़े साहित्यकार भीष्म साहनी, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, जैनेंद्र कुमार, मोहन राकेश, मनोहर श्याम जोशी, अवध नारायण मुद्गल एक साथ गोष्ठी में शामिल होते थे। एक कहानी पढ़ता था बाकी सब उस पर मशविरा करते थे। सबसे बड़ी ऊर्जा यही मिलता थी

कि उसमें साहित्य की सभी विधाओं के लिए जिज्ञासा पैदा होने के साथ तमीज भी पैदा होती थी। कहानी का भाव पक्ष, शैली, परिवेश सभी का ज्ञान होता था।

आज के युवा लेखक वरिष्ठ साहित्यकारों को कितना पढ़ते हैं, कैसा लेखन कर रहे हैं..?

ये सब बाजार युग की पैदाइश हैं। उसको इसकी शिनाख्त ही नहीं है कि देश को कहां ले जाना है। साधारण आदमी की कितनी दुर्गति है, किस तरह से पूरा देश विडंबनाओं के डिब्बे में फंसा है। आज के युवा लेखक सिर्फ अपने को स्थापित करना चाहते हैं। भले ही इन्हें इसके लिए किसी हद तक जाना पड़े। स्वयं को विज्ञापित करते हैं।

साहित्य इनके लिए बैसाखी है, सरोकार नहीं। जिस तरह से शादी विवाह के कार्यक्रम में लिफाफे दिए जाते हैं। इन्हें भी वही चाहिए। आज पैसा दृष्टिकोण बन गया है। हमने छोटे अखबारों में लिखा। इसके लिए डाक टिकट भी अपने पास से लगाकर भेजते थे। सभी को बीबीसी चाहिए। इस अवस्था में समझ लिजिएगा कि साहित्य कहां जा रहा है।

आज का साहित्य और साहित्यकार समाज को किस तरह दिशा दे रहे हैं?

आज साहित्य के नाम पर मनोरंजन दे रहे हैं। अश्लील साहित्य परोसा जा रहा है। जैसी हमारी शिल्प की हस्तियां हैं। आज कम से कम 20 से 25 खिलाड़ी, सिने तारिकाएं हैं। जो सत्ता के हाथों की कठपुतली बने हैं। अब प्रेम चंद और निराला पैदा नहीं होंगे।

हाल में आपकी कौन-कौन सी पुस्तकें आ रहीं है, विषय क्या है..?

प्यासी नदी और गुमनामी के अंधेरे में, दो पुस्तकें आ रहीं हैं। प्यासी नदी एक महिला की कहानी है। जिस तरह से वह संपूर्ण पुरुष से मिलना चाहती है। उसे कोई संपूर्ण पुरुष नहीं मिल पाता है। कोई भी पुरुष संपूर्ण नहीं है। हर एक में कोई न कोई कमी है। प्रकृति ने भी हमें अधूरा पैदा किया है। ये प्रकृति की वैरायटी है। शंकराचार्य और विवेकानंद दो बड़े नाम हैं। ये भी संपूर्ण नहीं हैं। एक को सेक्स के बारे में जानकारी नहीं है तो दूसरे को पैसे का ज्ञान नहीं है। पैसा कमाया कैसे जाता है। संपूर्ण पुरुष पाने की जिज्ञासा में आखिर महिला प्यासी नदी की तरह रह जाती है।

युवा साहित्यकारों को कोई संदेश देना चाहेंगे?

कोई सुनने वाला नहीं है। नजर उठा ही नहीं पाता है। आजकल के साहित्यकारों को हमारी जरूरत ही कहां है। एक अंधी शताब्दी है, धृतराष्ट्र की स्थिति बनी है। हाथ पकडऩे वालों की आंख पर पट्टी बंधी है। गांधी के बाद कोई नहीं आया है।

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