देवोत्थान एकादशी से ही शुरू होते हैं मांगलिक कार्य : आचार्य
सुपौल। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष के एकादशी तिथि को देवोत्थान एकादशी मनाया जाता है। इस बार यह
सुपौल। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष के एकादशी तिथि को देवोत्थान एकादशी मनाया जाता है। इस बार यह तिथि 25 नवंबर यानि बुधवार को है। इसे प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। देवोत्थान एकादशी का नियमपूर्वक व्रतोपवास करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ एवं सौ राजसूर्य यज्ञों का फल मिलता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु क्षीर सागर में अपनी निद्रा से जागते हैं। विष्णु के जगाने के बाद से ही सभी मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं। इस दिन रात्रि में विधिवत पूजन के बाद प्रात:काल भगवान को शंख, घंटा, घड़ियाल आदि बजाकर जगाया जाता है। फिर पूजा के बाद कथा सुनी जाती है। शास्त्रों में वर्णित कथा का व्याख्यान करते हुए आचार्य पंडित धर्मेंद्रनाथ मिश्र ने बताया कि प्राचीनकाल में एक राजा के राज्य में सभी एकादशी का व्रत करते थे। एक दिन कहीं से आकर एक व्यक्ति ने राजा से कहा कि हे, राजन मझे अपने राज्य में सेवा का अवसर दें। राजा ने उस व्यक्ति को रख लिया, लेकिन एक शर्त भी रख दी। राजा का शर्त यह था कि उनके राज्य में उसे हर दिन तो खाना मिलेगा, किन्तु एकादशी को अन्न खाने को नहीं मिलेगा। उस समय तो वह व्यक्ति राजा की शर्त मान ली, लेकिन फलाहार का समय जब आया तो वह व्यक्ति राजा से कहने लगा कि अन्न के बिना उसका पेट नहीं भर सकता है। अत: हे राजन मुझे अन्न खाने दें। तब राजा ने उसे अन्न दे दिया। उस व्यक्ति ने अन्न पकाकर भगवान विष्णु को स्मरण करते हुए कहा कि हे पीताम्बरधारी भगवान विष्णु आप आकर मेरे साथ अन्न ग्रहण करें। उसकी विनती सुनकर भगवान चतुर्भुज रूप में आकर प्रेम से भोजन करने लगे। उस व्यक्ति ने जब राजा से इन सारी बातों का जिक्र किया तो पहले तो राजा को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। इसके बाद उसने राजा से स्वयं चलकर देख लेने को कहा। तब राजा छुपकर यह देखने लगे तो उस समय भगवान उस व्यक्ति के साथ भोजन करने नहीं आए। अंत में उस व्यक्ति ने करुण विनती करते हुए कहा कि हे भगवान यदि आज आप मेरे साथ भोजन करने नहीं आए तो मैं प्राण त्याग दूंगा। उस व्यक्ति का ²ढ इरादा जानकार भगवान तुरंत वहां आ गए और उस व्यक्ति को अपने विमान में बैठाकर अपने धाम लेकर चल दिए। ये सारी घटनाएं राजा देख रहे थे। इसके बाद राजा को यह ज्ञान हो गया कि व्रत-उपवास करने से तब तक कोई फायदा नहीं होता जब तक मन शुद्ध नहीं हो। इसलिए मन एवं आचरण की शुद्धि ही सबसे बड़ी पूजा है।