Forest Therapy: जब तलाश हो सुकून की तो क्यों न चलें जंगल की ओर

डीलोटस कंपनी की कम्युनिटी लीडर आचार्य नीरज ने बताया कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रकृति अनेक प्रकार से हमें हील करती है। लेकिन इन सैद्धांतिक बातों को प्रयोग में कैसे लाया जाए? लोगों को अनुभव कैसे कराया जाए?

By Anshu SinghEdited By: Publish:Tue, 17 Aug 2021 03:27 PM (IST) Updated:Thu, 14 Oct 2021 01:04 PM (IST)
Forest Therapy: जब तलाश हो सुकून की तो क्यों न चलें जंगल की ओर
आज बड़ी संख्या में डॉक्टर्स के अलावा 25 से 60 वर्ष के लोग इन वॉक्स का हिस्सा बन रहे हैं।

नई दिल्ली, अंशु सिंह। कभी सोचा है कि जंगल न होते, तो कागज कैसे मिलते, दवाइयां कहां से आतीं और कैसे मिलता जल। जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने वाले जंगल के फायदे, उसकी उपादेयता यहीं खत्म नहीं होती। ये नैचुरल हीलर कहे जाते हैं यानी जंगलों के शांत वातावरण में वक्त बिताने से तन-मन हो जाते हैं तरोताजा। तो फिर चलें जंगल की सैर पर...

बीते करीब दो वर्षों से लोग तन की व्याधि से लेकर मन की उलझन से जूझने पर मजबूर रहे हैं। इससे उपजी उदासी के बीच इंसान ने आंतरिक शांति व सुकून को पाने की तीव्र इच्छा दिखाई और अवसर मिलते ही सीधा प्रकृति की शरण में खींचा चला गया। खासकर जंगलों की ओर रुख तेजी से बढ़ा है। इससे फारेस्ट थेरेपी का चलन एवं स्वीकार्यता निरंतर बढ़ रही है। जंगलों को वैसे भी नेचुरल हीलर कहा जाता है यानी जंगलों के बीच,वहां के शांत,प्राकृतिक वातावरण में समय व्यतीत करने से तन औऱ मन दोनों हो जाते हैं प्रफुल्लित। लगता है जैसे जुड़ गए हों अपनी जड़ों से।

शहरों में रहने वाले अधिकतर लोगों को यह खयाल एकबारगी जरूर आता है कि काश घर से बाहर निकलते और प्रकृति के बीच कुछ पल बिताते। मजे की बात यह है कि इसके लिए हमें कहीं पहाड़ों आदि में घूमने का कार्यक्रम बनाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। घर की बालकनी में बैठकर सूर्योदय या सूर्यास्त को निहार व पक्षियों के कलरव को सुन सकते हैं। अहले सुबह नंगे पांव पार्क की हरी घास पर टहल या वहां बैठ नीले आकाश से कुछ गुफ्तगू कर सकते हैं। लेकिन हम ऐसा करते नहीं। हां,मन सवाल अवश्य करता है कि आखिर प्रकृति के करीब रहने से शांति और सुकून क्यों मिलता है? क्यों हम नकारात्मक चीजों व विचारों से दूर हो जाते हैं? अर्थात् कुछ खास तो है प्रकृति में कि हम परेशान हुए नहीं कि शांति की तलाश में सुदूर पहाड़ों की ओर या किसी कैंप साइट या ट्रेक पर निकल पड़ते हैं। इन दिनों जंगलों में कैंपिंग करने, वहां के नेचर वॉक में हिस्सा लेने, फॉरेस्ट रीट्रिट आदि में शामिल होने का चलन बढ़ा है।

फॉरेस्ट बेदिंग से दूर होतीं शारीरिक-मानसिक व्याधियां: मुंबई की सोशल मीडिया कंसल्टेंट एवं ट्रैवल राइटर दिव्याक्षी गुप्ता को ब्रॉन्काइटिस की गंभीर समस्या थी। नियमित एंटीबायोटिक्स लेने के बाद भी राहत नहीं मिल रही थी। तभी इन्हें पश्चिमी सिक्किम स्थित बारसे रोडोडेंड्रोन सैंक्चुअरी में होने वाले एक ट्रेक की जानकारी मिली। उनकी इस ऑफबीट ट्रेक पर जाने की इच्छा हुई। हालांकि उसके लिए वह शारीरिक तौर पर फिट नहीं थी। बताती हैं वह,‘आप कल्पना नहीं करेंगी कि जब मैं जंगलों के बीच वह ट्रेक कर रही थी, तो मैंने कई वृक्षों को अपनी बाहों में भरने की कोशिश की। कभी थकावट के कारण उनका सहारा लिया, कभी उसकी छांव में बैठ गई। उन पेड़ों से इतनी सकारात्मक ऊर्जा और खुशी मिली कि बता नहीं सकती। मैंने दो घंटे के करीब सोलो वॉक किया, क्योंकि समूह के सदस्य या तो आगे निकल चुके थे या पीछे छूट गए थे।‘ 2018 में किए गए इस ट्रेक और खासकर पेड़ों से रिश्ता बनाने का यह असर हुआ कि दिव्याक्षी की ब्रॉन्काइटिस की समस्या हमेशा के लिए छूमंतर हो गई। दरअसल, कई अध्ययनों से यह पुष्ट हुआ है कि फॉरेस्ट बेदिंग या थेरेपी से न सिर्फ कार्डियो वास्कुलर एवं रोग-प्रतिरोधक क्षमता में सुधार, रक्तचाप नियंत्रित, हृदय गति उत्तम व मधुमेह कंट्रोल में रहता है, बल्कि इससे मानसिक समस्याएं भी नहीं होती हैं। अब सवाल है कि आखिर क्या है फॉरेस्ट बेदिंग? 1982 में पहली बार जापान के कृषि, वन एवं मत्स्य विभाग ने इसे एक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तौर पर शुरू किया था, जिसे शिनरिन योकू नाम दिया गया। ऐसी मान्यता थी कि प्रकृति के बीच रहना स्वास्थ्यवर्धक होता है। तब दो घंटे के नेचर वॉक के बाद यह पाया गया कि लोगों का कॉर्टिसोल लेवल एवं बीपी किस हद तक नियंत्रित हो सकता है।

