आपदा और मानव व्यवहार, महामारी के दौर में उनके जीवन रक्षक दवाओं की किल्लत पैदा की जा रही

आपदा काल में आमतौर पर लोग प्रभावितों को राहत प्रदान करने का भरपूर प्रयास करते हैं परंतु कुछ खास वर्ग इसे अपने मुनाफे के नजरिए से देखता है। सरकार के हरेक अंग की यह जिम्मेदारी है कि नागरिकों का यह अधिकार अक्षुण्ण बना रहे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 18 Jun 2021 12:20 PM (IST) Updated:Fri, 18 Jun 2021 12:20 PM (IST)
आपदा और मानव व्यवहार, महामारी के दौर में उनके जीवन रक्षक दवाओं की किल्लत पैदा की जा रही
जीवन संकट में है तो जीवन बचाने वाले उपायों की मांग सर्वाधिक है।

सन्नी कुमार। आज महामारी के दौर में इस भाव को महसूस किया जा सकता है कि सर्वत्र पसरी त्रसदी के बीच और इस त्रसदी से भी धन जुटा लेने की लिप्सा अपने सबसे वीभत्स रूप में उभर कर सामने आई है। व्यक्ति, समुदाय और संस्था तीनों ही स्तरों पर इसके बीज एकत्र किए जा सकते हैं। सबसे बढ़कर यह कि एक अर्थतंत्र जिसमें मांग बढ़ने के साथ ही कीमत बढ़ जाने को एक वैध नियम की तरह अपनाया गया है, जीवन को चुनौती देते इस कठिन समय में अपने सबसे सघन रूप में जीवनतंत्र का हिस्सा हो गई। आज स्थिति यह है कि जीवन संकट में है तो जीवन बचाने वाले उपायों की मांग सर्वाधिक है। इधर अर्थतंत्र कहता है कि इन उपायों की सबसे अधिक कीमत वसूलो।

इस बुनियादी मान्यता से हम सब सहमति रखते ही होंगे कि सर्वाधिक जरूरतमंद व्यक्ति को आवश्यक सुविधा सबसे पहले मिलनी चाहिए। खासकर जब मामला जीवन के प्रश्न से जुड़ा हो तो इस मान्यता से इन्कार की कोई वजह नहीं दिखती। आखिर एक बीमार व्यक्ति को ही दवा की जरूरत होती है, स्वस्थ व्यक्ति के लिए इसका क्या काम? लेकिन दुर्भाग्य से अभी ऐसा नहीं हुआ। समर्थ और स्वस्थ लोगों ने संभावित बीमारी के भय से आवश्यक दवाओं और चिकित्सीय सुविधाओं का संग्रह करना शुरू कर दिया, इसका परिणाम यह हुआ कि जिन्हें आवश्यकता थी उन्हें समय रहते इन जीवनरक्षी उपायों की पूर्ति नहीं हो सकी। एक तो सीमित संसाधन, ऊपर से अपनी जान को ‘सामुदायिक जीवन’ से श्रेष्ठ मानने की मानसिकता ने कई जानें ली। दूसरी तरफ इन जीवनरक्षी उपायों के व्यवसाय से जुड़े लोगों का पक्ष है। यह बात ठीक है कि हम व्यवसायी से मुफ्त की आशा नहीं कर सकते हैं, लेकिन आपदा को बेशुमार मुनाफे में बदलने की योजना निश्चित ही अनैतिक और अमानवीय है। दुर्भाग्य से यह भी हुआ। देशभर में ऐसे मामले देखे गए जब अपनों को बचाने के लिए लोगों को इन मुनाफाखोरों की जेबें भरनी पड़ीं।

