Samastipur : भूल गए दो गज दूरी का पालन करना, कार्यकर्ताओं के सम्मान में चुप रहना ही बेहतर समझा
महीनों बाद अपने बीच आने की सूचना मात्र से उनके चाहने वाले भी अति उत्साहित हो गए। हालांकि वो रात में ही यहां आ गए। कई ने रात में ही उनसे भेंट कर अपनी प्यास बुझा ली लेकिन जिन्हें देर से जानकारी मिली वे सुबह तक पहुंचे।
समस्तीपुर, [मुकेश कुमार]। ये साहब काफी रसूख वाले हैं। दिल्ली से लेकर पटना तक पार्टी में उनका दबदबा है। सूबे की सत्ता में हिस्सेदारी के बाद से पहली बार जिला मुख्यालय तक आए। महीनों बाद अपने बीच आने की सूचना मात्र से उनके चाहने वाले भी अति उत्साहित हो गए। हालांकि वो रात में ही यहां आ गए। कई ने रात में ही उनसे भेंट कर अपनी प्यास बुझा ली लेकिन जिन्हें देर से जानकारी मिली वे सुबह तक पहुंचे। सुबह में तो मानों उनके चाहने वालों की लाइन ही लग गई। पत्रकारों से भी मिलने का समय निर्धारित हुआ, ताकि कुछ विकास से उन्हें अवगत कराया जा सके। लेकिन इस आपाधापी में प्रोटोकॉल का पालन करना ही सभी भूल गए। मास्क को तो सभी ने जरूरी समझा। वहां मौजूद हरेक का चेहरा मास्क से बिल्कुल ढंका हुआ था। लेकिन दो गज की दूरी का सभी परित्याग कर बैठे।एक ही सोफे पर किसी तरह चिपक-चिपककर सभी बैठे। अब बेचारे माननीय भी क्या करते। सो उन्होंने भी कार्यकर्ताओं के सम्मान में चुप रहना ही बेहतर समझा। सम्मेलन से बाहर निकलते ही किसी की बेबाक टिप्पणी रही, यहीं जब यह हाल है तो दूसरी जगहों पर क्या होगा।
बेनकाब होना है सभी को, बस जमीन बचाकर रखिए
साहब के बडे तामझाम थे। उनका रूतबा और उनकी सैलरी को आंककर हर कोई हैरान था। लेकिन था को ना और ना को था बनाने वाली संस्था के सदस्य होने के कारण कोई कुछ भी बोलने से परहेज करता रहा। यही उनके मन बढ़ाने के लिए काफी था। अपने इसी रूआब को प्रतिस्थापित करने के लिए साहब ने इस बार तो हद ही कर दी। एक मामले के आरोपित से कुछ अधिक वसूली की चाह में उन्होंने उसके घर से उसकी बाइक उठवा ली। यह सोंचकर कि शायद असामी कुछ न कुछ दे ही जाएगा। लेकिन इस बार पर गए लेने के देने। उस असामी ने भी इस बार उन्हें सबक सिखाने की ही ठान ली। लेन-देन के उस बयान का रिकार्डिंग कर उसे बड़े साहब को सूना दिया। फिर बड़े साहब ने उसकी ऐसी दशा कर दी कि शायद ही कोई दुबारे उस गलती को दुहारने की जुर्रत कर सके। वैसे कमोबेश हर जगह की ऐसी ही स्थिति है। आज न कल बेनकाब तो सभी को होना है यदि जमीन न बची रहे।
बड़ा झोल है जमीन के मामले में कहने को तो यह विभाग जमीन के विवाद में कुछ नहीं कर सकता। उसके हाथ बंधे हैं। यह सीधे भूमि वाले विभाग से जुड़ा हुआ है। इनकी उपयोगिता उसमें तब होती है जब उन्हें आदेश का अमल करना होता है। लेकिन उस मामले में भी दखल नहीं देने वाला विभाग तभी सक्रिय होता है जब उसका कुछ वेटेज हो। वेटेज किसी पक्ष से हो सकता है पीडि़त पक्ष से भी या प्रताडि़त करने वाले पक्ष से भी। कानून की जानकारी रखने वाले एक अधिक वक्ता का भी पेंच ऐसे ही कानून की पेचीदगी में फंसा हुआ है। उनके घर को एक पक्ष ने जमींदोज कर दिया। ईंट-ईंट उखाड़कर ले जाया गया। पर कानून और व्यवस्था करने वाली संस्थान के पैरोकारों ने यह देखकर और जानकर भी कुछ करना मुनासिब नहीं समझा। तुर्रा यह कि जमीन के मामले में तो हम कुछ नहीं कर सकते। यानि यदि आपके पुश्तैनी घर को कोई तोड़ दें तो यह भी जमीनी विवाद का ही मामला है न कि लूट का। अब तो भगवान हीं बचाएं ऐसे कानून के रक्षकों से।
बचा लो ऐसे संपदा के रक्षक से
इनकी बहुत चलती है। साहब नाक के बाल कहे जाते हैं। लेकिन अपने उलटे-पुलटे सुझाव से साहब को कभी-कभी परेशानी में भी डाल देते हैं। ताजा मामला मामूली गेट खोलने को लेकर है। कुछ दिनों पूर्व कोरोना की जिले में पहली शुरूआत इसी जगह से हुई थी। उस समय बाहरी आवागमन पर रोक लगाने के लिए एहतियातन उस गेट को बंद करवा दिया गया था। उस फैसले के समर्थन में सभी लोग उस समय थे। पर समय ने पलटा खाया। उस जगह के सारे पॉजीटिव निगेटिव हो गए। लेकिन उस संपदा अधिकारी ने अपनी संपदा को कथित रूप से अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक नयी चाल खेल दी। तर्क कोरोना संक्रमण का था लेकिन अंदर नीयत बाहरी आवागमन से उस परिसर को बचाए रखने की थी। ताकि अंदर की बात अंदर ही रहे। गलती से भी उस परिसर की बात बाहर न जाने पाए। उनकी इस सोच ने लोगों को परेशान कर दिया। क्योंकि कई बहुपयोगी संस्थान का रास्ता उधर से ही गुजरता है। जनता उबाल की ओर है। अब न जाने इस नए जुगत में भी वे कामयाब हो जाते हैं या फिर साहब के नाक के बाल टूट जाते हैं।