Coronavirus: बेतहाशा भागती जिंदगी पर अचानक ब्रेक लगा तो कुछ पल के लिए लोग ‘शून्य’ में चले गए

अब तन ही नहीं मन की सेहत भी जीवन के केंद्र में है। इन सबके बीच इस शाश्वत सत्य की पुष्टि भी हुई कि बड़े से बड़े संकट के लिए आत्मबल से बड़ा कुछ नहीं। कोरोना जनित परिस्थिति में यही संवाद हमारे काम आया।

By Vinay Kumar TiwariEdited By: Publish:Thu, 31 Dec 2020 01:06 PM (IST) Updated:Thu, 31 Dec 2020 01:06 PM (IST)
Coronavirus: बेतहाशा भागती जिंदगी पर अचानक ब्रेक लगा तो कुछ पल के लिए लोग ‘शून्य’ में चले गए
शाश्वत सत्य की पुष्टि भी हुई कि बड़े से बड़े संकट के लिए आत्मबल से बड़ा कुछ नहीं।

नई दिल्ली, सीमा झा। आपदा के चलते बेतहाशा भागती जिंदगी पर अचानक ब्रेक लगा तो कुछ पल के लिए लोग ‘शून्य’ में चले गए। फिर पता चला कि यह दरअसल, अपने अंतर्मन की अनजानी यात्र पर निकल जाना था। ठहराव व जीवन की सार्थकता की बातें होने लगीं, लेकिन संयम रखते हुए संकल्प के साथ जब हम सबने अपने भीतर झांका, तो आपदा एक अवसर के रूप में नजर आने लगी।

हमारे समृद्ध पारंपरिक मूल्यों ने हमें ताकत दी और उत्साह के साथ आगे बढ़ने की राह दिखाई। अब तन ही नहीं, मन की सेहत भी जीवन के केंद्र में है। इन सबके बीच इस शाश्वत सत्य की पुष्टि भी हुई कि बड़े से बड़े संकट के लिए आत्मबल से बड़ा कुछ नहीं। कोरोना संकट के कारण हर भारतीय के लिए किस तरह वर्ष 2020 आंतरिक खोज का वर्ष साबित हुआ, मनोविज्ञानियों और अन्य विशेषज्ञों से बातचीत... 

संवाद बनाए रखने से मिला बल

वर्तमान समय कई अथोर्ं में याद रखा जाएगा। दरअसल, एकदम से शारीरिक दूरी की बाध्यता और वचरुअल स्पेस पर मौजूदगी की मजबूरी ने व्यक्ति के भीतर एक तरह का बदलाव पैदा किया है। इसमें आत्मकेंद्रित होने का खतरा बढ़ा है। अपनी चिंता, अपने स्वास्थ्य की चिंता केंद्र में आ गई है, इसलिए लोग बचाव के लिए कई बार अव्यावहारिक प्रयास भी करते दिखे हैं।

जिंदगी नए रूप में ढल रही है, जिसमें पहले जैसे सामाजिक सरोकार की अनुपस्थिति है। आपसी संवाद का क्षरण है, जिसकी भरपाई वचरुअल स्पेस से उस रूप में नहीं हो रही। इटली के दार्शनिक जॉर्जियो अगंबेन ने कोरोना पर अपनी राय जाहिर करते हुए एक महत्वपूर्ण बात कही है। वह कहते हैं, ‘लगता है कि हमारा समाज ऐसा है, जिसके पास अपने को जिंदा रखने के सिवा और कोई मूल्य नहीं है। लगता है हम सिर्फ ‘बेयर लाइफ’ (मात्र जीवन) में विश्वास करने लगे हैं, और किसी चीज में नहीं।

वह आगे कहते हैं कि हम इस भय में अपने सहज जीवन के सभी मूल्य यथा मित्रता, सामाजिक संबंध, काम, स्नेह, धार्मिक और राजनीतिक लगाव सब भूलने से लगे हैं। यदि यह भाव सचमुच ऐसा है तो यह समाज के लिए सही नहीं। आत्मचिंतन सही है, लेकिन यदि अब खुद को बचाने का भय एंग्जायटी में बदल रहा है तो आपको आने वाले समय में मन की सेहत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। तन की सेहत के साथ मन का भी खूब खयाल रखें। इंसान सामाजिक प्राणी है, इसलिए वह कभी अलग-थलग नहीं रह सकता। वह संवाद के बिना नहीं रह सकता।

