Novelist Mannu Bhandari: मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि के बहाने बुजुर्ग लेखिकाओं ने उठाए अप्रिय प्रसंग

Novelist Mannu Bhandari मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित कार्यक्रमों में मन्नू जी के अवदानों पर चर्चा न करके उसको अपनी भड़ास निकालने का मंच बना दिया। जमकर व्यक्तिगत खुन्नस निकाले गए। इस तरह की बातें की गईं जो न होतीं तो साहित्य की गरिमा बनी रहती।

By Jp YadavEdited By: Publish:Sun, 21 Nov 2021 08:39 AM (IST) Updated:Sun, 21 Nov 2021 08:40 AM (IST)
Novelist Mannu Bhandari: मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि के बहाने बुजुर्ग लेखिकाओं ने उठाए अप्रिय प्रसंग
Novelist Mannu Bhandari: मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि के बहाने बुजुर्ग लेखिकाओं ने उठाए अप्रिय प्रसंग

नई दिल्ली [अनंत विजय]। हाल ही में हिंदी की उपन्यासकार और कहानीकार मन्नू भंडारी का निधन हुआ। कुछ लेखिकाओं ने मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित किए जानेवाले कार्यक्रमों में मन्नू जी के अवदानों पर चर्चा न करके उसको अपनी भड़ास निकालने का मंच बना दिया। जमकर व्यक्तिगत खुन्नस निकाले गए। इस तरह की बातें की गईं जो न होतीं तो साहित्य की गरिमा बनी रहती। इंटरनेट मीडिया के अराजक मंच फेसबुक पर भी पक्ष विपक्ष में टिप्पणियां देखने को मिलीं। कई बुजुर्ग लेखिकाओं ने मन्नू भंडारी के निधन के बाद चर्चित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा को निशाने पर लिया और परोक्ष रूप से उनको मन्नू जी से विश्वासघात का आरोप तक लगा दिया।

आरोप की शक्ल में पेश की गई बातों से ये लग रहा था कि जैसे मैत्रेयी पुष्पा ने राजेन्द्र यादव को बरगला दिया था, जिससे मन्नू भंडारी को बेहद मानसिक पीड़ा हुई थी। आरोपों को इस तरह से पेश किया गया कि सारी गलती सिर्फ मैत्रेयी पुष्पा की थी और राजेन्द्र यादव बेचारे बहुत ही मासूम थे। उनकी कोई गलती थी ही नहीं, वो तो भटक गए थे। यह सही है कि राजेन्द्र यादव ने मैत्रेयी पुष्पा को अवसर दिया लेकिन अगर मैत्रेयी में प्रतिभा नहीं होती तो क्या वो इतने लंबे समय तक साहित्य में टिकी रह सकती थीं। राजेन्द्र यादव ने दर्जनों प्रतिभाहीन लेखिकाओं को मैत्रेयी पुष्पा से अधिक अवसर अपनी साहित्यिक पत्रिका हंस में दिए। उनकी पुस्तकों पर प्रायोजित समीक्षाएं भी प्रकाशित की लेकिन आज उनमें से कोई भी लेखिका मैत्रेयी जैसी ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाईं।

दरअसल जब कोई महिला सफल होती है और वो पुरुषों के साथ काम करती है तो उसको इस तरह के अपमान का विष पीना पड़ता है। मैत्रेयी पुष्पा ने देर से लिखना आरंभ किया लेकिन उनके कई उपन्यास इतने सधे हुए हैं कि वो साहित्याकाश पर छा गईं। उस वक्त भी मैत्रेयी पुष्पा पर तमाम तरह के लांछन लगे थे। राजेन्द्र यादव की भी आलोचना हुई थी लेकिन इतने सालों के बाद अब जब मन्नू भंडारी नहीं रहीं तो उन बातों को एक बार फिर से उभार कर बुजुर्ग लेखिकाएं क्या हासिल करना चाहती हैं, पता नहीं। मत्रैयी पुष्पा ने अपनी सफाई में कई बातें कहीं जो वो पहले भी अपनी आत्मकथा या राजेन्द्र यादव पर लिखी अपनी पुस्तक में कह चुकी हैं। काफी कुछ मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा में भी लिख दिया है। लेकिन फिर से वातावरण कुछ ऐसा बना कि लगा कि ये लेखिकाएं कुछ नया रहस्योद्घाटन कर रही हैं।

मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव पति पत्नी थे लेकिन इनके संबंध सहज नहीं थे, ये बात ज्ञात है। इन दोनों ने समय समय पर अपने साक्षात्कारों में इस तरह की बातें भी की थीं जिसको लेकर हिंदी जगत इनके संबधों के बारे में परिचित है। इन दोनों से रचनात्मक लेखन का सिरा काफी पहले छूट गया था। वर्षों बाद जब मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा लिखी तो हिंदी के आलोचकों को उसमें साहस का आभाव दिखा। मन्नू भंडारी अपनी आत्मकथा में राजेन्द्र यादव से आब्सेस्ड दिखती हैं। आज मन्नू भंडारी के निधन के बाद ऐसी बातें हो रही हैं जिनको सुनकर 2009 का साहित्यिक परिदृश्य सहसा याद आ जाता है। इस वर्ष राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी ने अपनी शादी को लेकर या अपने दांपत्य जीवन को लेकर एक साहित्यिक पत्रिका में कई ऐसी बातें कहीं थीं जिसने हिंदी साहित्य जगत को शर्मसार किया था। जहां तक मुझे याद पड़ता है कि 2009 में साहित्यिक पत्रिका कथादेश के मार्च अंक में मन्नू भंडारी ने एक लंबा लेख लिखा था। उस लेख में मन्नू जी ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि सच का सामना करने का साहस हो तभी साक्षात्कार दें। परोक्ष रूप से वो ये नसीहत राजेन्द्र यादव को दे रही थीं।

इस पूरे लेख में मन्नू भंडारी ने ये साबित करने की कोशिश की थी कि राजेन्द्र यादव ने उनकी शादी के विषय में जो गलत बातें की उसको वो ठीक कर रही हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि कथादेश के 2009 के जनवरी अंक में राजेन्द्र यादव का एक लंबा साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने अपनी और मन्नू भंडारी की शादी की परिस्थितियों का उल्लेख किया था। राजेन्द्र यादव के उस साक्षात्कार के उत्तर में मन्नू भंडारी ने लेख लिखा था और किन परिस्थितियों में दोनों की शादी हुई थी इसको अपने हिसाब से हिंदी साहित्य जगत के सामने रखा था। अपने उस लेख में मन्नू भंडारी राजेन्द्र यादव से सच कहने की अपेक्षा करती हैं लेकिन जब उकी बारी आती है तो वो खुद राजेन्द्र यादव की प्रेमिका मीता का असली नाम बताने से कन्नी काट लेती हैं। मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा में उन स्थितियों का भी उल्लेख नहीं किया जिसकी वजह से उन्होंने राजेन्द्र यादव को घर से निकाला था। उसका नाम लेने से भी परहेज कर गईं जिसकी वजह से उन्होंने राजेन्द्र यादव को घर से निकाला था। दोनों ने अपने जीवन काल में जमकर एक दूसरे के बारे में जितना बताया उससे अधिक छिपाया भी।

आज से बारह-तेरह वर्षों पहले तक यादव-भंडारी दंपती के बारे में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में जमकर लिखा जाता था। उस दौर में तो यहां तक चर्चा होती थी कि दोनों कुछ लिख नहीं पा रहे हैं तो अपने दांपत्य के विवादित स्वर को उभार कर चर्चा में बने रहते हैं। लेकिन समय के साथ इस तरह की बातें कम होने लगीं। कालांतर में राजेन्द्र यादव का निधन हो गया और मन्नू भंडारी बीमार रहने लगीं तो इस लेखक दंपति के बीच के विवाद को साहित्य जगत लगभग भूल चुका था।

