मद्धिम पड़े सामा चकेवा गीतों के स्वर

सुपौल। सामा-चकेवा के गीतों के स्वर अब मद्धिम पड़ने लगे हैं। पूर्व में मिथिलांचल के घरों में छ

By JagranEdited By: Publish:Wed, 25 Nov 2020 05:31 PM (IST) Updated:Wed, 25 Nov 2020 05:31 PM (IST)
मद्धिम पड़े सामा चकेवा गीतों के स्वर
मद्धिम पड़े सामा चकेवा गीतों के स्वर

सुपौल। सामा-चकेवा के गीतों के स्वर अब मद्धिम पड़ने लगे हैं। पूर्व में मिथिलांचल के घरों में छठ बाद सामा के गीत शुरू हो जाते थे। छठ से शुरू हुआ लोकपर्व कार्तिक पूर्णिमा को संपन्न होता है। इस रात बहनें सामा का विसर्जन करती हैं।

सामा चकेवा बनाने के लिए छठ घाटों से मिट्टी लाई जाती हैं। इस मिट्टी से बहनें सामा चकेवा के अतिरिक्त तरह-तरह की आकृतियां और मूर्तियां बनाती हैं। इसके बाद प्रतिदिन शाम के समय सामा के गीत गाए जाते हैं। दिन बढ़ने के साथ गाने का समय भी बढ़ता जाता है और पूर्णिमा को विसर्जन होता है। अब सामा से एक-दो पहले यह सब शुरू होता है और पर्व का समापन कर दिया जाता है। विस्मृति के गर्त की ओर बढ़ चले इस परंपरा के संबंध में पूछने पर स्थानीय शबनम सिंह बताती हैं कि पर्व तो अब भी मनाया जाता है लेकिन पहले वाला उल्लास और उमंग अब देखने को नहीं मिलता है। उन्होंने बताया कि मायके में उन्होंने दादी से सामा-चकेवा बनाना सीखा था। सहेलियों के साथ सामा बनाना, उसे भोजन कराना, गीत गाने का अपना अलग ही आनंद था। अब तो बच्चे इसे आउटडेटेड मानने लगे हैं। अब तो ऐसा भी होता है कि पर्व के दिन ही सारा कुछ विधान कर पर्व का समापन कर दिया जाता है। दिव्या देवी बताती हैं कि पहले लोग खुद से मूर्तियां तैयार करती थीं। अब तो बाजार में बनी-बनाई सामा-चकेवा सहित इस पर्व में लगने वाली अन्य मूर्तियां मिलती हैं। पर्व के दिन बाजार से खरीदा और परंपरा का निर्वाह किया। कई अन्य ने बताया कि पहले लोगों के पास वक्त काफी था। शाम में खाना वगैरह तैयार करने के बाद महिलाएं एक जगह एकत्रित होती थीं और सामा के गीत गाए जाते थे। यह सिलसिला पूर्णिमा तक चलता था। अब लोगों के पास इतनी फुर्सत कहां कि वे गीत गाएं। भाई-बहन का पर्व है इसलिए मनाया ही जाता है।

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