मौत तय है, पर बे वक्त...तो नहीं, सांसें थमने नहीं देंगे; हम पर भरोसा रखना

Coronavirus Outbreak दिल दुखी होता है। एक बार डरता है फिर हौसला देता है। अपनी हिम्मत खुद ही बढ़ाता है। गिरता है उठता है। चलता है आगे बढ़ता है। आज महामारी हौसले की भरपूर परीक्षा ले रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 04 May 2021 09:11 AM (IST) Updated:Tue, 04 May 2021 09:11 AM (IST)
मौत तय है, पर बे वक्त...तो नहीं, सांसें थमने नहीं देंगे; हम पर भरोसा रखना
बैठे-बैठे अपनों की सांसे हाथ से निकलकर ईश्वर के चरणों में विलीन हो जा रही हैं।

प्रियंका दुबे मेहता, विष्णु शर्मा। Coronavirus Outbreak आज गुरु तेग बहादुर का 400 वां प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है तो शुरुआत दिल्ली के यमुनापार इलाके में स्थित गुरु तेग बहादुर अस्पताल से करते हैं। इस अस्पताल की जब शुरुआत हुई थी तब तक यहां कई सारे अस्पताल बन चुके थे लेकिन यमुना पार वालों के लिए सभी अस्पताल दूर थे। इलाके को एक अस्पताल की आवश्यकता थी। ऐसे में उस समय एक क्लर्क की पहल पर योजना बनी और फिर इस अस्पताल को मंजूरी मिली। उसके बनने तक का कार्य निर्बाध रूप से पूरा होता चला गया। जानकारों के मुताबिक उस दौरान चिकित्सा और जनस्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी के प्रस्ताव पर इस अस्पताल के लिए मंजूरी मिली। गुरु तेग बहादुर के चिकित्सा और जनसंपर्क विभाग से सेवानिवृत्त भारत भूषण के मुताबिक वे अस्पताल के बनने के बाद यहां आए लेकिन उनके कुछ जानकारों ने इसके बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

जीटीबी अस्पताल बनने के पहले से इस योजना से जुड़े रहे जानकारों के मुताबिक इरविन (एलएनजेपी) और विलिंगडन अस्पताल दिल्ली के दूसरे हिस्से में थे, वहां ट्रांस यमुना के लोगों के लिए पहुंचना काफी परेशानी भरा होता था। यमुना पार करने के लिए उस वक्त केवल लाल किले के पीछे का लोहे का पुल ही था। भारत भूषण के मुताबिक अक्सर गंभीर रूप से बीमार मरीज उन अस्पतालों में पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते थे। ऐसे में जरूरत महसूस हुई कि इस मृत्यु दर को कम करने के लिए कोई अस्पताल होना चाहिए, वह भी कम से कम पांच सौ बेड क्षमता वाला हो। इस अस्पताल के लिए प्रस्ताव 1967 में बनाया गया था और फिर 1971-72 में इसका काम शुरू कर दिया गया। 1987 में 350 की बेड क्षमता वाला अस्पताल आज 1700 बेड क्षमता वाला हो गया है। अस्पताल तब घने जंगल के बीच जमीन खरीद कर बनाया गया था लेकिन जैसा होता है न कि जनसंख्या तो बढ़ती है लेकिन जगह का विस्तार नहीं होता, ऐसा होता रहा और आज यह अस्पताल अपनी क्षमता से अधिक मरीजों का इलाज कर रहा है, कभी दूर तक फैला जंगल अब काफी भीड़भाड़ वाला इलाका हो गया है।

यमुना किनारे से शुरू हुआ था सेंट स्टीफंस का सफर :

