जातिगत जनगणना यानी वोट बैंक बढ़ाने की बेताबी, भाजपा के वोट प्रबंधन ने कांग्रेस को भी डराया

बिहार में बदले राजनीतिक परिदृश्य के बीच विकास योजनाओं में समानुपातिक भागीदारी के नाम पर विभिन्न जातियों की संख्या जानने के लिए हल्ला मचाया जा रहा है। ऐसे में इस मामले से जुड़े अन्य पहलुओं को जानना भी आवश्यक है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 23 Aug 2021 09:47 AM (IST) Updated:Mon, 23 Aug 2021 04:37 PM (IST)
जातिगत जनगणना यानी वोट बैंक बढ़ाने की बेताबी, भाजपा के वोट प्रबंधन ने कांग्रेस को भी डराया
जनगणना कार्य को ज्यादा मुश्किल और जटिल बना सकती है जाति आधारित जनगणना। फाइल

पटना, अरविंद शर्मा। देश में अभी एक ही मुद्दे पर विशेष बहस हो रही है कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए या नहीं। जो विपक्ष में हैं, उनके जेहन में समावेशी विकास और राष्ट्र की संपूर्ण सांस्कृतिक एकता है, ताकि जाति और जन्म के हिसाब से किसी के साथ भेदभाव न हो। किंतु जो पक्ष में हैं, उन्हें मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद की लहलहाती राजनीतिक फसल याद आ रही है, जो मूल रूप से जाति की जमीन पर खड़ी थी। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में केवल आकर्षक नारों व लुभावने वादों के सहारे इस जमीन पर करीब डेढ़-दो दशकों तक खेती होती रही, लेकिन उसके बाद विकास, शिक्षा और बेहतर रहन-सहन की उत्कंठा ने लोगों को इस कदर आकर्षति करना शुरू कर दिया कि जातिवादी राजनीति की धारा कमजोर पड़ती गई।

बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) और उत्तर प्रदेश में एक अंतराल के बाद भाजपा की वापसी को इससे जोड़कर देखा जा सकता है। दोनों दलों ने जातिवाद की जटिलताओं को दरकिनार करते हुए मतदाताओं की राजनीतिक सोच को विकास से जोड़ा और सत्ता के समीकरण को उलट-पलट दिया। बिहार विधानसभा 2020 के चुनाव में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की कामयाबी को विकास की अवधारणा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि लालू प्रसाद के बहुचíचत मुस्लिम और यादव (माय) समीकरण को पीछे छोड़कर तेजस्वी ने चुनाव से पहले राजद को ए-टू-जेड की पार्टी बताना शुरू कर दिया था। चुनावी सभाओं में जाति की बात से दूरी बना ली थी। रोजगार और शिक्षा की बातें करने लगे थे। आश्वासन दे रहे थे कि वह सबको लेकर चलेंगे। यहां तक कि जाति की राजनीति करने की पहचान रखने वाले पिता लालू प्रसाद और माता राबड़ी देवी की तस्वीरें भी राजद के बैनर-पोस्टरों से हटा दी थीं। लालू की गैरमौजूदगी में नई पहचान और नए तेवर के साथ बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले दम पर राजद को सबसे बड़ी पार्टी बनाने का श्रेय हासिल करने के बावजूद तेजस्वी यादव का हाल का राजनीतिक यू-टर्न हैरान करने वाला है।

अचानक बदला परिदृश्य : लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने जब 20 जुलाई को जातिगत जनगणना नहीं कराने की केंद्र सरकार की मंशा के बारे में बताया था तो क्षेत्रीय राजनीति करने वाले दलों को लगा कि उन्हें एक बड़ा चुनावी मुद्दा मिल गया है। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में सक्रिय भाजपा विरोधी दल मानकर चलने लगे कि वे इसे मंडल कमीशन की सिफारिशों की तरह ही भुना सकते हैं और अपनी पुरानी राजनीतिक हैसियत को फिर से प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए बिहार में सबसे पहले इसे लालू प्रसाद ने लपका। जनता दल यूनाइटेड के प्रमुख नेता एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कहां पीछे रहने वाले थे। जब उन्होंने भी इसे अपना प्रमुख एजेंडा बताया और कहा कि उनके दिमाग में 1990 से ही यह बात चल रही है कि विभिन्न जातियों की आबादी सबको पता होनी चाहिए तो लालू प्रसाद ने इसे चुनौती की तरह लिया। लोकसभा में 2011 में जातिगत जनगणना की मांग उठाने वाले लालू प्रसाद को लगा कि इसका श्रेय लेने में उनके वारिस तेजस्वी यादव कहीं पीछे न हो जाएं। इसलिए उन्होंने दो स्तर पर प्रयास तेज कर दिए। बिहार में राजद कार्यकर्ताओं से धरना-प्रदर्शन करवाया और राष्ट्रीय स्तर पर समाजवादी धारा के पुराने नेताओं को एकजुट करने की कोशिशों में जुट गए। लालू के समग्र प्रयास का असर हुआ कि बिहार में राजद और उत्तर प्रदेश में सपा के कार्यकर्ता एक ही दिन सात अगस्त को सड़क पर उतरे और केंद्र सरकार से जातिगत जनगणना की मांग की। तेजस्वी ने बिहार विधानसभा के मानसून सत्र में भी इस मांग को जोर-शोर से उठाकर बिहार के बाकी दलों पर भी दबाव बनाया।

