Exclusive Interview: मेरे और MS Dhoni के बीच अच्छा तालमेल क्यों रहा, सुरेश रैना ने बताया कारण
दैनिक जागरण से सुरेश रैना ने कहा कि धौनी भाई ने 2004 में और मैंने 2005 में अंतरराष्ट्रीय करियर शुरू किया था। जब टीम में खिलाड़ी आते हैं तो आपस में बातचीत होती है। हम लोग साथ में शीशमहल टूर्नामेंट और दिलीप ट्रॉफी में भी एक टीम में खेले।
पिछले साल अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लेने वाले बायें हाथ के बल्लेबाज सुरेश रैना ने 'बिलीव' नाम से किताब लिखी है। इस किताब में उन्होंने अपने क्रिकेट जीवन के सफर से जुड़े तमाम पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया है। सुरेश रैना से अभिषेक त्रिपाठी ने खास बातचीत की। पेश हैं प्रमुख अंश :-
-आपने इतना क्रिकेट खेला और बड़े-बड़े खिलाडि़यों के साथ खेले, आपके इतने रिकॉर्ड हैं, तो ये किताब लिखने का विचार कैसे आया और इस किताब का कितना महत्व है?
--मैंने सोचा था कि संन्यास के बाद जब समय मिलेगा तो लोगों को बताएंगे कि मेरा सफर किस तरह का रहा। उत्तर प्रदेश के हास्टल में कैसा सिस्टम होता था। जब हम खेलते थे तो सभी सीनियर पूछते थे कि यूपी इतना बड़ा है कि राज्य की दो टीमें बन सकती हैं। राहुल भाई, लक्ष्मण भाई, अनिल भाई पूछते थे कि इतने अच्छे तुम्हारे प्रतिभाशाली खिलाड़ी हैं, अंडर-19 से देखोगे आप, रणजी ट्रॉफी 2002, 04, 05, 06। हमें पता ही नहीं था कि क्लब क्रिकेट के क्या नियम होते हैं। ना इतने पैसे होते थे कि किसी क्लब को दे सकें। हास्टल लाइफ पहले कानपुर के ग्रीन पार्क में बीती उसके बाद फिर लखनऊ का स्पोर्ट्स कॉलेज था। उस दौरान इतने सारे लोग खेले तो यही लगता था कि कैसे ये सारे क्रिकेटर बाहर के हैं। पहले कैफ भाई, गोपाल भाई, ज्ञानू भाई खेले, फिर मैं, आरपी, भुवी, पीके और पीयूष खेले, हम सभी हास्टल से ही हैं। तब काफी मुश्किल होता था। आइपीएल तो बाद में आया।
हमें लगता है कि लोगों को पता चला कि हास्टल का महत्व क्या है, ना सिर्फ क्रिकेट में, बल्कि दूसरे खेलों में भी जो सेटअप होता था वो सारा अंतरराष्ट्रीय स्तर का होता था। तो मेरे दिमाग में यही था कि लोगों को पता चले कि गाजियाबाद से कानपुर, लखनऊ होते हुए मेरा जो सफर रहा है कि कैसे एक युवा खिलाड़ी को कैसे-कैसे किस पढ़ाव पर खेलना पड़ता है, कैसी चीजें करनी पड़ती हैं। मकसद यही था कि किताब के जरिये लोगों को ये सब पता चले। साथ ही मकसद यह भी है कि सबको बताना कि सबके सपने साकार हो सकते हैं। इसके जरिये हमारे कोच, कप्तान, बीसीसीआइ, डाक्टरों, सीनियर खिलाड़ियों को सभी को धन्यवाद करना भी इसका मकसद है। साथ ही युवा खिलाड़ी इससे सीखें और आगे बढ़ें।
-यूपी के स्पोर्ट्स कॉलेज की काफी बातें होती हैं। उसके बारे में बताएं कि वहां किस तरह का माहौल था और कैसे वहां से इतने ज्यादा खिलाड़ी निकलकर आते हैं?
--वहां हमारी परवरिश इस तरह से हुई कि हमें सब चीजें खुद करनी होती थीं। हम लोग एक ग्रुप में जाते थे और सीके नायडू, वीनू मांकड, रणजी ट्राफी, जितनी भी ट्राफी होती हैं सब खेलते थे। हम अपने शहर का अच्छे से प्रतिनिधित्व करना चाहते थे। कानपुर, लखनऊ, गाजियाबाद का आप अच्छे से प्रतिनिधित्व करते हो तो आपको पता होता है कि इसके आगे आपको राज्य की टीम यूपी के लिए खेलना है। हमारे लिए वही था, हमें यह नहीं पता था कि हम भारत के लिए खेलेंगे या आइपीएल खेलेंगे या नहीं खेलेंगे। सोचते थे कि अपने शहर का अच्छे से प्रतिनिधित्व करो, फिर जाकर आपको लखनऊ, कानपुर में ट्रायल मिलेंगे। फिर जाकर लखनऊ मंडल की टीम से खेलो, कानपुर जिले से खेलो, फिर रणजी ट्रॉफी के लिए 1000-1500 बच्चे आएंगे, उसमें ट्रायल दो। यूपी में क्लब सिस्टम तो नहीं था, सिर्फ कानपुर में ही था। इसलिए हास्टल का उन सबके जीवन में बहुत बड़ा महत्व रहा है जो भी देश के लिए खेले हैं।
-इस किताब का नाम बिलीव रखने की क्या वजह रही?
