समाज को अमन और मोहब्बत का संदेश दे गया फर्दीनांद

पटना फिल्मोत्सव के समापन पर कालिदास रंगालय में दर्शकों की भीड़ अपेक्षाकृत अधिक थी।

By JagranEdited By: Publish:Tue, 11 Dec 2018 10:12 PM (IST) Updated:Tue, 11 Dec 2018 10:12 PM (IST)
समाज को अमन और मोहब्बत का संदेश दे गया फर्दीनांद
समाज को अमन और मोहब्बत का संदेश दे गया फर्दीनांद

पटना फिल्मोत्सव के समापन पर कालिदास रंगालय में दर्शकों की भीड़ अपेक्षाकृत अधिक थी। मंगलवार को दोपहर से शाम तक परिसर में दर्शकों का आना-जाना लगा रहा। दर्शक अपने हिसाब से फिल्मों की प्रस्तुति का आनंद उठाने में लगे थे। हिरावल जन संस्कृति मंच की और से आयोजित पटना फिल्म महोत्सव के समापन यानि तीसरे दिन बच्चों पर आधारित फिल्म 'फर्दीनांद', सरोज दत्ता पर आधारित दस्तावेजी फिल्म एवं लू शुन की कहानी पर आधारित 'पागल की डायरी' की प्रस्तुति सभागार में हुई। दर्शकों ने तीन दिवसीय फिल्म महोत्सव का भरपूर आनंद उठाया। महोत्सव के दौरान बच्चों की जिंदगी पर बनी स्पेनी कहानी पर आधारित फीचर फिल्म 'फर्दीनांद' की प्रस्तुति सभागार में हुई।

