आधा दर्जन वाद्य यंत्रों को बजाने में निपुण थे पूर्वी के जनक पंडित महेंद्र मिश्र

छपरा।अंगुली में डसले बिया नगीनिया हो सईया के बुलाई द जैसे पूर्वी धुन पर गीतों के रचयिता पंडित महेंद्र मिश्र सिर्फ एक गीतकार ही नहीं बल्कि बहुत बड़े संगीतज्ञ भी थे। गीत की रचना करने के साथ-साथ वह उसे लयबद्ध कर संगीत में भी पिरोते थे।

By JagranEdited By: Publish:Mon, 15 Mar 2021 06:31 PM (IST) Updated:Mon, 15 Mar 2021 07:18 PM (IST)
आधा दर्जन वाद्य यंत्रों को बजाने में निपुण थे पूर्वी के जनक पंडित महेंद्र मिश्र
आधा दर्जन वाद्य यंत्रों को बजाने में निपुण थे पूर्वी के जनक पंडित महेंद्र मिश्र

छपरा।अंगुली में डसले बिया नगीनिया हो सईया के बुलाई द जैसे पूर्वी धुन पर गीतों के रचयिता पंडित महेंद्र मिश्र सिर्फ एक गीतकार ही नहीं बल्कि बहुत बड़े संगीतज्ञ भी थे। गीत की रचना करने के साथ-साथ वह उसे लयबद्ध कर संगीत में भी पिरोते थे। वे आधा दर्जन से अधिक वाद्य यंत्रों को बजाने में निपुण थे। उनके तबले की थाप और बांसुरी की धुन पर नर्तकियों के पैर ऐसे ही थिरकने लगते थे। उनके पूर्वी धुन के आज भारत ही नही बल्कि फिजी, मारिशस, सूरीनाम, नीदरलैंड, त्रिनिदाद, गुयाना के लोग भी कायल हैं। वहां के गायकों द्वारा भी इसे अपनी आवाज दी जा रही है। ऐसे महान गीतकार एवं संगीतकार को आज तक वह सम्मान नहीं मिल सका है, जिसका वे हकदार हैं। बक्सर जेल में उनके द्वारा रचित भोजपुरी महाकाव्य अपूर्व रामायण का प्रकाशन आज तक नहीं हो सका। सरकारी स्तर पर उनकी जयंती पर सिर्फ कार्यक्रम आयोजित कर खानापूर्ति कर दी जाती है।

16 मार्च 1886 को जलालपुर प्रखंड के कांही मिश्रवलिया गांव में जन्मे पंडित महेंद्र मिश्र बचपन से ही काफी मेधावी थे और पहलवानी, घुड़सवारी के साथ-साथ गीत संगीत में उनकी काफी रूचि रखते थे। इसी रुचि का परिणाम था कि पंडित महेंद्र मिश्र ढोलक, हारमोनियम, झाल, पखाउज, तबला, मृदंग व बांसुरी पर समान रूप से अधिकार रखते थे। सभी वाद्य यंत्रों को बजाने में हुए एक समान निपुण थे। पूर्वी के साथ-साथ कजरी, दादरा, खेमता, ठुमरी आदि पर भी उनका जबरदस्त अधिकार था। जहां भी वह बैठ जाते थे वहीं पर उनकी महफिल सज जाती थी। पंडित महेंद्र मिश्र के कई गीतों से प्रभावित होकर भिखारी ठाकुर ने अपने कई नाटकों का मंचन किया। जैसे टूटही पलानी गीत में दर्द का अहसास करते हुए भिखारी ठाकुर ने विदेशिया नाटक का मंचन किया था।

ढेला बाई से प्रगाढ़ प्रेम एवं जमींदार हनुमत सहाय के साथ दोस्ती की मिसाल सभी देते हैं। जिस प्रकार उन्होंने इन दोनों का साथ अंतिम समय तक दिया, उसी प्रकार पंडित महेंद्र मिश्र देश के लिए भी अंग्रेजों से लोहा लिए थे। जाली नोट छापने के कारण पंडित महेंद्र मिश्र को गिरफ्तार कर बक्सर जेल में बंद किया गया था। वहां भी उन्होंने अपने संगीत की विधा को चार चांद लगाया। इसी का परिणाम था कि बक्सर जेल का तत्कालीन जेलर पंडित जी को अपनी पुत्री को संगीत सिखाने के लिए रख दिया। बक्सर जेल में ही उन्होंने अपूर्व रामायण की रचना की, जो आज भी प्रकाशन की बाट जोह रहा है। दो वर्ष पूर्व हिदी साहित्य अकादमी के लोग उसे संकलित कर प्रकाशित करने के लिए ले गए थे, लेकिन अब तक उसका प्रकाशन नहीं हो सका है। 26 अक्टूबर 1946 को ढेला बाई के मंदिर में स्थापित शिवालय में एक निर्गुण बनवारी हो कैसे जाएब ससुराल ,आ गइले डोलिया कहारी हो कैसे जाए ससुराल को गुनगुना रहे थे कि कुछ क्षण बाद में शिवलिग के पास गिर गए और उनकी मौत हो गई। निर्गुण गीत गाते हुए अपना प्राण त्यागने वाले पंडित जी को आज तक वह सम्मान नहीं मिल सका, जिसके वे हकदार हैं। सारण के लोग उन्हें पद्मश्री से नवाजे जाने की मांग करने लगे हैं। साथ ही उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देने की भी मांग कर रहे हैं।

