सच पूछिए तो यह दौर गिले-शिकवे दूर कर प्रेम के पौधे को सींचकर बड़ा करने का था...

बीता समय हमें क्या दे गया? जब पूछा जाता है किसी से तो जवाब मिलता है कि देना क्या था भारी कीमत ले गया बीता पल लेकिन परिवार के लिहाज से देखा जाए तो सबका साथ उठना-बैठना पति का पत्नी के और नजदीक आना उसकी परेशानियों को समझना।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 26 Jun 2021 12:14 PM (IST) Updated:Sat, 26 Jun 2021 12:17 PM (IST)
सच पूछिए तो यह दौर गिले-शिकवे दूर कर प्रेम के पौधे को सींचकर बड़ा करने का था...
मां का बच्चों के साथ ढेर सारी बातें करना और खुद को समझने का मौका मिला महिलाओं को।

नई दिल्‍ली, यशा माथुर। घरवाली रोज शिकायत करती थी कि आप आफिस से इतनी देर से आते हैं, घर आने के बाद भी मोबाइल पर लगे रहते हैं। आपको न तो बच्चों की फिक्र रहती है और न ही मेरी। क्या हो रहा है घर में, कैसे मैनेज हो रही हैं सब चीजें, ये सब जानने की आपको फुरसत कहां? अगर पत्नी भी कामकाजी है तो पति को लगता कि इनके पास मेरे लिए तो समय ही नहीं है। हर कोई शाम को साथ बैठकर चाय पर अपनी कहता है, साथी की सुनता है, लेकिन मेरी पत्नी का तो पूरा दिन काम, काम और काम में निकल जाता है। न जाने कितना काम रहता है इनके पास? न पति समझ पा रहे थे पत्नी की जद्दोजहद और न ही पत्नी समझ पा रही थी पति की मजबूरियों को। लाकडाउन में जब दोनों घर में लंबे समय तक साथ रहे तो दांपत्य जीवन की गलतफहमियां दूर हुईं और आपसी संबंध और मजबूत हुए।

पति ने समझा मेरी मेहनत को: डर था कोरोना का, बाहर खौफ था, लेकिन घर की चारदीवारी में रिश्ते नई सांस ले रहे थे। जिंदगी की भागदौड़ में भावनाएं जो कहीं दब गई थीं वे बाहर आकर अपना हाल बता रही थीं। पति-पत्नी मिलकर फैसले कर रहे थे और भविष्य की संभावनाओं पर विमर्श हो रहा था। कविंद्र और रितु अग्रवाल का प्यार रिश्ते में बदला था, लेकिन बच्चों के लिए सुविधाएं जुटाने के फेर में प्यार कहीं गुम हो गया था और बचा था तो सिर्फ घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियां पूरा करने का प्रयास। दोनों को साथ बैठने और अपनी बात कहने का मौका ही नहीं मिलता था। दोनों जब घर आते तो रितु कमर में दुपट्टा खोंसकर रसोई देखतीं और कविंद्र बच्चों के साथ व्यस्त हो जाते। ऐसा नहीं था कि कहीं कोई मनमुटाव था या झल्लाहट थी, लेकिन शांति से दो बोल बोलने की कमी तो खटकती ही थी। जब लाकडाउन लगा तो सबसे पहले काम छूट जाने का डर लगा, लेकिन फिर वर्क फ्राम होम होने और काम के साथ घर पर ही रहकर गृहस्थी चलाने का अनुभव हुआ, जो सुखद था। रितु कहती हैं, हमने बहुत देर-देर तक साथ बैठकर इतनी बातें पहले कभी की ही नहीं थीं। लाकडाउन में घर का काम बहुत बढ़ गया, लेकिन कवि मेरे पास आते और हर काम में हाथ बंटाते। यहां तक कि मेरी मेहनत की तारीफ भी करते। वह घर में रहकर बहुत खुश रहे। हमने कई-कई घंटे साथ बैठकर वे बातें कीं, जो हम आज तक नहीं कर पा रहे थे। हर पल उनके सपोर्ट ने मेरी नजरों में उनका मान और ज्यादा बढ़ा दिया।