अब चलते हैं सेंट स्टीफंस की ओर। इस अस्पताल के बनने की कहानी काफी रोचक और उदारता की मिसाल है। इसकी शुरुआत कुछ इस तरह से हुई। 1858 में भारत में पैदा हुई प्रिसिला विंटर ने यमुना नदी के किनारे चिकित्सा सुविधाएं देने का काम शुरू किया था। उस समय एक मेडिकल बक्से और कुछ सामान्य दवाइयों से लोगों को स्वास्थ्य सुविधा देती थीं। सन् 1867 में व्हाइट लेडीज एसोसिएशन से उन्होंने एक छोटी डिस्पेंसरी की मांग की जहां पर नर्सों को प्रशिक्षण दिया जा सके, जो कि लोगों के घरों पर जाकर चिकित्सा सुविधाएं दे सकें। इसकी शुरुआत हुई। प्रशिक्षित नर्स या डाक्टर न होने के कारण पुरुष चिकित्सक सलाहकार के तौर पर जाने लगे। सब बढिय़ा चल रहा था लेकिन अचानक 39 वर्ष की उम्र में विंटर की मृत्यु हो गई। अब तक उन्होंने इतने लोगों में सेवा का जज्बा भर दिया था कि लोगों ने उनके नक्शे कदम पर चलते हुए सेवा के इस मिशन को जारी रखा। विंटर की याद में चांदनी चौक में 50 बेड का अस्पताल बनवाया गया।

देह्ली सिटी बाक्स के संस्थापक सचिन बंसल के मुताबिक अक्टूबर 1885 में महिला और बच्चों का पहला अस्पताल सेंट स्टीफंस के नाम से खोला गया। बाद में 1906 में पुलिस परेड ग्राउंड (आज का तीस हजारी कोर्ट) में इस अस्पताल की नींव रखी गई। इसके बारे में यह जिक्र भी मिलता है कि उस समय संभ्रांत घरों की महिलाएं अस्पताल में जाना सम्मानजनक नहीं समझती थीं, ऐसे में कमजोर तबके की महिलाएं ही प्रसूति या फिर रोगों के इलाज के लिए वहां जाया करती थीं। वर्षों बाद उच्चकुलीन घरों की महिलाएं वायसराय लार्ड हार्डिंग की पत्नी लेडी हार्डिंग सेे मिलीं और उस अनौपचारिक बैठक में विशुद्ध रूप से एक महिला अस्पताल बनाने की मांग की। इतिहासकार सोहेल हाशमी बताते हैं कि उन्हेंं कुछ समय पहले यह बात अलीगढ़ के एक स्कूल संस्थापक की पत्नी ने बताई थी, जो खुद भी उस दौरान लेडी हार्डिंग की उस बैठक का हिस्सा थीं। इस बातचीत में खासतौर पर भोपाल की महारानी ने अपनी बात रखते हुए महिला अस्पताल की मांग की। इतिहासकार और लेखक लूसी पेक की पुस्तक देह्ली अ थाउजेंड ईयर्स आफ बिल्डिंग में जिक्र मिलता है कि महिलाओं और बच्चों की स्वास्थ्य सेवा के लिए मिशनरी महिलाओं के समूह द्वारा सन् 1885 में बना सेंट स्टीफंस अस्पताल पहले कहीं और बनाया गया था बाद में 1908 में इसे चांदनी चौक के रानी बाग (कंपनी बाग) में स्थानांतरित कर दिया गया। 1970 में इसे जनरल अस्पताल में बदल दिया गया। अब यह भवन पूरी तरह से नए पत्थरों से बना है।

अमृत कौर का एम्स का सपना :

