जाति की राजनीति के मुंह पर तमाचा है बिहार की यह परंपरा, नवरात्रि पर शेखपुरा में होती है अनोखी रस्म
जाति व्यवस्था के नाम पर भेदभाव करने वाले तमाम लोगों के लिए शेखपुरा जिले की यह परंपरा एक सीख है। शेखपुरा के बरबीघा प्रखंड अंतर्गत पिंजड़ी गांव में एक अनोखी परंपरा कई दशकों से चली जा रही है। यह परंपरा सामाजिक सद्भाव का जीता-जागता उदाहरण है।
शेखपुरा, जागरण संवाददाता। जाति व्यवस्था के नाम पर भेदभाव करने वाले तमाम लोगों के लिए शेखपुरा जिले की यह परंपरा एक सीख है। शेखपुरा के बरबीघा प्रखंड अंतर्गत पिंजड़ी गांव में एक अनोखी परंपरा कई दशकों से चली जा रही है। यह परंपरा सामाजिक सद्भाव का जीता-जागता उदाहरण है। इस परंपरा में अनुसूचित जाति के टोले से एक टोली हाथ में लाठी, भाला लेकर निकलती है और बली बोल का नारा लगाती है। टोली गांव में ढाई चक्कर लगाती है और सवर्णों के टोले में भी जाती है। इसमें गांव के सभी घरों के लोग चाहे वे किसी जाति के हों, घर के आगे झाड़ू, लाठी और भाला इत्यादि रखते हैं, जिसे लांघ कर यह टोली निकलती है। मान्यता है कि इससे सुरक्षा की गारंटी मिलती है।
टोली के रास्ते में लेट जाते हैं लोग
वहीं इसी टोली में बली बोल का नारा लगाकर गांव का भ्रमण करने के दौरान कई जगह बच्चे और बड़े गलियों में लेट जाते हैं, जिसको लांघ कर बली बोल की टोली निकलती है। इसमें मान्यता है कि इससे लोग निरोग रहते हैं। दरअसल यह परंपरा 300 साल से भी अधिक पुरानी बताई जाती है। श्रवण पासवान के पुरखों द्वारा इस परंपरा की शुरुआत की गई थी, जिसका निर्वहन अभी भी हो रहा है। श्रवण पासवान ने बताया कि उसके दादा- परदादा के जमाने से यह चलता रहा है। भेदभाव और जातीय मतभेद इसमें कहीं सामने नहीं आता। भूमिहारों के टोले में सभी लोग उनका स्वागत करते हैं। कई लोगों के द्वारा दान-दक्षिणा भी दी जाती है।
नवमी के दिन होता है इस परंपरा का पालन
नवरात्रि के नवमी के दिन इस परंपरा का पालन होता है। दलित के टोले से 50 से अधिक संख्या में लोग लाठी, भाला लेकर निकलते हैं। बलि बोल का नारा लगता है। एक घड़ा लेकर इसका समापन उसे फोड़ने के बाद हो जाता है। भूमिहार के टोले में घड़ा फोड़ने का काम होता है और बली बोल का समापन हो जाता है। इस परंपरा को जातीय सामंजस्य और भेदभाव मिटाने वाला भी माना जाता है। वहीं कुछ लोग इसे एक अंधविश्वास की परंपरा भी मानते हैं।