--2014 में जब इंग्लैंड में हमारे मैच थे तो मैंने उससे पहले सचिन पाजी से अभ्यास के लिए निवेदन किया था और उनके साथ दो सप्ताह अभ्यास किया था। वह बांद्रा-कुर्ला कांप्लेक्स में अभ्यास कराते थे और बोलते थे कि बिलीव योर सेल्फ। यू हेव डन इन पास्ट। बिलिव-बिलीव बोलकर वह काफी चीजें कर देते थे। फिर हम वहां 3-1 से सीरीज जीते थे और मैंने वहां पहले मैच में ही शतक जड़ दिया तो उन्होंने मुझसे कहा था कि यह वही तुम हो, इसलिए बिलीव योर सेल्फ। तब से बिलीव शब्द मेरे दिमाग में बैठ गया।
-एक आपके कप्तान रहे ज्ञानेंद्र पांडे और एक कप्तान रहे महेंद्र सिंह धौनी। ज्ञानेंद्र एकदम मस्तमौला, खूब बोलने वाले और धौनी एकदम शांत, कम बोलने वाले तो इन दोनों के बारे में जो आपका अद्भुत अनुभव है उसके बारे में आपने किताब में तो लिखा ही होगा, लेकिन थोड़ा सा इसके बारे में बताएं।
--धौनी भाई जब पहली बार खेलने आए थे तो मुझे याद है जेपी भाई और ज्ञानू भाई हमारी टीम में आए थे। ज्ञानू भाई आराम से बैठे हुए थे। ज्ञानू भाई युवा खिलाडि़यों को टीम में खिलाते थे। वह प्रदर्शन में विश्वास करते थे और आगे बढ़कर कप्तानी करते थे। उनकी सोच काफी सकारात्मक थी। जब वह मुझे इंग्लैंड लेकर गए तो मैंने वहां पर अच्छा प्रदर्शन किया तो उससे मुझे जो अंतरराष्ट्रीय एक्सपोजर मिला उससे में काफी बदल गया। इसलिए मैं 2005 में भारत के लिए खेल गया। ज्ञानू भाई ड्रेसिंग रूम का माहौल बहुत अच्छा रखते थे। मुझे लगता है कि मेरे करियर में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। साथ ही शुक्ला सर ने काफी सहयोग किया है। वह यूपी के ही रहे हैं।
मुझे याद है जब 2005 में हम रणजी ट्रॉफी जीते थे और फिर मैं, आरपी और कैफ पाकिस्तान खेलने गए थे तो शुक्ला सर ने हम यूपी के खिलाडि़यों को काफी बढ़ावा दिया। हम शुक्रगुजार है कि बीसीसीआइ में प्रबंधन में ऐसे लोग रहे हैं। उनकी वजह से काफी कुछ अच्छा हुआ है। वहीं, धौनी भाई के साथ तो मैं भारत की टीम के साथ आइपीएल में भी खेला। जब आप छोटे शहर से आते हो तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलना इतना आसान नहीं होता। उस समय काफी प्रतिस्पर्धा थी। धौनी के आसपास रहने से और उनकी जो सोच थी उससे काफी कुछ सीखने को मिला। जैसा मेरा तालमेल रणजी ट्रॉफी में ज्ञानू भाई के साथ रहा, वैसा ही धौनी भाई के साथ रहा।
-आप और धौनी दोनों छोटे शहरों से थे तो क्या आपके अच्छे तालमेल की यह एक वजह थी?
--जी बिलकुल, आप ऐसा कह सकते हो। धौनी भाई ने 2004 में और मैंने 2005 में अंतरराष्ट्रीय करियर शुरू किया था। जब टीम में खिलाड़ी आते हैं तो आपस में बातचीत होती है। हम लोग साथ में शीशमहल टूर्नामेंट और दिलीप ट्रॉफी में भी एक टीम में खेले। आइपीएल में भी हम एक ही टीम में आ गए तो और सोने पे सुहागा हो गया। हम लोगों ने बहुत मैच जीते और काफी मजा आया।
-आपकी किताब में कौन सा अध्याय आपको सबसे ज्यादा पसंद है?
--मुरादनगर से जुड़ा जो अध्याय है वो मुझे काफी पसंद है। उसमें मेरी मुरादनगर से आगे की पूरी यात्रा के बारे में जिक्र है। यह अध्याय काफी प्रेरणादायी है। उसके बाद निश्चित तौर पर विश्व कप है और मेरा भारत के लिए पहली बार खेलना भी महत्वपूर्ण है।