भारत में भी लोकप्रिय हुआ ट्रेंड: नोएडा स्थित फॉरेस्ट थेरेपी संस्था की संस्थापक दीपिका सिन्हा कहती हैं कि जब हम प्रकृति (जंगल,जीव,नदी,पहाड़,हरियाली )के साथ समय व्यतीत करते हैं,तो तन और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। इनसे जितना दूर जाते हैं,तमाम बीमारियां-व्याधियां उतनी करीब आती जाती हैं। तभी तो जापान से निकलकर यह फॉरेस्ट बेदिंग या फॉरेस्ट थेरेपी ब्रिटेन,यूरोप,अमेरिका,दक्षिण कोरिया आदि देशों के अलावा भारत में भी लोकप्रिय हुई। भारत में मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़, मणिपुर,कर्नाटक,मेघालय,केरल,उत्तराखंड,ओडिशा, पश्चिम बंगाल में वनों का अच्छा फैलाव है और लोग वहां समय-समय पर क्वालिटी टाइम बिताने के लिए जाना पसंद भी करते हैं। असम के चाय बगानों के करीब पूरा बचपन बिताने वाली दीपिका का कहना है कि शादी के बाद जब उन्हें नोएडा शिफ्ट होना पड़ा,तो शहरी प्रदूषण के कारण जीवनशैली से जुड़ी कई समस्याएं हुईं। कुछेक बीमारियों ने परेशान रखा। अवसाद भी रहा। उसी दौरान उन्हें फॉरेस्ट बेदिंग कॉन्सेप्ट के बारे में पता चला। उन्होंने उसका अध्ययन किया और 2019 में आयरलैंड जाकर इसके गाइड की बाकायदा ट्रेनिंग ली। वहां से लौटने पर फॉरेस्ट थेरेपी,वॉक आदि कराना शुरू किया। आज वह नोएडा, दिल्ली के अलावा उत्तराखंड में भी फॉरेस्ट रीट्रिट्स कराती हैं। वह आगे बताती हैं, 'आज की नौकरीपेशा पीढ़ी ज्यादातर समय जूतों में बिताती है। खाली पांव चलने का समय ही नहीं होता उनके पास। ऐसे लोगों को हम ग्राउंडिंग एक्टिविटी कराते हैं। इसमें नंगे पांव जमीन (या घास) पर चलना होता है। इस प्रक्रिया में शरीर के पॉजिटिव चार्ज्ड आयन्स धरा के निगेटिव आयन्स के संपर्क में आते हैं,जिससे इंसोमनिया (नींद न आना),इंफ्लेमेशन (शरीर का फूलना) आदि की समस्याएं दूर हो जाती हैं। यही प्रक्रिया पेड़ों के संपर्क में आने से भी होती है,क्योंकि उनकी जड़ें भी धरती में गहरी दबी होने से मनुष्यों को निगेटिव आयन्स प्राप्त होते हैं।

