बाबा वाल्मीकेश्वरनाथ धाम में भगवान श्रीराम, लक्ष्मण व विश्वामित्र ने भी की थी पूजा-अर्चना
सीतामढ़ी। सीतामढ़ी की धरती त्रेता युग के कई स्वर्णिम इतिहास को समेटी हुई है। यहां के कण्
सीतामढ़ी। सीतामढ़ी की धरती त्रेता युग के कई स्वर्णिम इतिहास को समेटी हुई है। यहां के कण-कण में प्रभु श्रीराम व जन-जन में माता जानकी विद्यमान हैं। भगवान शिव भी उसी तरह आस्था व भक्ति के केंद्र हैं। भारत-नेपाल सीमा स्थित सुरसंड में बाबा वाल्मीकेश्वर नाथ धाम मंदिर रामायण काल का गवाह है। यहां महादेव का शिवलिग 21 फीट नीचे स्थापित है। सावन में पहलेजा घाट व नेपाल के जनकपुरधाम स्थित दूधमती नदी के जल से यहां महादेव का जलाभिषेक होता है। ऐसी मान्यता है कि महर्षि वाल्मीकि के तपस्थल से शिवलिग उत्पन्न हुआ था। यही वजह है कि इनका नाम वाल्मीकेश्वरनाथ महादेव के रूप में विख्यात हुआ। बताते हैं कि वाल्मीकि के इस शिव लिग की पूजा- अर्चना भगवान श्रीराम, लक्ष्मण व विश्वामित्र ने जनकपुरधाम धनुष यज्ञ में जाने व धनुष यज्ञ समाप्ति के बाद माता सीता से विवाह के बाद अयोध्या लौटने के क्रम में भी की थी। यह इलाका मिथिला राज्य के अधीन था। राजा विदेह का शासन था। उनके राज्य में डाकू रत्नाकर का आतंक था। एक बार डाकू रत्नाकर ने राजा विदेह का खजाना लूटने का षडयंत्र रचा। गुप्तचर से इसकी सूचना मिलते ही राजा खुद डाकू से मिलने का निश्चय किए। राजा प्रहरी का वेश धारण कर खजाने की सुरक्षा करने लगे। एक दिन डकैत आए और प्रहरी के रूप में तैनात राजा विदेह को बंधक बना लूटपाट करने लगे। राजा ने डाकू रत्नाकर से पूछा कि तुम डकैती किसके लिए करते हो? डाकू ने कहा कि अपने परिवार के लिए। राजा ने डाकू को कहा कि तुम अपने स्वजनों से पूछ कर आओ कि क्या वे तुम्हारे कुकृत्य में शामिल हैं। रत्नाकर जब घर लौटा तो इसके बारे में सभी से पूछा। उसकी पत्नी समेत सभी स्वजनों ने पाप में सहभागिता से इनकार कर दिया। इससे विचलित होकर डाकू रत्नाकर राजा के पास पहुंचा और राजा के कहने पर मोक्ष प्राप्त करने की राह पकड़ी। डाकू रत्नाकर 20-25 किमी की दूरी तय कर इसी स्थान पर सुंदर वन पहुंचा। यहां आकशवाणी हुई कि इसी स्थान पर तप करने से तुम्हें मोक्ष मिलेगा। कहते हैं कि तकरीबन 60 वर्ष तक वह तप करता रहा। उसका पूरा शरीर मिट्टी से दब गया और शरीर में (वाल्मीकि) दीमक लग गया। इसी बीच राजा अपनी पत्नी, बच्चों व सुरक्षा कर्मी के साथ भ्रमण पर निकले। राजा का मन इस सुंदर वन ने मोह लिया। तंबू लगा रूक गए। इसी बीच एक टीले को राजा की पुत्री शक्ति स्वरूपा ने अंगुली मार दी, जिससे खून निकलने लगा। राजा ने खून देखा तो आश्चर्य हुआ। मिट्टी हटाया तो देखा कोई तप में लीन है। इसके बाद राजा ने अपनी पुत्री शक्ति स्वरूपा को तपस्या खत्म होने तक तपस्वी की देखभाल का निर्देश दिया। वर्षों बाद भगवान भोले ने तपस्वी डाकू रत्नाकर को दर्शन देकर उनकी सुंदर काया लौटा दी। तपस्या करने के कारण डाकू रत्नाकर को वाल्मीकि का नाम मिला। वाल्मीकि संस्कृत शब्द है, जिसका हिन्दी में अर्थ दीमक होता है।