परंपरा और संस्कृति से भी जोड़ते हैं मिट्टी के दीये

राजधानी में इस बार पटाखों पर पूरी तरह से प्रतिबंध है। विभिन्न सामाजिक संगठन भी अपील कर रहे हैं कि लोग इस बार दीवाली में चाइनीज लाइटों झालरों व लड़ियों का इस्तेमाल न करें। लोग मिट्टी व गाय के गोबर से बने दीये जलाने का संकल्प ले रहे हैं। लोगों का कहना है कि चाइनीज दीये भले ही सस्ते हैं लेकिन उनमें न तो मिट्टी की महक आती है और न ही त्योहार की भावना।

By JagranEdited By: Publish:Wed, 27 Oct 2021 08:02 PM (IST) Updated:Wed, 27 Oct 2021 08:02 PM (IST)
परंपरा और संस्कृति से भी जोड़ते हैं मिट्टी के दीये
परंपरा और संस्कृति से भी जोड़ते हैं मिट्टी के दीये

अरविद कुमार द्विवेदी, दक्षिणी दिल्ली

राजधानी में इस बार पटाखों पर पूरी तरह से प्रतिबंध है। विभिन्न सामाजिक संगठन भी अपील कर रहे हैं कि लोग इस बार दीवाली में चाइनीज लाइटों, झालरों व लड़ियों का इस्तेमाल न करें। लोग मिट्टी व गाय के गोबर से बने दीये जलाने का संकल्प ले रहे हैं। लोगों का कहना है कि चाइनीज दीये भले ही सस्ते हैं, लेकिन उनमें न तो मिट्टी की महक आती है और न ही त्योहार की भावना। इसलिए इस बार गाय के गोबर और मिट्टी के दीये ही दीवाली पर लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं। दक्षिणी दिल्ली के मैदानगढ़ी गांव में दीये बनाने वाले कई परिवार रहते हैं। इन लोगों का कहना है कि मिट्टी के दीये सब पर भारी हैं। इनसे न तो प्रदूषण फैलता है और न ही ये जेब पर भारी हैं। त्योहार की परंपरा के अनुरूप भी मिट्टी के दीये सर्वमान्य हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये भारतीयता की खुशबू से भरपूर हैं। दीवाली पर बाजार में पर्याप्त मात्रा में दीये उपलब्ध रहें, इसके लिए मैदानगढ़ी के ये परिवार आजकल दिन रात काम कर रहे हैं। इलेक्ट्रिक चाक से तेज होता है काम मूलरूप से हरियाणा के होडल निवासी अरविद ने बताया कि वह यहां पर पिछले करीब 10 साल से रह रहे हैं। उनके साथ उनकी पत्नी भी दीये बनाने के काम में हाथ बंटाती हैं। उनकी दो बेटियां स्कूल जाती हैं। अरविद ने बताया कि दीये बनाना उनका पारंपरिक कारोबार है। उनके पिताजी भी यही काम करते थे। उन्होंने अपने पिता से ही यह कला सीखी है। अरविद ने बताया कि सुविधा और आधुनिकता के लिहाज से उन्होंने इलेक्ट्रिक चाक लगवा रखा है। इन पर काम तेजी से होता है। जबकि, पहले चाक हाथ से चलाने पड़ते थे। तब अधिक मेहनत में भी अब की अपेक्षा कम दीये बन पाते थे। अरविद ने बताया कि वह एक बाती, दो बाती व चार बाती वाले दीये भी बना रहे हैं। ये दीये थोक भाव में करीब दो रुपये प्रति पीस बिकते हैं। लेकिन बाजार में जाने पर लोकेशन व बाजार के अनुसार इनकी कीमत तीन-चार रुपये होती है।

हरियाणा से आती है मिट्टी यहां करीब 15 साल से मिट्टी के दीये बनाने वाले भोपाल सिंह ने बताया कि मिट्टी के दीये बनाना एक कला है। काम व कला की कद्र करने वाले लोग अपनी परंपरा के अनुसार दिवाली पर मिट्टी के दीये ही जलाते हैं। उन्होंने बताया कि वह बचपन से ही मिट्टी के बर्तन बनाने लगे थे। दीये व अन्य बर्तन बनाने के लिए दिल्ली की मिट्टी उपयुक्त नहीं है। इसके लिए हरियाणा के माड़व गांव से काली (मजबूत) मिट्टी आती है। यह चिकनी मिट्टी होती है। वहीं, पलवल से हल्की पीली मिट्टी आती है। यह अपेक्षाकृत कमजोर होती है। ये दोनों तरह की मिट्टी पांच-छह हजार रुपये प्रति ट्राली मिलती है। भोपाल सिंह ने बताया कि दोनों को कूटकर महीन किया जाता है। फिर दोनों को बराबर मात्रा में मिलाकर सानकर गोंदा बनाते हैं। उसके बाद फिर इसे चाक पर चढ़ाकर बर्तन और दीये बनाए जाते हैं। इस मिश्रण से मटका, गुल्लक, गमला, दही जमाने की परात, परई, सुराही, गगरी, कलश, घड़े, मैरखुजा (पैर साफ करने के लिए) जैसे बड़े बर्तनों के साथ ही बड़े व छोटे दीये भी बनाए जाते हैं। भोपाल ने बताया कि बर्तन बनाने के बाद उसे सूखने में दो-तीन दिन लगते हैं। धूप नहीं निकलती है तो उन्हें एग्जास्ट फैन की तेज हवा में सुखाया जाता है। सूखने के बाद इन्हें भट्ठी में पकाया जाता है जिसमें दो-तीन घंटे लगते हैं। यहां से लोग फुटकर व थोक में सामान ले जाते हैं। कोट- लोगों को चाइनीज दीये, लड़ी, झालर व लाइटों का बहिष्कार करना चाहिए। ये पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक हैं। मिट्टी के दीये पर्यावरण हितैषी तो हैं ही, इनसे बहुत से परिवारों की रोजी-रोटी भी चलती है। इसलिए इस दीवाली पर मिट्टी व गाय के गोबर के दीये ही खरीदें। मैदानगढ़ी में आसपास के इलाकों के लोग दीवाली के समय पूरे परिवार के साथ दीये खरीदने आते हैं। लोग यहां अपने बच्चों को भी लाते हैं ताकि वे मिट्टी के दीये व बर्तन बनते हुए देख सकें। घूमती चाक पर गीली मिट्टी से बर्तन बनाना, बने बर्तन को धागे से काटकर अलग करना, चरखी से उस पर डिजाइन बनते देखना बच्चों के लिए काफी रोमांचकारी होता है। बच्चे यहां घंटों रुककर यह सब देखते हैं। - महावीर सिंह, प्रधान, मैदानगढ़ी गांव

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