बेटे पर बढ़ा भरोसा: कोविड का काल रहा तो बहुत दर्द भरा, लेकिन परिवार व्यवस्था को सुदृढ़ करने का काम कर गया। परिवार में जब किसी को कोरोना हुआ तो अन्य सदस्यों का परेशान होना, अपने प्रियजन को बचाने के लिए दिन-रात एक कर देना, तमाम उम्र के लिए रिश्तों को रोप गया। 25 साल के अभय हर सुबह देर से उठते थे। मां चिल्लाती रहतीं, लेकिन वह अपने कमरे में बिस्तर पर करवटें बदलते रहते, परंतु जब पापा को बुखार आया तो उसने तुरंत पिता को टेस्ट के लिए राजी किया और अस्पताल ले जाकर डाक्टर को दिखाया। उनको भर्ती कर लिया गया तो वह हर सुबह छह बजे उठकर पापा को फोन करता और उनका हाल जानता। मां को बताता पापा ठीक हैं और 10 बजे तक तैयार होकर अस्पताल चला जाता। पापा के लिए प्लाज्मा डोनर से लेकर रेमडेसिविर इंजेक्शन का इंतजाम करने तक का जिम्मा उसने सहर्ष उठा लिया था। इतना ही नहीं, पिता के लिए उसकी चिंता साफ दिखाई दे रही थी। हर समय गैर-जिम्मेदार होने का आरोप झेलते बेटे को यूं पिता की सेवा के लिए समॢपत होते देख इधर मां गदगद थीं और उधर पिता को विश्वास था कि बेटा उन्हेंं घर लेकर ही जाएगा। अंतत: पिता ठीक हुए, घर आए ओर बेटे की पीठ थपथपाने में गर्व महसूस किया। उन्होंने समझा कि मैं इसे लापरवाह कहता था, पर कितना समझदार निकला मेरा बेटा। संबंधों की यही तो खूबसूरती होती है। अभय की मां कनिका रावत कहती हैं कि बेटे का यह रूप देखकर हम तो दंग रह गए। इतना समॢपत हमने उसे पहले कभी देखा ही नहीं था। अब हमारे रिश्तों में अटूट विश्वास जागा है। वह भी मेरा और अपने पिता का भरोसा जीतने पर काफी आश्वस्त है।

परिवार ने लिए सही फैसले: बेंगलुरु के अपोलो अस्पताल की एसोसिएट कंसल्टेंट डा. तन्वी सूद के परिवार के लोग एक के बाद एक कोरोना से पीडि़त होते गए। एक बहन निगेटिव थी। उसने ही सभी को संभाला। सच यही है कि जब घर में सब बीमार पड़ जाते हैं तो परिवार का हौसला और सकारात्मकता ही सही रास्ता दिखाती है। डा. तन्वी कहती हैं, दो सप्ताह तक मम्मी-पापा अस्पताल में रहे। मुझे भी सांस लेने में दिक्कत आ रही थी। बिस्तर पर थी, लेकिन हम सबने फोन पर जुड़े रहकर एक-दूसरे को संभाला। एक घर में रहने के बाद भी हम सब तभी मिल पाए जब निगेटिव हुए। परिवार में हम सब प्रोफेशनल्स हैं। कोई समस्या आती है तो हम उसका हल ढूंढ़ते हैं। हमारा फोकस मम्मी-पापा की तबीयत पर था। रोज प्लाज्मा डोनर ढूंढऩा, डाक्टर से लगातार बात करना। हम उस समय भी मजबूत और सकारात्मक बने रहे। हमने कभी सोचा नहीं कि यह क्या हो गया? क्यों हुआ? हमारे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? हम यही सोच रहे थे कि अगला कदम क्या लेना है। इस चीज से बाहर कैसे निकलना है। हमारे लिए तो यह एक आशीर्वाद की तरह था कि सब ठीक हो गए। इसलिए इसके आगे कुछ सोचा नहीं। सब कुछ ठीक होने में एक महीना लग गया। हम सकारात्मक थे और परिवार एकजुट था। इसलिए सही फैसले लेते रहे।

