Karpoori Thakur: बिहार के हर दल में हैं जननायक कर्पूरी ठाकुर की विरासत के दावेदार
कर्पूरी ने जो किया-जो जिया उसकी दूसरी मिसाल नहीं निधन के 32 वर्ष बाद भी जननायक बिहार की राजनीति में प्रासंगिक हैं वोट की राजनीति करने वाले दल उन्हें कभी नजरअंदाज नहीं कर सकते कांग्रेस ने भी वोट के लिए किया कर्पूरी को याद
पटना [अरविंद शर्मा]। Karpoori Thakur Birth Anniversary Special: कर्पूरी ठाकुर (Bihar Ex CM Karpoori Thakur) को बिहार में सामाजिक न्याय की अलख जगाने वाला पहला कामयाब नेता माना जाता है। वह सियासत में ईमानदारी और सादगी के प्रतीक थे। 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर (Samastipur) के पितौंझिया गांव (Pitaunjhia) में जन्मे कर्पूरी एक बार उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने। उन्हें चुनावी राजनीति का अजातशत्रु भी कहा जाता है।
1952 में पहली बार विधायक बने कर्पूरी ठाकुर
कर्पूरी ठाकुर 1952 में पहली बार विधायक बने तो उसके बाद विधानसभा चुनाव कभी हारे नहीं। उनकी पूरी राजनीति कांग्रेस का विरोध करते हुए गरीबों और किसानों के दायरे से कभी बाहर नहीं गई। जबतक जिया, पिछड़ों और मजलूमों के लिए जिया। जो भी किया, कतार के आखिर में खड़े लोगों के लिए किया। जाति-परिवार की परवाह नहीं की। यही कारण है कि निधन के 32 वर्षों के बाद भी वह बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बने हुए हैं।
हर दल में हैं कर्पूरी ठाकुर की विरासत की दावेदारी करने वाले
चाहे राजद हो या जदयू या भाजपा, कर्पूरी की सियासी विरासत के दावेदारों की भरमार सभी दलों में हैं। उस कांग्रेस ने भी अबकी अपने चुनावी वादों में कर्पूरी को याद करने में पीछे नहीं रही, जिसके विरोध में उनकी राजनीति शुरू हुई थी। कांग्रेस ने उनके नाम पर सुविधा केंद्र खोलने का वादा किया था।
बिहार में सामाजिक बदलाव के अगुआ
कर्पूरी की प्रासंगिकता को इसलिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि उन्हें पिछड़ों का सर्वमान्य नेता माना जाता है। बिहार में पिछड़ों और अति पिछड़ों की आबादी 50 फीसद से ज्यादा है। इसलिए तमाम दलों में उन्हें अपना बताने-जताने की होड़ रहती है। सवाल है कि कर्पूरी इतने प्रासंगिक क्यों हैं? उन्हें सामाजिक बदलाव का अगुआ माना जाता है।
मंडल कमीशन से पहले ही बिहार में दिया आरक्षण
सत्ता में पिछड़ों की हिस्सेदारी और समाज में सम्मान का रास्ता बिहार में पहली बार उन्होंने ही प्रशस्त किया। देश में मंडल कमीशन (Mandal Commission) के प्रभावी होने से बहुत पहले 1978 में उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए बिहार की सरकारी नौकरियों में 26 फीसद आरक्षण लागू किया, जिसमें गरीब सवर्णों की भी चिंता की गई थी। यह परिवर्तनकारी कदम था। उपमुख्यमंत्री रहते हुए 1967 में उन्होंने मैट्रिक में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर निशुल्क शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया।
कर्पूरी के नाम पर सभी साधते हैं वोट बैंक
रविवार को यानी आज जननायक की जयंती है। जाहिर है, राजनीतिक दलों में कर्पूरी को अपना नायक बताने-जताने की आपाधापी है, क्योंकि बिहार में सक्रिय नेताओं के बीच उनके नाम पर अपने वोट बैंक मजबूत करने की कवायद सालों भर जारी रहती है।