नफा-नुकसान का विश्लेषण : अब जबकि बिहार के राजनीतिक दलों का समग्रता में आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलकर जाति आधारित जनगणना की मांग करने का कार्यक्रम है तो इसके नफा-नुकसान का विश्लेषण तो किया ही जा सकता है। वर्ष 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा ने दलितों व मुस्लिमों का समीकरण बनाया था। मायावती इसका अहसास भी कराती थीं। मंच से ही मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या और नाम गिनाती थीं। नतीजा सबके सामने है। लालू प्रसाद ने भी फरवरी 2005 में बिहार की सत्ता खोने के बाद मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे अपने नेतृत्व में लोकसभा और विधानसभा के चार चुनाव लड़े। एक में भी कामयाबी नहीं मिली। किसी चुनाव में सत्ता के करीब भी नहीं पहुंच पाए। जाहिर है, राजद, बसपा और सपा जैसे दल सत्ता में लौटने के लिए दायरा बढ़ाने की जुगत में हैं और जातिगत जनगणना को बड़ा हथियार मान बैठे हैं।

ऐसे दल प्रत्यक्ष तौर पर तो समावेशी विकास की बात करते हैं, किंतु उनके एजेंडे में मुख्य रूप से ओबीसी का वोट बैंक है। मंडल आयोग के मुताबिक बिहार में इसकी आबादी 52 फीसद बताई गई है। लालू प्रसाद इन्हें एकजुट करके राजद के वोट बैंक में इजाफा करना चाह रहे हैं, लेकिन इस क्रम में वह शायद भूल रहे हैं कि बिहार का राजनीतिक माहौल अब वर्ष 1990 के पहले जैसा नहीं रह गया है। तब बिहार की राजनीति में सवर्ण नेताओं का वर्चस्व था। प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह से लेकर जगन्नाथ मिश्र तक भूमिहार, ब्राrाण, राजपूत और कायस्थ मुख्यमंत्रियों की लंबी सूची रही थी। मंडल कमीशन के साइड इफेक्ट ने मतदाताओं को अगड़ा-पिछड़ा में बांट दिया, जिसका फायदा लालू और मुलायम जैसे नेताओं ने उठाया। किंतु अब लालू की लड़ाई किसी तिवारी, त्रिपाठी, शर्मा, झा, पाठक, पांडे, ठाकुर या मिश्र से नहीं है, बल्कि अपनों से ही है। लालू के सामने मुख्य मोर्चे पर आज उसी समुदाय के लोग हैं, जो मंडल की राजनीति में तीन दशक पहले उनके साथ खड़े थे। केंद्र की राजनीति में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद ओबीसी समुदाय से ही आते हैं और बिहार के मोर्चे पर नीतीश कुमार भी अलग नहीं हैं। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में भी ओबीसी समुदाय के 27 मंत्रियों को जगह दी गई है। ऐसे में जातिगत जनगणना के हथियार से जाति की राजनीति करने वाले कुनबे को कितनी प्रचंड जीत मिलेगी, यह भविष्य के गर्भ में है।

इतना तय है कि अगर केंद्र सरकार जातियों की गिनती कराने पर सहमत हो गई तो इसका सर्वाधिक नुकसान उन्हीं दलों को होगा, जो जाति आधारित राजनीति करने के लिए जाने जाते हैं। उनके सामने कर्नाटक का उदाहरण भी है। वहां की तत्कालीन सिद्धारमैया सरकार ने 2014-15 में अपने खर्चे पर जाति आधारित जनगणना कराई थी, नतीजा हुआ कि दोबारा सत्ता में वापसी नहीं हुई। इसकी वजह समझना जरूरी है।