रेमडेसिविर दवा की सरकार द्वारा तय की गई अधिकतम कीमत से कई गुना अधिक कीमत वसूली गई। सिर्फ इसलिए कि आप दवा नहीं अपना जीवन खरीद रहे हैं। क्या इससे अमानवीय सौदा कुछ हो सकता है? आक्सीजन के अभाव में लोग दम तोड़ते रहे, लेकिन इससे अनाप-शनाप कीमत वसूलने वालों पर कोई असर नहीं हुआ। उनका अर्थतंत्र अपनी गति से चलता रहा। कालाबाजारी की इस प्रवृत्ति ने इस बात पर मुहर लगा दी कि किसी त्रसदी से निपटने के लिए यह सामाजिक समूहीकरण अभी परिपक्व नहीं हुआ है और यह बात तब भी कही जा सकती है, जब अनेक लोगों ने दूसरों की सहायता के लिए अपना सर्वस्व झोंक दिया। एक ही समाज में आपको इस तरह की दो तस्वीरें दिख जाएंगी, लेकिन इससे निकृष्ट अर्थतंत्र की कहानी को उजागर होने से नहीं रोका जा सकता।

मूल बात यह है कि जिस चीज की जितनी अधिक मांग हो, उसकी कीमत उतनी ही बढ़ जाती है। अब अगर दूसरे ढंग से विचार करें तो यह भी कहा जा सकता है कि यदि कीमत अधिक वसूलने की मंशा हो तो या तो मांग बढ़ा दी जाए या फिर आपूíत की किल्लत कर दी जाए। जब चीजें उपलब्ध ही नहीं होंगी तो कीमत बढ़ेगी ही। रेमडेसिविर दवा न मिले या आक्सीजन न मिले तो जान बचाने के लिए मुंहमांगी कीमत वसूलना आसान हो जाएगा। यही बात अस्पताल के बेड के लिए भी कही जा सकती है।

तो फिर सवाल है कि ‘कृत्रिम अभाव के इस खेल’ का दरवाजा आखिरकार खुलता कहां से है। इस मामले में सबसे पहली जिम्मेदारी तो सरकारों की है। समय रहते आपदा के लिए आवश्यक तंत्र विकसित करने में असफल रही सरकारों ने अनजाने में ही इस खेल की जमीन तैयार कर दी। अगर इस खतरे का अनुमान कर मांग-आपूíत की स्वस्थ प्रणाली विकसित कर ली गई होती तो लूट का अवसर ही पैदा नहीं होता। दूसरी बात कि राज्य व केंद्र का विशाल प्रशासनिक तंत्र कालाबाजारी के समक्ष यूं असहाय कैसे बना रहा? खासकर महामारी के समय जब प्रशासन को अतिरिक्त शक्तियां मिली हुई हैं, तब यह किस प्रकार संभव हुआ कि व्यवसायी गैर-कानूनी और अनैतिक कार्यो को संचालित करते रहे? यह अकर्मण्यता अभाव को और गहरा करने में सफल हुई। इसी प्रकार रेमडेसिविर समेत कई अन्य अति आवश्यक दवाओं की कालाबाजारी भी पकड़ी गई। इस प्रकार के कई मामले सामने आए। यहां से इस बात की कल्पना की जा सकती है कि ‘सीमित मात्र में भी कमी किस प्रकार गुणात्मक भय उत्पन्न कर सकता है और यह भय गुणात्मक लाभ में परिणत हो सकता है।’

अस्पतालों में कोविड बेड निर्धारण और उसके आवंटन की प्रक्रिया भी इतनी अपारदर्शी है कि अनियंत्रित लाभ की संभावना उत्पन्न करती है। खासकर निजी अस्पतालों में इस बात को प्रत्यक्ष होता देखा जा सकता है। कहने का भाव यह है कि महामारी के समय जब वैसे ही संसाधन कम हैं, इस कमी को और गहरा करने की कोशिश की जा रही है। दुर्भाग्य से यह कमी काफी संगठित तरीके से योजनाबद्ध प्रतीत होती है। इस बीमारी से लड़ने के साथ साथ अब इससे लड़ने की भी आवश्यकता है कि एक आम नागरिक का जीवन किसी लूटतंत्र की भेंट न चढ़ने पाए। भारत का संविधान जीवन का अधिकार देता है और सरकार के हरेक अंग की यह जिम्मेदारी है कि नागरिकों का यह अधिकार अक्षुण्ण बना रहे।

[सामाजिक मामलों के जानकार]

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