कोरोना ने बदली प्राथमिकताएं: सोशल एक्टिविस्ट पलका ग्रोवर के संयुक्त परिवार में सात लोगों को कोरोना हुआ, जो चार बचे हुए थे उन्होंने ही सभी को संभाला। कोरोना ने उन्हेंं याद दिलाया कि परिवार कितना महत्वपूर्ण है। परिवार का साथ होना हमें भावनात्मक और मानसिक रूप से मजबूती देता है। पलका कहती हैं, अगर हम साथ नहीं होते तो इस मुसीबत से कैसे निकलते? परिवार के लोगों को अलग-अलग अस्पतालों में जगह मिली जिससे काफी भागदौड़ रही। किसी ने रात के दो बजे अस्पताल में आक्सीजन बेड ढूंढ़ा। किसी ने घर में आक्सीजन कंसंट्रेटर की व्यवस्था की। किसी ने दवाइयों का काम संभाला तो किसी ने खाने-पीने का। पहले लोग घर के बुजुर्गों की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते थे, पर अब वे ही परिवार के साथ रहना चाहते हैं। कोरोना ने हमारे जीवन की प्राथमिकताएं बदल डालीं।

मां से हर बात शेयर की: माडल आरती विज ने बताया कि छह साल से दोहा (कतर) में थी और अंतरराष्ट्रीय केबिन क्रू की सदस्य थी। इस साल लाकडाउन से पहले मैं भारत आई। इतने साल बाद भारत आई तो मां के साथ समय बिताने का समय मिला। मै उनको बाहर नहीं ले जा पाई, लेकिन साथ रहकर मैंने उनसे अपनी हर बात साझा की। जिनके साथ मिलने का समय नहीं मिला उनसे वीडियो काल की साथ ही अपनी भावनाएं शेयर कीं।

फिटनेस की बातें कीं: हिना कोरंगा फिटनेस इंस्ट्रक्टर ने बताया कि जब मैं घर में रही तो अपने बारे में खुद को जानने की कोशिश की। मैंने मेडिटेशन करना शुरू किया तो थोड़ा आध्यात्मिक हुई। मेरी मां नियमित रूप से योग करती हैं। जब भी हम साथ बैठते तो फिटनेस और स्वास्थ्यवर्धक खानपान की बातें करते। मां भी सीखने और सिखाने के लिए तत्पर रहीं।

सीखा और सिखाया: अनुभा डावर, मेकअप आर्टिस्ट ने बताया कि मैं 15 साल से मेकओवर फील्ड में हूं। मेकअप पर एक हजार से अधिक सेमिनार कर चुकी हूं। जब पापा को कोरोना संक्रमण हुआ तो हमारा परिवार एकजुट हो गया। हम काफी दिन साथ रहे। इससे कई चीजें सीखने को मिलीं। मैंने मां से खाना बनाना सीखा और मां को स्किन केयर सिखाया। भाभी ने भी मेकअप करना सीखा। इस दौरान मुझे अपने काम पर रिसर्च करने का मौका भी मिला।

खुद की स्किल पर काम किया: अभिनेत्री गीतिका मेहंद्रु ने बताया कि मैं जब से मुंबई आई हूं तब से सिर्फ दो-चार दिन के लिए ही घर जा पाती थी। मुंबई छोडऩा मुश्किल होता था, क्योंकि यहां आडिशंस और प्रोजेक्ट होते थे जिन्हें हम मिस नहीं कर सकते थे, लेकिन इस दौरान मुझे परिवार के साथ रहने का लंबा समय मिला। मां से बहुत बातें की। खुद की स्किल को अच्छा करने के लिए मैंने भाषा और नृत्य की कक्षाएं कीं।

वर्क लाइफ बैलेंस कठिन था: मार्चिंग शीप की फाउंडर एंड मैनेजिंग पार्टनर सोनिका एरोन ने बताया कि वर्क फ्राम होम होने से काम घर पर आ गया और बहुत बढ़ गया। घर और आफिस के बीच अंतर खत्म हो गया है। क्लांइट कभी शाम सात-आठ बजे भी मीटिंग रखते हैं। मुझे लगता है पहले हमारा एक नियमित रूटीन था जिसमें हम सुबह और शाम को परिवार के साथ समय बिताते थे, जो कंपनियां वर्क लाइफ बैलेंस के लिए नीतियां बनाकर कर्मचारियों को फायदा दे रही हैं, उसकी वजह से परिवार के साथ पर्याप्त समय मिला। निश्चित रूप से जिन पति-पत्नी ने मिलकर घर के काम किए वहां बांडिंग बढ़ी।

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