फर्दीनांद के बहाने दिखा समाज का स्याह-सच

10 वें पटना फिल्म महोत्सव के आखिरी दिन की शुरुआत कार्लोस सलदान्हा निर्देशित एनिमेशन फिल्म 'फर्दीनांद' की प्रस्तुति सभागार में हुई। फिल्म की कहानी एक बछड़े से आरंभ होती है, जिसका नाम फर्दीनांद है। फर्दीनांद अपने हम उम्र बछड़ों के साथ खूब खेलता है और लाल रंग के एक फूल को बचाने की कोशिश करता है। सभी हमउम्र बछड़े अपने पिता की ताकत की तारीफ करते हैं और दावा करते हैं कि उनके पिता ही बुल फाइटिंग यानि बैल की लड़ाई में चुने जाएंगे। सभी बछड़े अपने दोस्तों के साथ इस बात को लेकर झगड़े भी करते हैं। लेकिन फर्दीनांद उनकी शैतानियों में कोई दिलचस्पी नहीं रखता। आखिरकार जिस बुल फाइटिंग का इंतजार सभी बछड़ों को होता है वो घड़ी सामने आ जाती है। संयोग से फर्दीनांद के पिता को फाइटिंग के लिए चुन लिया जाता है। अपने पिता को लड़ाई के लिए विदा करते वक्त फर्दीनांद उनसे पूछता है कि क्या बिना लड़े कोई लड़ाई जीती नहीं जा सकती। अपने बेटे को जवाब देने में फर्दीनांद का पिता असमर्थ होता है। फाइटिंग को गए फर्दीनांद का पिता लौटकर नहीं आता। इधर, अपने पिता के इंतजार में फर्दीनांद काफी दिनों तक इंतजार करता है। अपने पिता को लंबे समय तक नहीं आने के बाद फर्दीनांद अपने बाड़े से भाग जाता है, जहां पर बुल फाइटिंग की लड़ाई के लिए मजबूत बैल बनाए जाते हैं। वह अपने पिता की खोज में भागते हुए एक प्यारी बच्ची से मुलाकात करता है। वह बच्ची फर्दीनांद को अपने पास रख लेती है। कुछ समय में फर्दीनांद अपने पिता की तरह बलशाली बन जाता है। न चाहते हुए भी ¨हसक प्रतिस्पर्धा में ढकेले जाने की मजबूरी - वह सुख और आनंद के साथ जीना चाहता है, लेकिन नियति कुछ और चाहती है। वह उस जगह की ओर बढ़ जाता है, जहां फाइटिंग के लिए बैलों को तैयार किया जाता है। वह उस जगह से भागना चाहता है, लेकिन असफल होता है। फर्दीनांद को बचपन के दोस्त मिलते हैं, जिनके विचार उससे अलग होते हैं। वो सभी दोस्त ¨हसक प्रतिस्पद्र्धा से भरे होते हैं। फाइटिंग में जिन बैलों की हार होती है, उन्हें कसाईघर में भेज दिया जाता है, जहां पर उन्हें काट कर उनके सींग को स्मृति के तौर पर दीवार पर टांग दिया जाता है। उसी दीवार पर फर्दीनांद के पिता की तस्वीर और सींग लगी है, जिसे देखकर वह भावुक हो जाता है और अपने स्वार्थ के लिए ऐसी लड़ाई को घोर विरोध कर अमन और शांति का संदेश देता है। दर्शकों ने फिल्म का भरपूर आनंद उठाते हुए फिल्म महोत्सव की सराहना की। वही महोत्सव के मौके पर एसडी सरोज दत्ता एंड हिज टाइम्स फिल्म के बहाने एक क्रांतिकारी कवि और कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी सरोज दत्त के जीवन संघर्ष को दिखाया गया, जिसे दर्शकों ने सराहा। शासक वर्ग ने नक्सलबाड़ी विद्रोह का भीषण दमन कर कई नेताओं की हत्या कर दी, जिसमें सरोज दत्त भी शामिल थे। फिल्म निर्देशिका कस्तुरी बासु और मिताली विश्वास ने काफी रिसर्च कर दत्त के दस्तावेज पर आधारित फिल्म का निर्माण किया। किसानों और मजदूरों के हक के लिए लड़ते रहे दत्त - फिल्म प्रस्तुति के बाद दर्शकों से मुखातिब होते हुए फिल्म निर्देशिका मिताली विश्वास ने कहा कि नक्सलबाड़ी विद्रोह के जो बुनियादी कारण या सवाल थे, उनका समाधान आज तक नहीं हो सका। क्रांतिकारी नेता सरोज दत्त ने शासक वर्ग के विचारों के विरूद्ध जन-पत्रकारिता और जन पक्षीय आलोचना की धारा को निर्मित किया। आज भी उसकी प्रासंगिकता है। दत्त सही मायने एक सच्चे देश भक्त थे, जो मजदूरों और किसानों के हक में हमेशा खड़े रहे। उन्हें समाज के मेहनतकश और हाशिये के लोगों की चिंता थी। दत्त के जीवन पर बनी फिल्म क्रांतिकारियों के स्वप्न से साक्षात्कार कराती है। सभी एक-दूसरे के खून के प्यासे - फिल्म महोत्सव के समापन पर हिरावल संस्था की ओर से लू शुन की कहानी पर आधारित 'पागल की डायरी' का मंचन कालिदास रंगालय में किया गया। दुनिया के महान साहित्यकार लुशुन की कहानी को कलाकारों ने मंच पर पेश कर हजारों साल से चली आ रही आदमखोरी की परंपरा को जीवंत कर समाज में नफरत और खून-खराबे पर प्रहार किया। लोगों के अंदर स्वार्थ और अपने हित की चाहत उन्हें ¨हसक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। नाटक के दौरान एक पागल दूसरे पागल से कहता है कि दूसरों को खा लेने का लालच, परंतु स्वयं आहार बन जाने का भय व्याप्त है। सभी रिश्ते नाते यहां तक कि अपरिचित भी, एक-दूसरे को खा जाने के षड्यंत्र में शामिल हो कर एक-दूसरे के खून के प्यासे होते हैं। जब तक समाज से आदमखोरी जड़ से समाप्त नहीं होगी, तब तक लोग एक दूसरे को खाते-रहेंगे। नाट्य-प्रस्तुति के दौरान राम कुमार, राजन कुमार और सुमन कुमार, सुधांशु आदि की उम्दा भूमिका रही।

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