जितना भोग बढ़ेगा, उतना रोग बढ़ेगा : डा. अरुण

सहरसा। रविवार को गायत्री शक्तिपीठ में यूट्यूब लाइव प्रसारण के माध्यम से व्यक्तित्व परिष्कार स

By JagranEdited By: Publish:Sun, 23 May 2021 07:46 PM (IST) Updated:Sun, 23 May 2021 07:46 PM (IST)
जितना भोग बढ़ेगा, उतना रोग बढ़ेगा : डा. अरुण
जितना भोग बढ़ेगा, उतना रोग बढ़ेगा : डा. अरुण

सहरसा। रविवार को गायत्री शक्तिपीठ में यूट्यूब लाइव प्रसारण के माध्यम से व्यक्तित्व परिष्कार सत्र हुआ। सत्र को संबोधित करते हुए ट्रस्टी डा. अरुण कुमार जायसवाल ने कहा 26 मई को बुद्ध पूर्णिमा के दिन पूरे भारतवर्ष में सुबह 8 से 11 बजे तक यज्ञ का कार्यक्रम है। यज्ञ करने से सूक्ष्म का परिशोधन होता है। बैक्टीरिया, वायरस, फंगस के नाश के लिए यह कार्यक्रम चलेगा।

उन्होंने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, इस सृष्टि का निर्माण यज्ञ से हुआ है। यज्ञ का मतलब सिर्फ आहुति नहीं है बल्कि दान, देव पूजन और संगति करना है। हम देना सीखें। लोग अधिकार की बातें करते हैं। सिर्फ प्रकृति का दोहन व शोषण करते हैं, लेकिन पोषण की बात नहीं करते हैं। इसलिए आज यह स्थिति है। कहा कि यज्ञ में अपने बुराई को छोड़ना है। यज्ञ में पैसा चढ़ाने का कोई अर्थ नहीं है। बल्कि अपने दुष्प्रवृति को चढ़ाना, अपने आलस्य, प्रमाद, क्रोध को चढ़ाना और अपनी आस्था को बढ़ाना है।

उन्होंने कहा कि-आज का इंसान हैरान, परेशान और लाचार •ादिगी जी रहा है। वह मौज के लिए जी रहा है। सच यह है कि जो इंसान मौज करने के लिए जीता है वह अपने जीवन का विनाश कर रहा है। लगता है सबकुछ नष्ट हो जाएगा । कल कौन जिदा रहेगा पता नहीं। यह ईश्वरीय कृपा ही है कि हमलोग जी रहे हैं, नहीं तो कई लोग सावधानियां बरतने पर भी चले गए। कहा कि इसलिए ईश्वरीय कार्य में बुद्ध पूर्णिमा के दिन हाथ बटाएं और यज्ञ करें। उन्होंने कहा-सुख की परिणति ही दुख में होती है। उससे भी कर्म का क्षय नहीं होता है। हमें प्रारब्ध को क्षय करना चाहिए। महत्वहीन हो जाना सबसे महत्वपूर्ण बात है। भोग जितना बढ़ेगा रोग भी उतना बढ़ेगा। जीवन का उद्देश्य सुख भोगना नहीं है। आध्यात्म पथ पर चलना सहयोग प्राप्त करना नहीं है, सहयोग आपका और आशीर्वाद परमात्मा का। सुख अलग है आवश्यकता अलग है। सुख में लगातार वृद्धि करते रहना यह प्रकृति विरोधी बात है। कहा कि

जब जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति हो जाए, तो संतुष्टि प्राप्त होती है। जीवन की समझ के अनुसार संतुष्टि निर्भर करती है। उन्होंने कहा कि जड़ में ग्रह, नक्षत्र सभी आते हैं, लेकिन हम महसूस नहीं करते कि हम शुद्ध, बुद्ध चैतन्य आत्मा हैं, विशुद्ध

आत्मा हैं। हम अपने को जड़ माने हुए हैं। जो भावी के सामने घुटने टेक देता है, और भाग्य मान लेता है। वह कभी कुछ नहीं करता। आज का कर्म ही कल का भाग्य है,लेकिन भाग्य सीमित होता है और पुरुषार्थ असीमित होता है। अगर हम पुरुषार्थ नहीं कर पाते तो

भाग्य के सामने घुटना टेक देते हैं।

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