पांचों कर्मेंद्रियां होती हैं जाग्रत: डीलोटस कंपनी की सह-संस्थापक नेहा के अनुसार,हमें यह समझना आवश्यक है कि प्रकृति का मतलब सिर्फ जंगल,पेड़-पौधे या हरियाली नहीं होते। पशु भी इसका एक अभिन्न अंग हैं। उनके साथ रहने से भी इम्युनिटी सिस्टम मजबूत होती है। नेहा बताती हैं कि आज कैसे लोग अपनी पांचों कर्मेंद्रियों में से आंखों का अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। भोजन भी वह देखकर ही खाते हैं,उसका सुगंध लेने की जहमत नहीं उठाते। इससे बाकी की इंद्रियां निष्क्रिय हो गईं हैं। यहां तक कि छठी इंद्रिय (सिक्सथ सेंस) ने भी काम करना बंद कर दिया है। उन्हें किसी बात का पूर्वाभास नहीं होता। फॉरेस्ट थेरेपी में इन पांचों इंद्रियों को वापस सक्रिय या जाग्रत करने की कोशिश की जाती है, ताकि दोबारा से प्रकृति से जुड़ा जा सके। इससे एक समय के बाद लोगों को हवा की आहट, पत्ते खड़कने की आवाज भी सुनाई देने लगती है। प्रीवेंटिव वेलनेस पर काम करने वाले आचार्य नीरज की मानें,तो जंगल या किसी प्राकृतिक स्थान पर समग्रता के साथ जाने से पांचों कर्मेंद्रियों के जरिये बहुत से तत्व शरीर के अंदर जाते हैं और एक रासायनिक प्रक्रिया घटित होती है,जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। इसी प्रकार, जब हम किसी चीज पर विश्वास रखते हैं, तो उसका सुखद व सकारात्मक परिणाम निकलता है। मसलन,कई बार डॉक्टर के पास जाने मात्र से हमारी तकलीफ दूर हो जाती है। फॉरेस्ट बेदिंग में भी प्लेसिबो इफेक्ट काम करता है यानी जब हम इस भरोसे के साथ प्रकृति की गोद में जाते हैं कि वहां शांति व सुकून मिलेंगे, तो वह असल में फलीभूत होता है। अफसोस की बात यह है कि आज ऐसा हो नहीं रहा और बड़ी आबादी खराब जीवनशैली के कारण होने वाली बीमारियों की चपेट में आती जा रही है।

जापान से आया फॉरेस्ट बेदिंग: 1982 में जापानी पेशेवरों के तनाव, ब्लड प्रेशर को कम करने, उनकी एकाग्र्रता व याद्दाश्त को बढ़ाने और रोग-प्रतिरोधक क्षमता को दुरुस्त करने के लिए जापान में फॉरेस्ट बेदिंग यानी थेरेपी की शुरुआत हुई थी। इसमें लोगों को प्रकृति के बीच रहने का सुनहरा अवसर मिलता है। शुद्ध हवा में सांस लेने से मन शांत होता है। लोग अपनी मर्जी एवं पसंद से जंगलों में धीमी गति के वॉक करते हैं। वहां के प्रदूषण मुक्त वायुमंडल में खुद के साथ समय बिताने का अवसर मिलता है सो अलग। अगर आप किसी सर्टिफाइड फॉरेस्ट बेदिंग गाइड के मार्गदर्शन में यह करते हैं, तो इसके काफी फायदे हो सकते हैं।

 

लोगों को प्रकृति से जोडऩा है मकसद: डीलोटस कंपनी की कम्युनिटी लीडर आचार्य नीरज ने बताया कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रकृति अनेक प्रकार से हमें हील करती है। लेकिन इन सैद्धांतिक बातों को प्रयोग में कैसे लाया जाए? लोगों को अनुभव कैसे कराया जाए? ये सवाल मन में उभरा और मैंने वेलनेस कंपनी शुरू की। फॉरेस्ट बेदिंग शुरू करने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ यह था कि कैसे लोग प्रकृति से प्रेम करना शुरू करें। घरों से बाहर निकलें। खुली हवा में श्वास लें। नेचर से जुड़ें। मैंने महसूस किया है कि जब आप गंगा के उद्गम स्थल पर जाते हैं, तो ध्यान लगाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती। अपने आप ध्यान लग जाता है। हम एकाग्र अवस्था में आ जाते हैं। इसलिए हम कोशिश करते हैं कि प्रकृति के बीच योग, ध्यान, मार्शल आर्ट्स, स्लो नेचर वॉक, आर्ट थेरेपी आदि अलग-अलग एक्टिविटिज कराएं।

हर उम्र के लोग उठा रहे फायदा: फॉरेस्ट थेरेपी की संस्थापक दीपिका सिन्हा ने बताया कि फॉरेस्टी वॉक के दौरान हम लोगों को प्राकृतिक स्थलों या जंगल में लेकर जाते हैं। वहां सबसे पहले गाइडेड मेडिटेशन के जरिये उनकी पांचों कर्मेंद्रियों को जाग्रत किया जाता है। तत्पश्चात् उन्हें ऐसी गतिविधियों से जोड़ा जाता है, जिससे कि वे वर्तमान पलों का आनंद लें, उसे जीने की कोशिश करें। 15 से 50 मिनट की अवधि वाली इन एक्टिविटीज को करने के बाद शेयरिंग सर्किल नाम से एक एक्टिविटी होती है, जिसमें सभी लोग अपने-अपने अनुभवों को साझा करते हैं। उन्होंने क्या देखा, क्या महसूस किया इत्यादि। कई लोग खामोश रहकर भी बहुत कुछ कह जाते हैं। हम चीन की प्राचीन हीलिंग तकनीक चिगॉन्ग मेडिटेशन का अभ्यास भी कराते हैं, जिसमें मूवमेंट एक्सरसाइजेज के अलावा ब्रीदिंग की प्रैक्टिस होती है। आज बड़ी संख्या में डॉक्टर्स के अलावा 25 से 60 वर्ष के लोग इन वॉक्स का हिस्सा बन रहे हैं। इस थेरेपी का फायदा उठा रहे हैं।

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