कोरोना जनित परिस्थिति में यही संवाद हमारे काम आया। हमें सचेत, सजग एवं सावधान तो रहना ही चाहिए, लेकिन भय को उस चूहे में नहीं बदलने देना चाहिए, जो हमारे भीतर रह कर हमारी मानवीयता को कुतरता जाए। इस भय का विस्तार रोकना आपके हाथ है। इसके लिए जरूरी है कि आप अंतर्मन में हमेशा मानवीय संवदेना को जगाए रखें। ऐसे में आने वाले समय में यानी उत्तर कोरोना काल में हमारी सबसे बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी होनी चाहिए कि हम शारीरिक दूरी को कभी भावनात्मक दूरी में न बदलने दें। तभी मानवीयता बचेगी और हमारी दुनिया सुंदर बनेगी। (प्रो. बद्री नारायण, निदेशक, गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज)

जीवन लगातार बदलता है। यह कभी बहुत अधिक चढ़ाव पर होता है तो कभी इतना उतार आता है कि लगता है अब कुछ बचा ही नहीं। कुछ पल ऐसे आते हैं कि लगता है कि अब यह वही रहेगा, लेकिन आपदा के दौर ने साबित किया कि समय के साथ बदलाव निश्चित है। आंतरिकऊर्जा बनी रहे तो हम इस बदलाव को लेकर सजग रहते हैं और मुश्किलों का निदान करने का प्रयास करते हैं।

हालांकि हर व्यक्ति की अपनी आकांक्षाएं होती हैं। सफलता को लेकर सबके अपने मायने होते हैं। किसी के लिए अच्छी नौकरी वाली जिंदगी सफलता है तो कोई दूसरे से अच्छे रिश्ते को सफलता मानता है। इस तरह के लक्ष्य बहुत निजी होते हैं, पर आपने गौर किया होगा कि आपके हर लक्ष्य के लिए आपको भीतर की शक्ति जुटानी ही पड़ती है। आपकी आंतरिक यात्र जारी रहे, यह पूरी तरह हमारी जीवनशैली पर निर्भर है। वह जीवनशैली, जिसका हमने इस साल अभ्यास भी किया। अब इसे बनाए रखना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए, ताकि जीवन की गुणवत्ता बनी रहे। 

इस संदर्भ में कुछ बातें जरूर ध्यान में रखें :

- आत्मविश्वास बनाए रखें। यह नए साल में अपनी जीवनशैली को नियमित बनाए रखने की पहली सीढ़ी है। आपको लगना चाहिए कि हां, थोड़ी कठिनाई होगी पर मैं कर सकता हूं।

- औरों की सलाह सुनें, पर उसे अपने अनुकूल ही अमल में लाएं। राय पर ध्यान देना या औरों की बात का सत्यापन करते रहने से आप अपने लक्ष्य से भटक सकते हैं। फोकस हमेशा खुद पर रखें, अन्यथा ऊर्जा और समय दोनों व्यर्थ हो जाएंगे।

- आप कल्पनाशक्ति को अनुशासन के साथ जोड़ें। दरअसल, अनुशासन की मदद से आप जो कुछ भी कल्पना करते हैं, उसे आसानी से हासिल किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, हममें से लगभग सभी एक संपूर्ण स्वस्थ शरीर प्राप्त करना चाहते हैं। अब इसे प्राप्त करने के लिए हमें अपने खानपान और दिनचर्या को अनुशासन में बनाए रखना है। यह प्रतिबद्धता के बिना नहीं बनाए रखा जा सकता।

- हमें लगातार अपनी ऊर्जा को बनाए रखने की जरूरत है। जैसे कार या घर में निवेश करते हैं, वैसे ही अपनी ऊर्जा को बनाए रखने में भी निवेश करना चाहिए। इसके लिए आप कुछ नया कौशल सीखते रहें, कुछ विशेष प्रशिक्षण लें।

- याद रखें, धैर्य के बिना जीवन को सुंदर नहीं बना सकते। विकास या जीवन में बदलाव होना एक प्रक्रिया है। वह एक निश्चित समय के बाद ही फल देता है। रातोंरात पेड़ में भी फल नहीं लगते। हमें इंतजार करना ही होता है। इसलिए आपको बस धैर्य रूपी अस्त्र का साथ नहीं छोड़ना है।

- यह समय अच्छा नहीं तो आगे भी अच्छा नहीं होगा, यह जरूरी नहीं। मन से नकारात्मक खयालों को विदा करें। दिनचर्या बनाए रखें तो ये बुरे खयाल हावी नहीं होंगे। ध्यान नियमित रूप से करना चाहिए। अपना खयाल रखें। सुरक्षा के नियमों का पालन करते रहें और नए साल में नवीन संकल्प और उत्साह के साथ प्रवेश करें। 