सभी जातियों को अगर पता चल गया कि उनकी आबादी और सत्ता में हिस्सेदारी कितनी है तो वे अपने समर्थन वाले दलों से उसी अनुपात में लोकसभा और विधानसभा चुनाव की सीटों की मांग करने लगेंगी। इस दिशा में पहल होने भी लगी है। बिहार विधानसभा चुनाव में विकासशील इंसान पार्टी के मुखिया मुकेश सहनी ने महागठबंधन से रिश्ता इसी आधार पर तोड़ लिया था कि उनकी आबादी के अनुपात में उन्हें सीटें नहीं मिल रही थीं। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतनराम मांझी भी इसी आधार पर अपने लिए सीटें चाहते हैं। भाजपा से लोकसभा की छह-छह सीटें प्राप्त करने का लोक जनशक्ति पार्टी का आधार भी आबादी का अनुपात ही रहा है।

देखा जाए तो जातिगत जनगणना की सबसे बड़ी चोट लालू प्रसाद और मुलायम सिंह को पड़ सकती है। बिहार में यादवों की आबादी 14 से 15 फीसद मानी जाती है, परंतु राजद अपने हिस्से के 40 से 50 फीसद टिकट इसी समुदाय को देता है। राजद ने वर्ष 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में गठबंधन के तहत 101 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे जिनमें 48 यादव थे, जबकि वर्ष 2020 में 140 में से 58 यादव थे। मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की पार्टी की प्राथमिकता में भी परिवार और स्वजाति सबसे ऊपर है। दूसरे समुदाय का स्थान बाद में आता है। ऐसे में ओबीसी में गैर यादव जातियों की राजनीतिक अपेक्षा और महत्वाकांक्षा का क्या होगा। बिहार में 200 से ज्यादा जातियां हैं, लेकिन राजनीति में मुख्य रूप से 10-12 जातियां ही सक्रिय भूमिका में रहती हैं। आजादी से अब तक लोकसभा में बिहार से सिर्फ 22 जातियों को ही प्रतिनिधित्व का मौका मिल सका है। बाकी जातियों को अभी भी इंतजार है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि सत्ता में भागीदारी से वंचित जातियों की हताशा और आक्रोश का फायदा कौन उठा ले जाएगा, इसे लालू प्रसाद और मुलायम सिंह समय रहते समझ लें तो उनकी पीढ़ियों की राजनीति के लिए बेहतर होगा।

पिछले दस वर्षो के दौरान भारतीय जनता पार्टी के वोट एवं चुनाव प्रबंधन की कुशलता ने कांग्रेस समेत सभी विरोधी दलों को परेशान कर दिया है। अब तक टिकट बांटने से लेकर मंत्री बनाने में भारतीय जनता पार्टी ने मंडल के नए अवतार का ख्याल रखा है। साथ ही, नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के भीतर कम प्रभुत्व वाली जातियों का हाल जानने के लिए बनाई गई रोहिणी कमेटी ने भी भारतीय जनता पार्टी विरोधी दलों को काफी हद तक डरा रखा है। यही वजह है कि वर्ष 2011 की जनगणना में जाति आधारित आंकड़े जुटा लेने के बाद भी इसकी रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से बचती रहने वाली कांग्रेस भी मुखर होकर जातिगत जनगणना की मांग कर रही है।

वोट की राजनीति में बिहार में भारतीय जनता पार्टी भी पीछे नहीं रहना चाहती। इसीलिए नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रधानमंत्री से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल में बिहार से भाजपा की भी भागीदारी होगी। बिहार विधानमंडल के दोनों सदनों से जातिगत जनगणना के पक्ष में जब वर्ष 2019 और 2020 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा जा रहा था तो उसमें भी भाजपा की पूर्ण सहमति थी।

दरअसल भारतीय जनता पार्टी भी इस बड़े वोट वर्ग के साथ खड़ी है और खुद को दिखाना भी चाहती है। बिहार-उत्तर प्रदेश भाजपा के कई नेता जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं। महाराष्ट्र भाजपा के ओबीसी के बड़े नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो वर्ष 2010 में ही सभी जातियों की आबादी जानने की मांग लोकसभा में उठाई थी। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह मामला आगे किस तरह से बढ़ता या मोड़ लेता है।

[राज्य ब्यूरो प्रमुख, बिहार]

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