पारंपरिक पौधों के अस्तित्व पर खतरा बन रहे बौने किस्म
सुपौल। बदलते समय और परिवेश के साथ ही यहां के पेड़-पौधे के प्रजातियों में भी काफी बदलाव ह
सुपौल। बदलते समय और परिवेश के साथ ही यहां के पेड़-पौधे के प्रजातियों में भी काफी बदलाव हुआ है। कल तक जिस वृक्ष के कारण इलाके की पहचान हुआ करती थी आज उनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है। इनकी जगह नई-नई प्रजातियों के पौधों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है। कल तक पीपल, बरगद, इमली, बेल कई पुरानी प्रजातियों के आम के पेड़ कोसी के इस इलाके की खास पहचान हुआ करते थे, यहां इन पेडा़ें की संख्या बहुतायत थी। अनुकूल जलवायु होने के कारण इनके पौधे को लगाने व बचाने में लोगों को खास मेहनत भी नहीं करनी पड़ती थी। इन प्रजातियों में से कई पेड़ का उपयोग धर्म, कर्मकांड के अलावा उनकी पूजा भी की जाती थी। ये पौधे ठंडी हवा और छाया देने के साथ-साथ ऑक्सीजन का उत्सर्जक होते थे परंतु बदलते समय के साथ जब से पौधे का बाजारीकरण और मुद्रीकरण की प्रचलन की शुरुआत हुई है तब से ही पारंपरिक इस पौधे पर ही खतरा आ गया है। आज स्थिति यह है कि अब ये पौधे खोजने से भी नहीं मिल रहे हैं। इनकी जगह वैसे पौधे ने ले ली है जो कम समय में अधिक आय देते हैं। फलदार पौधे पर भी बाजार की लगी नजर कोसी का यह इलाका कई फलदार वृक्षों के लिए मशहूर हुआ करता था। खास तौर पर आम, बरगद, इमली जैसे पौधे काफी मशहूर थे। इस तरह के वृक्षों से फल के साथ-साथ लकड़ी का उपयोग फर्नीचर तैयार करने में किया जाता था। खासकर आम के लिए तो इस इलाके की पहचान थी। यहां बंबईया, मालदह, गुलाब खास, कलकतिया, रामभोग, कृष्णभोग आदि प्रजाति के आम उगाए जाते थे। यहां के आम की खूबियां इस तरह थी कि अन्य राज्यों से व्यापारी यहां से आम ले जाते थे। इन वृक्षों के संरक्षण में भी किसानों को कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। इन वृक्षों से फल के अलावा लकड़ियां मिलती थी। अब लोगों पर बाजारीकरण का ऐसा भूत चढ़ा कि इन वृक्षों की जगह कम समय और अधिक मुनाफा देने वाले पौधों को लगाने में लोगों ने रुचि ले ली। इस इलाके में भी अब हाइब्रिड और बौना किस्म के प्रजातियों के फलदार पौधे लगाए जाने लगे हैं। परिणाम है कि अन्य वातावरण में पले-बढ़े इन किस्मों के पौधे को बचाने में लोगों को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। हालांकि फल अधिक लगने के कारण लोगों को मुनाफा दिखाई पड़ता है। इसी तरह लकड़ी वाले पौधों का भी हाल है। शीशम, महुआ, जामुन, सखुआ आदि की जगह नई प्रजाति के महोगनी, कदम आदि ने ले लिया है। जो कम समय में ही बड़ा होकर लोगों को मुनाफा दे रहे हैं। पुराने किस्मों के पौधों से लोगों का टूटता जा रहा मोह किसानों का मानना है कि अब यहां की जलवायु पुरानी प्रजातियों के पौधे के लिए उपयुक्त नहीं है। एक तो पुराने किस्म के पौधे को तैयार होने में बहुत समय लगता है वहीं मांग कम होने के कारण मुनाफा नहीं मिल पाता है। इस संबंध में जिला वन पदाधिकारी सुनील कुमार शरण ने बताया कि पुराने किस्म के पौधे गुणों से भरपूर हैं।
क्या कहते हैं पर्यावरणविद वनस्पति विज्ञान के प्रो. डॉ. केके सिंह की माने तो पृथ्वी पर मौजूद पौधे की हर एक प्रजाति हमारे अस्तित्व के लिए बेहद जरूरी है। अगर हम कहें कि हम इनका संरक्षण नहीं करेंगे तो इसका मतलब होगा कि हम अपनी दुनिया को खोने जा रहे हैं। कहा कि यहां के पारंपरिक प्रजाति के पौधे के विलोपन से पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा है। खासकर वैसे जीव जो यहां के पारंपरिक किस्म के पौधों पर आश्रित था, उनका विनाश हुआ है जो पर्यावरण के लिए शुभ संकेत नहीं है।