ग्रैंडमास्टर अक्षर, सेलिब्रिटी योग गुरु और लाइफ कोच

नव-जागरण का काल बना यह साल

मनोविज्ञान के लिहाज से देखें तो प्रतिकूल प्ररिस्थितियों में इंसान हमेशा अस्वीकार की अवस्था में होता है अथवा नकारात्मक हो जाता है। कुछ लोग पलायन भी कर जाते हैं। यही हुआ था जब आपदा ने दस्तक दी, पर धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति कम होने लगी। ध्यान दें, परिस्थितियां अब भी कठिन हैं, उससे भयावह, पर प्रतिक्रिया बदली हुई है। ब्रिटेन में कोरोना का नया रूप दिख रहा है, पर मैं जिन लोगों के संपर्क में हूं, उनमें वह दहशत नहीं दिख रही, जो शुरुआती दौर में देखी गई।

इसे रिजिलियंस कहा जाता है यानी कठिन समय हो तो लोग उसी तीव्रता से वापस बाउंस बैक करते हैं। तूफान, झंझावातों में तनाव ङोलते हुए भी खड़े या टिके रहने का प्रयास करते हैं। इसलिए जब लॉकडाउन हुआ तो लोग उस बदली स्थिति में अपने भीतर डूबते गए। उन्होंने अपने बारे में सोचना शुरू किया। कठिन परिस्थिति हमेशा हमारे अंदर शीलगुण विकसित करती है। यदि कठिनाई को स्वीकार करना सीख जाएं या स्वीकार लें, उसका स्वागत करें तो मन में ऊर्जा का प्रवाह शुरू होता है। ऐसी परिस्थितियों में लोगों की प्रतिबद्धता, संकल्प शक्ति मजबूत होती है। इसलिए अब देख सकते हैं ज्यादा हिदायतें नहीं देनी पड़तीं। लोग नियमों को मानते हुए सामान्य बनाने की कोशिश में जुट जाते हैं।

जैसा कि आप देख पा रहे होंगे कि अभी कैसे लोग तनाव और चिंताओं के बीच रहना सीख रहे हैं। अपने सामाजिक दायित्व को सीमित होकर ही सही, पर पूरा कर रहे हैं। शुरू में लोग कह रहे थे कि लॉकडाउन बढ़ना चाहिए, उन्हें भय था। अब वह मनोदशा भी नहीं रह गई है। जब हम खुद के भीतर रहने लगे, बाहर से कटे, तो पता चला कि एक बदलाव होना शुरू हुआ। कई सकारात्मक परिवर्तन हुए। परिवेश भले कठिन हो, पर बदलाव सुखद है। कुछ बदलाव का जिक्र जरूरी है।

मसलन, पर्यावरण प्रदूषण अपेक्षाकृत कम हुआ। सामाजिक परस्परता बढ़ी। हमने देखा कि वचरुअल ही सही, लोगों ने एक-दूसरे का हाल-चाल लिया। वाट्सएप और फेसबुक आदि पर लोगों ने अपनी भाषा में बदलाव किया। वह बदले रुख का प्रमाण था, जिसमें लोग जीवन की सार्थकता पर बातें कर रहे हैं। गंभीर हो गए हैं। आध्यात्मिक होने की जो शतेर्ं आधुनिक समय में देखी गई हैं कि लोग समाज से कट जाएं और आत्मचिंतन करने लगे, खुद से जुड़ाव महसूस करने लगें, वह इस समय नजर आया।

परिस्थितिजन्य ही सही, पर अब लोगों ने खुद को समझा, अपनी जड़ों और मूल्यों से जुड़ने लगे। हर इंसान को समय मिला, इसलिए लोग आत्ममंथन करने लगे। योग और आयुर्वेद से जुड़े, फोक विज्डम यानी लोकविवेक ज्ञान का उपयोग किया। आगे भी यह बना रहे तो कोई आश्चर्य नहीं। इस समय में बहुत सारी खोजें हुईं। लोगों ने अपने स्तर से पीड़ा से बाहर निकलने के उपाय खोजे। वैक्सीन इतने कम समय में बन सकती है? यह भी इसी काल का परिणाम है। इस काल में मिले सबक इंसान हमेशा याद रखेगा। यह नवजागरण का काल है। संकट जब बड़ा होता है तो इसी तरह इंसान खुद को ढालता है और आने वाली पीढ़ी के लिए राहें तैयार करता है।

(डॉ. राकेश पांडेय, पूर्व अध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग, बीएचयू, वाराणसी)

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