मन्नू भंडारी के बहाने हिंदी की चंद बुजुर्ग लेखिका जिस तरह की बातें कर रही हैं उससे तो स्त्री विमर्श के उनके प्रतिपादित सिद्धांतों पर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं। उनके तर्क हैं कि राजेन्द्र यादव ने किसी अन्य स्त्री के चक्कर में मन्नू भंडारी की उपेक्षा की। यहां तक तो इन बुजुर्ग लेखिकाओं के स्त्री विमर्श पर आंच नहीं आती है लेकिन जब एक ऐसे पुरुष से साथ और संबल की अपेक्षा की जाती है जो वफादार नहीं होता है तो फिर प्रश्न तो उठेंगे। क्या स्त्री मुक्ति और स्त्री चेतना की बातें सिर्फ किस्से कहानियों में ही ठीक लगते हैं। क्या सिर्फ कहानियों के पात्र ही क्रांतिकारी फैसले ले सकती हैं क्या सिर्फ कहानियों की शादीशुदा नायिकाएं ही अपने दांपत्य से त्रस्त आकर विकल्प की ओर बढ़ती हैं। अगर इस तरह की बातें सिर्फ किस्से कहानियों तक सीमित हैं तो फिर स्त्री विमर्श की बातें खोखली हैं।

दूसरी बात ये कि हमारे यहां मृत व्यक्ति को लेकर स्तरहीन बातें कहने की परंपरा नहीं रही है।व्यक्ति की मृत्यु के बाद तुरंत उसकी आलोचना या उसके संबंधों के बहाने से उसको विवादित करने को हमारे समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। लेकिन मन्नू भंडारी की तथाकथित मित्रों ने उनके निधन के तुरंत बाद उनके और राजेन्द्र यादव के बीच के तनावपूर्ण संबंध की बात उठाकर इस परंपरा का ना सिर्फ निषेध किया बल्कि नए लेखकों के सामने एक खराब उदाहरण प्रस्तुत किया।

बेहतर होता कि ये बुजुर्ग लेखिकाएं मन्नू भंडारी के साहित्यिक योगदान या अवदान पर चर्चा करतीं। उनकी रचनाओं के बारे में नई पीढ़ी को अवगत करवाती या फिर उसको नए सिरे से व्याख्यायित करने का उपक्रम करतीं। विवादित प्रसंगों की बजाय अगर उनकी संयुक्त कृति एक इंच मुस्कान के लिखे जाने की प्रक्रिया पर चर्चा होती तो उनकी प्रयोगधर्मिता का पता चलता। ये भी पता चलता कि दो अलग अलग व्यक्ति कैसे इतना प्रवाहपूर्ण उपन्यास लिख पाए। काश! ऐसा हो पाता।

तो फिर प्रश्न तो उठेंगे। क्या स्त्री मुक्ति और स्त्री चेतना की बातें सिर्फ किस्से कहानियों में ही ठीक लगते हैं। क्या सिर्फ कहानियों के पात्र ही क्रांतिकारी फैसले ले सकती हैं क्या सिर्फ कहानियों की शादीशुदा नायिकाएं ही अपने दांपत्य से त्रस्त आकर विकल्प की ओर बढ़ती हैं। अगर इस तरह की बातें सिर्फ किस्से कहानियों तक सीमित हैं तो फिर स्त्री विमर्श की बातें खोखली हैं। दूसरी बात ये कि हमारे यहां मृत व्यक्ति को लेकर स्तरहीन बातें कहने की परंपरा नहीं रही है।व्यक्ति की मृत्यु के बाद तुरंत उसकी आलोचना या उसके संबंधों के बहाने से उसको विवादित करने को हमारे समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। लेकिन मन्नू भंडारी की तथाकथित मित्रों ने उनके निधन के तुरंत बाद उनके और राजेन्द्र यादव के बीच के तनावपूर्ण संबंध की बात उठाकर इस परंपरा का ना सिर्फ निषेध किया बल्कि नए लेखकों के सामने एक खराब उदाहरण प्रस्तुत किया। बेहतर होता कि ये बुजुर्ग लेखिकाएं मन्नू भंडारी के साहित्यिक योगदान या अवदान पर चर्चा करतीं। उनकी रचनाओं के बारे में नई पीढ़ी को अवगत करवाती या फिर उसको नए सिरे से व्याख्यायित करने का उपक्रम करतीं। विवादित प्रसंगों की बजाय अगर उनकी संयुक्त कृति एक इंच मुस्कान के लिखे जाने की प्रक्रिया पर चर्चा होती तो उनकी प्रयोगधर्मिता का पता चलता। ये भी पता चलता कि दो अलग अलग व्यक्ति कैसे इतना प्रवाहपूर्ण उपन्यास लिख पाए। काश! ऐसा हो पाता।

chat bot
आपका साथी