पंडित जी के प्रपौत्र विनय मिश्र कहते हैं कि पूर्वी धुनों को अपनाकर बिस्मिल्लाह खान को भारतरत्न से सम्मानित किया गया। लेकिन पूर्वी धुनों के जनक पं महेन्द्र मिश्र आज भी उपेक्षित हैं। उनके गीत पर कई फिल्में बनीं। 1963 की फिल्म मुझे जीने दो में नदी नारे न जाओ श्याम पैंया परो, व महबूब खान की फिल्म तकदीर की ठुमरी के जनक महेन्द्र बाबा ही थे। महेंद्र मिश्र के एक और प्रपौत्र रामनाथ मिश्र कहते हैं कि महेन्द्र बाबा को नोट छापने के जुर्म मे छपरा कोर्ट द्वारा 30 वर्ष की सजा हुई थी। लेकिन जाने माने बैरिस्टर चितरंजन दास ने इनका केस लड़कर सजा की अवधि 30 वर्ष से कम कराकर 10साल करा दी। उन्हें बक्सर जेल मे रखा गया था। जहां उन्होंने अपूर्व रामायण, महेन्द्र गीतावली, महेन्द्र प्रभावली, महेन्द्र मयंक, उधो राधिका संवाद, जो अप्रकाशित है कि रचना की थी। उन्होंने बताया कि उनकी अद्वितीय रचना अपूर्व रामायण तथा अन्य कालजयी रचनाओं की पांडुलिपि इसी तरह से बिखरी पड़ी थी। कुछ ही साल पहले ही राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा उसे प्रिट कराने के लिए ले जाया गया है। लेकिन अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया है।

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देवेंद्र मिश्र, जलालपुर : 1943 में जब जर्मनी अंग्रेजों के अधीन था तथा द्वितीय विश्व युद्ध चरम पर था। जर्मनी के लोग ब्रिटिश को अलग तरह का चोट पहुंचाना चाहते थे। 1943 में स्टेपो प्रमुख बर्नार्ड क्रुगर के नेतृत्व में जर्मनी के लोग अंग्रेजों के चंगुल से निकलना चाहते थे। ऐसे मे बर्नार्ड क्रुगर को लंदन से ऐसी सूचना मिली कि 1924 में कोई भारतीय ( महेन्द्र मिसिर)ने अंग्रेजी नोट को इतना छापा था कि ब्रिटिश अर्थव्यवस्था चरमराने लगी थी। इसपर सरकार ने एक जासूस गोपीचंद को लगाया। गोपीचंद ने महेन्द्र मिसिर को विश्वास में लेकर उन्हें इस तरह पकड़वाया कि स्काटलैंड यार्ड भी अचंभित रह गया। इसी भारतीय से प्रेरणा लेकर बर्नार्ड क्रुगर ने इतना नोट छापा कि ब्रिटीश हलकान हो गए। स्थानीय लोगों का कहना है कि महेंद्र मिश्र नोट जरूर छापते थे, लेकिन सारा पैसा क्रांतिकारियों को दिया करते थे। क्रांतिकारियों के नहीं रहने या जेल जाने पर उनके परिवारों तक पैसा पहुंचाना उनके जीवन का हिस्सा था। नोट छापने की चर्चा सभी जगह होती थी। परन्तु किसी को यह पता नहीं था कि महेंद्र बाबा कहां नोट छापते थे। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने जासूस गोपीचंद को लगाया जो नौकर बनकर महेंद्र बाबा की सेवा करने लगा। उसको भी तीन साल लग गए, यह पता लगाने में कि महेंद्र बाबा नोट कहां छापते हैं। उसकी सूचना पर स्थानीय ब्रिटिश कमांडर नील साहब ने पुलिस की टुकड़ी के साथ उनके घर पर धावा बोल दिया। जब इसकी सूचना स्थानीय लोगों को हुई तो सभी लाठी डंडा लेकर उनके घर पहुंच गए। बड़ी संख्या में लोगों के हुजूम को देखते हुए नील साहब ने बुद्धिमत्ता से काम लिया तथा अपने एक कर्मी कमांडर को फरमान दिया कि एक वाक्य लिखे कि यहां पर नोट छापने की मशीन नहीं मिली। ऐसा कह कर वह स्थानीय लोगों के आक्रोश से बच निकले, लेकिन उसने महेंद्र बाबा पर नोट छापने और ब्रिटिश अर्थतंत्र को तबाह करने का आरोप लगाकर मुकदमा कर दिया। मुकदमे के दौरान उनके यहां नौकर रहे गोपीचंद ने उनके विरुद्ध गवाही दी । वहीं उसने महेंद्र बाबा से प्रेरणा लेकर उनके गीतों को सीख लिया था कि नोटिया हो छापी छापी गिनिया भंजवनी ए महेन्द्र मिसिर ब्रिटिश के कईनी हलकान.।

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