मौलाना आजाद के चलते धार्मिक आरक्षण के आधार पर नहीं बंटा भारत
मुस्लिम समाज के साथ अल्पसंख्यक समाज को भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के मुद्दे पर रायशुमारी के लिए संविधान का गठन किया गया था इसमें मौलाना आजाद के अलावा सरदार वल्लभभाई पटेल बेगम एजाज रसूल मौलाना हिफ्ज-उर रहमान हुसैन भाई लालजी श्री राज गोपालाचारी व तज्जमुल हुसैन सदस्य थे।
नेमिष हेमंत, नई दिल्ली। देश में आरक्षण को लेकर सियासत जारी है। इसके कारण समाज कई भागों में बंटा हुआ है। यह बंटवारा और गहरा होता अगर मौलाना अबुल कलाम आजाद की दूरदर्शिता आरक्षण से पैदा होने वाले मतभेदों को न देख पाती। बात संविधान निर्माण के वक्त की।
मुस्लिम समाज के साथ अल्पसंख्यक समाज को भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के मुद्दे पर रायशुमारी के लिए संविधान निर्माण समिति-491 का गठन किया गया था, इस समिति में मौलाना आजाद के अलावा सरदार वल्लभभाई पटेल, बेगम एजाज रसूल, मौलाना हिफ्ज-उर रहमान, हुसैन भाई लालजी, श्री राज गोपालाचारी व तज्जमुल हुसैन सदस्य थे।
इस प्रकार मुस्लिम समेत अल्पसंख्यकों के आरक्षण पर विचार करने वाली समिति में मुस्लिम सदस्यों की बहुलता थी। पर आजाद के साथ ही सभी मुस्लिम सदस्यों ने मुस्लिमों के आरक्षण का खुला विरोध किया। मौलाना आजाद ने दो टूक कहा कि हम आरक्षण के पक्ष में नहीं है। क्योंकि इससे समाज में विघटन होगा। मुस्लिमों को लेकर गैर मुस्लिम भाईयों के जो चरमराते दरवाजें और खिड़कियां खुलती है, वह बंद हो जाएंगी। इससे हिंदू -मुस्लिम के बीच की खाई और चौड़ी हो जाएगी।
मजेदार बात यह कि सरदार पटेल व गोपालचारी आरक्षण के पक्ष में थे, लेकिन बहुमत विरोध में था। इसलिए मुस्लिमों के लिए आरक्षण का सवाल सदैव के लिए ठंडे बस्ते में चला गया। हालांकि, इसके चलते मुस्लिम समाज के एक धड़े का मौलाना आजाद समेत समिति के अन्य मुस्लिम सदस्यों को खासा विरोध भी झेलना पड़ा।
असल में मौलाना जाति या धर्म के नाम पर आरक्षण के सख्त मुखालफत थे। वह चाहते थे कि आरक्षण इसके नाम पर न हो। इससे समाज में मतभेद गहरे होंगे। जो आज हकीकत के रूप में दिखाई देता है। बल्कि वह चाहते थे कि आरक्षण जैसी व्यवस्था हो तो वह गरीबी के हालात पर हो।
वर्ष 1888 में मक्का में जन्में मौलाना आजाद की औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी। घर पर ही अरबी व फारसी के साथ धार्मिक व सामाजिक ज्ञानवर्धन हुआ था। वैसे, उनका परिवार यहीं का था। पर 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता आंदाेलन के दौरान तथा उसके बाद माहौल खराब हुआ तो इनके पिता मक्का चले गए थे, वहीं उनका निकाह हुआ और मक्का में अबुल कलाम का जन्म हुआ। जन्म के तकरीबन 10 साल बाद उनके पिता कोलकाता वापस लौटे। वहीं, मौलाना आजाद स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जुड़े।
उन्होंने देश की आजादी के साथ आडंबरों और जकड़ता में जकड़े मुस्लिम समाज को भी प्रगतिशील बनाने पर विशेष जोर दिया। इसलिए जब जवाहर लाल नेहरू के मंत्रीमंडल गठन में आजाद को गृहमंत्री या रक्षामंत्री बनने की पेशकश हुई तो उन्होंने शिक्षा मंत्री का पद चुना। क्योंकि वह देश के विकास में शिक्षा को खासा महत्वपूर्ण मानते थे।
इसी तरह संसद में हिंदी और उर्दू की बहस जब चल रही थी तो उन्होंने संसद सदस्यों को इस विवाद से बचने की सलाह देते हुए कहा कि हिंदी- उर्दू में न उलझे और आप दोनों को मिलाकर हिंदुस्तानी भाषा का नाम दे दें। आज जो हिंदी बोली लिखी जाती है, उसमें उर्दू के कई शब्द है।
अबुल कलाम आजाद न मुस्लिम लीग की सियासत को पसंद करते थे, न वह बंटवारा के पक्ष में थे। उन्होंने मुसलमानों को सच्चा व नेक बनने की हिमायत की। आजादी के बाद जामा मस्जिद पर दिया गया उनका ऐतिहासिक भाषण आज पुरानी दिल्ली समेत पुरे मुल्क में याद किया जाता है।
मौलाना जब दिल्ली आते तो दरियागंज में हमदर्द दवाखाना के मालिक हकीम अब्दुल हमीद की कोठी में रहा करते थे। दूसरा ठिकाना बल्लीमारान में एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की भी कोठी थी। उनके पौत्र जाकिर नगर निवासी व हैदराबाद स्थित मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति फिरोज बख्त अहमद ने कहा कि मौलाना आजाद की आरक्षण न लेने के विचार पर चलते हुए मुस्लिमों को अपने बाजुओं और परिश्रम पर यकीन रखना चाहिए।
उन्हें मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस कथन पर विश्वास करना चाहिए “मैं हर मुस्लिम के एक हाथ में कुरान और दूसरे में कम्प्युटर देखना चाहता हूं।' पर समस्या यह कि मुस्लिम संप्रदाय पर कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं का चश्मा चढ़ा है। इससे देश और मुस्लिम समुदाय के साथ मानवता का ह्रास हो रहा है।
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