अब बात आती है दिल्ली के दो ऐसे बड़े अस्पतालों की जो एक-दूसरे के आमने -सामने हैं। और दिल्ली के स्वास्थ्य ढांचे की नींव माने जाते हैं। दिल्ली क्या देश के तमाम राज्य गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए यहीं भरोसा करते हैं। हम बात कर रहे हैं एम्स और सफदरजंग की। इतिहास को गौर से देखें तो पता चलता है कि एम्स अमृत कौर का सपना था जो उन्हीं के प्रयासों से हकीकत में तब्दील हुआ। नई पीढ़ी को कुशल बनाने के लिए नई सोच के साथ विभिन्न क्षेत्रों में प्रशिक्षित करने के लिए उच्च स्तरीय प्रशिक्षण संस्थानों के निर्माण की बात आई तो प्रौद्योगिकी की क्षेत्र में आइआइटी, कला के क्षेत्र में संगीत नाटक अकादमी और चिकित्सा के क्षेत्र में एम्स की नींव रखी गई थी। एम्स के सपने को साकार करने वाली राजकुमारी अमृत कौर की जिंदगी की कहानी बेहद दिलचस्प है, 1947 में जब उन्हेंं टाइम पर्सन आफ द ईयर चुना जा रहा था, तब पंडित नेहरू उन्हेंं अपनी कैबिनेट में शामिल नहीं करना चाहते थे। नेहरू के जीवनीकार संकर घोष के मुताबिक नेहरू हंसा मेहता को लेना चाहते थे, लेकिन गांधी जी के कहने पर अमृत कौर को लेना पड़ा।

1946 में भारत सरकार के हेल्थ सर्वे में निकलकर आया था कि मेडिकल पीजी कोर्स के लिए भारत में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का संस्थान होना चाहिए। दस साल से दिल में सपना संजोए देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री अमृत कौर ने जब 1956 में ये प्रस्ताव संसद में रखा तो उस समय उनके पास लिखित भाषण नहीं था, वे दिल से बोल रहीं थीं। यह देखकर दोनों सदनों के लोग चौंके, लेकिन प्रस्ताव पारित हो चुका था। फिर बात फंड पर आई। केंद्र सरकार से इतना फंड नहीं मिलना था। अमृत कौर की हस्ती देखते हुए पहला ऐलान हुआ कि एक बड़ा फंड न्यूजीलैंड की सरकार से मिलेगा, उसके बाद वो दुनिया भर से एम्स के लिए फंड इकट्ठा करती रहीं, राकफेलर फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन, आस्ट्रेलिया, पश्चिमी जर्मनी और हालैंड की सरकारों ने भी एम्स के लिए फंड जारी किए।

दो अस्पतालों की अनोखी कड़ी, अवध :

एम्स और सफदरजंग हॉस्पिटल के बीच एक कड़ी है, और वो है अवध। जहां अवध के नवाब वजीर अबुल मंसूर मिर्जा मोहम्मद मुकीम अली खान को मुगल बादशाह मोहम्मद शाह ने उपाधि दी थी सफदरजंग, वहीं अमृतकौर के पिता हरनाम सिंह अहलूवालिया कपूरथला के युवराज थे, बड़े भाई की मौत के बाद हुए गद्दी के झगड़े से खिन्न होकर वो अवध आ गए और उन्हेंं राजा की उपाधि देकर एस्टेट मैनेजर बना दिया गया। अमृत कौर उनकी सबसे छोटी संतान और इकलौती बेटी थीं। यह अलग बात है कि राजकुमारी अमृत कौर ने कभी भी शादी नहीं की और उनका अंतिम संस्कार भी सिखों के रीति रिवाजों के अनुसार किया गया। अमृत कौर आक्सफोर्ड से पढ़कर लौटीं तो जलियांवाला बाग की घटना के बाद खुद को राष्ट्रीय आंदोलन व महिलाओं के लिए अर्पित कर दिया, वो 16 साल गांधी जी की सेक्रेटरी बनकर रहीं, 1934 से तो उनके आश्रम में ही रहने लगीं। तमाम नेशनल इंटरनेशनल संस्थाओं से जुड़ी रहीं। हेल्थ के बाद स्पोट्र्स का पोर्टफोलियो भी उन्हेंं मिला, मलेरिया को भारत से खत्म करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था।

द्वितीय विश्वयुद्ध से जुड़ा है सफदरजंग का इतिहास :

