तंगी में गिरवी पड़े अपने पुश्तैनी घर को छुड़ाने के लिए व्याकुल रहे नेपाली जी

बगहा। कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली धार

By JagranEdited By: Publish:Thu, 08 Apr 2021 12:28 AM (IST) Updated:Thu, 08 Apr 2021 12:28 AM (IST)
तंगी में गिरवी पड़े अपने पुश्तैनी घर को छुड़ाने के लिए  व्याकुल रहे नेपाली जी
तंगी में गिरवी पड़े अपने पुश्तैनी घर को छुड़ाने के लिए व्याकुल रहे नेपाली जी

बगहा। कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली धारा के विपरीत चलकर हिदी साहित्य, पत्रकारिता व फिल्म उद्योग में विशिष्ट स्थान हासिल करने वाले कवि और गीतकार थे। पश्चिम चंपारण जिले के बेतिया में 11 अगस्त 1911 को जन्मे नेपाली जी का चंपारण से जीवनपर्यंत नाता जुड़ा रहा। 1930 के दशक में देश के साहित्यिक फलक पर उन्होंने अपनी छाप छोड़नी शुरू कर दी थी। इस दौरान आर्थिक तंगी परेशानी का सबब बनती रही। वर्ष 1944 में वह अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिए मुंबई गए और फिल्मों में बतौर गीतकार व्यस्त हो गए। इस बीच उन्होंने शायद ही चंपारण का रुख किया।

उनका पुश्तैनी मकान गिरवी पड़ा था। वर्ष 1957 में शरद पूर्णिमा के अवसर पर हाजीपुर में आयोजित कवि सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचे नेपाली जी की मुलाकात बगहा के तत्कालीन युवा कवि दिनेश भ्रमर से हुई। तब श्री भ्रमर एमएस कॉलेज मोतिहारी के छात्र थे। मंच पर साथ काव्य पाठ का मौका मिला तो गोपाली जी भ्रमर के गीतों से खासे प्रभावित हुए। इसके बाद पत्राचार का दौर शुरू हुआ। श्री भ्रमर ने बताया कि मुंबई लौटने के बाद नेपाली जी ने उन्हें एक पत्र लिखा जिसमें बेतिया के पुश्तैनी मकान के गिरवी होने का जिक्र करते हुए कहा कि मकान 1500 में गिरवी पड़ी है जिसे तुम अदा कर छुड़ा लो। यह वर्ष 1958 था। भ्रमर बेतिया गए तो पता चला कि मकान एक रिक्शे वाले के पास गिरवी पड़ा है जिसने मकान छोड़ने से इन्कार कर दिया। निराश भ्रमर बगहा लौटे व पत्र लिखकर इसकी जानकारी नेपाली जी को दी। साहित्यिक विधा में निपुण भ्रमर की कविताओं व गीतों का संपादन तब हरिवंश राय बच्चन करते थे। बीते दिनों को याद कर भ्रमर कहते हैं कि जीवन की बगिया में भंवरे सा उड़ता उड़ता आज वहां पहुंच गया हूं जहां न बच्चन जी हैं ना नेपाली..। निधन के चार साल पूर्व याद आया था अपना जवार दिनेश भ्रमर बताते हैं कि वर्ष 1959 में मोतिहारी के एक कवि सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचे नेपाली जी उनके विशेष निमंत्रण पर बगहा पहुंचे। मलकौली बगीचे में काव्य गोष्ठी का आयोजन होना था। वे सादा जीवन में विश्वास रखते थे। रात में रोटी व सब्जी खाई और मलकौली के लिए रवाना हो गए। इस बीच स्वाधीनता सेनानी कमलनाथ तिवारी भी कवि दिनेश भ्रमर के आवास पर पहुंचे। क्रांतिकारी आंदोलनों के दौरान साथी रहे श्री तिवारी ने नेपाली जी से बगहा एक में आयोजित काव्य गोष्ठी में शामिल होने का आग्रह किया। नेपाली जी ने काफी सरलता से कहा-यहां से निपट लेने दो, रात के 12 बजे बगहा एक चलेंगे। हुआ भी कुछ ऐसा ही। पांडेय आशुतोष, गणेश विशारद, दिनेश भ्रमर की कविताओं के बीच नेपाली जी गीतों की छौंक लगाते रहे। रात 12 बजे रघुनाथ गुप्ता के मकान के सामने शामियाने में एक बार फिर महफिल जमी और..अफसोस नहीं हमको जीवन में कुछ कर न सके, झोलियां किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके। अपने प्रति सच्चा रहने का जीवन भर हमने यत्न किया, देखा देखी हम जी न सके. देखा देखी हम मर न सके.. के बोल गूंज उठे।

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