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक और दिल्ली विधानसभा के पूर्व सदस्य प्रो. हरीश खन्ना के मुताबिक जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमरीकी सेना की टुकड़ियां भारत आईं तो उस समय देश के एकमात्र हवाई अड्डे, विलिंगडन एयरफील्ड उतरीं। सेना की इन टुकडिय़ों को यहीं आसपास ही ठहराया गया। समस्या यह आई कि आसपास के इलाके में कोई अस्पताल नहीं था। ऐसे में घायल सैनिकों के इलाज की सुविधा न देखकर वहीं पर तत्काल कुछ बैरक बनवाए गए। विलिंगडन एयरफील्ड के दक्षिणी किनारे पर इन बैरक्स में सेना के लिए चिकित्सा केंद्र बनाया गया। इसमें उस दौर तक की सभी अत्याधुनिक चिकित्सकीय सुविधाएं मुहैया कराई गईं। इतिहासकार सोहेल हाशमी बताते हैं कि उत्तरी फ्रंट से जब जापानी घुस रहे थे (उत्तरी फ्रंट यानी बंगाल) तो उस फ्रंट के लिए जो बेस अस्पताल बनाया गया था, वह सफदरजंग ही था। वैसे अस्पताल से भी ज्यादा यह मेडिकल स्टोर था। बैरक इसीलिए बने थे कि यहां पर दवाइयां, बैंडेज और प्लास्टर आदि रखे जाते थे।

दिल्ली में इससे पहले अस्पताल थे। सोहेल हाशमी का कहना है कि उनके मित्र के पिता डा. इंदरजीत सिंह विश्व युद्ध के समय में उस अस्पताल में आर्मी के डेंटिस्ट थे, वे बताते थे कि लोदी कालोनी का इलाका भी उस समय इस मेडिकल बेस का हिस्सा था और संभवत: वहां चिकित्सकों की रिहाइश बनाई गई थी। उस समय इस सेंटर में एक्सरे मशीन, लैब और इमरजेंसी सुविधाएं थीं। जब द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हुआ तो अमेरिका ने यह चिकित्सा केंद्र भारत सरकार को सुपुर्द कर दिया। यही विलिंगडन एयरफील्ड बाद में सफदरजंग एयरपोर्ट और यहां का यही चिकित्सा केंद्र सफदरजंग अस्पताल के रूप में विकसित हुआ। अवध के सफदरजंग के नाम पर दिल्ली का यह अस्पताल मन में सवाल खड़े करता है कि जिसका न तो चिकित्सा के क्षेत्र से कोई लेना देना और न ही समय का मेल, ऐसा नामकरण पंडित नेहरू ने किया ही क्यों। खैर, मान लिया गया कि संभवत: सफदरजंग के मकबरे के समीप होने के कारण यह नामकरण हुआ होगा। 1954 में इसे भारत सरकार ने स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन कर दिया। तब इसमें 204 बेड क्षमता थी। बाद में स्वास्थ्य मंत्रालय की स्वास्थ्य योजना के तहत यहां एक मेडिकल कालेज भी स्थापित किया गया। केंद्र सरकार के अधीन अस्पतालों में यह क्षमता के लिहाज से सबसे बड़ा अस्पताल है।

लोहिया ने यहीं ली थी अंतिम सांस :

अंग्रेजों के शासनकाल में उन्हें कर्मचारियों के इलाज के लिए अस्पताल की जरूरत महसूस हुई। तब 1932 में विलिंगडन अस्पताल का निर्माण कराया गया। 54 बेड का यह नर्सिंग होम नगर समिति के अधीन ले लिया गया था, जिसे बाद में 1954 में केंद्रीय स्वास्थ्य सेवा के अधीन कर लिया गया। इस अस्पताल के वास्तुशिल्प में ऐतिहासिक झलक मिलती है। इसके ऊपर बना डोम राष्ट्रपति भवन से मेल खाता है। अस्पताल के भवन की वास्तुकला के कारण इसे ऐतिहासिक विरासत घोषित कर दिया गया है। इस अस्पताल का नाम 1978 में डा. राम मनोहर लोहिया अस्पताल कर दिया गया। जानकारों के मुताबिक राम मनोहर लोहिया का यहां इलाज चला था और उनकी मृत्यु इसी अस्पताल में हुई थी। ऐसे में इस अस्पताल का नाम उनके नाम पर रख दिया गया।

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