आधुनिकता के दौर में खत्‍म होता जा रहा मिट्टी के बर्तन बनाने का कारोबार

जिस मिट्टी की मूर्ति की लोग आनलाइन खरीदारी कर रहेे हैं वहीं मिट्टी की मूर्ति स्थानीय लोग बना तो रहे हैं लेकिन खरीदार नहीं मिल रहा है। ऐसे में लोकल फार वोकल का नारा कम से कम शिवहर में तो नकारा जरूर साबित हो रहा है।

By Ajit KumarEdited By: Publish:Sat, 05 Dec 2020 10:23 AM (IST) Updated:Sat, 05 Dec 2020 10:23 AM (IST)
आधुनिकता के दौर में खत्‍म होता जा रहा मिट्टी के बर्तन बनाने का कारोबार
मिट्टी के बर्तन और अन्य चीजों के भी अब खरीदार नहीं रहे। फोटो : जागरण

शिवहर, जेएनएन। एक ओर सरकार लोकल फॉर वोकल का नारा दे रही है वहीं जरूरत की सामग्री का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है वहीं दूसरी ओर आधुनिकता की दौर में परंपरागत और पुश्तैनी कारोबार छीन रहा है। जिस मिट्टी की मूर्ति की लोग आनलाइन खरीदारी कर रहेे हैं, वहीं मिट्टी की मूर्ति स्थानीय लोग बना तो रहे हैं, लेकिन खरीदार नहीं मिल रहा है। ऐसे में लोकल फार वोकल का नारा कम से कम शिवहर में तो नकारा जरूर साबित हो रहा है। मिट्टी की अनुपलब्धता, कीमतों में वृद्धि और स्थानीय ग्राहकों की उदासीनता के चलते मिट्टी की मूर्ति निर्माण से जुड़े लोगों का पुर्श्तनी कारोबार अब छीनता जा रहा है। वैसेे कुम्हारों की चाक की रफ्तार अब थमने लगी है। न केवल मिट्टी की मूर्ति बल्कि मिट्टी के बर्तन और अन्य चीजों के भी अब खरीदार नहीं रहे। 

पिपराही प्रखंड अंतर्गत मोहनपुर धनकौल बेलवा सहित दर्जनों गांव में कुम्हारों द्वारा खपड़ा गढने का काम व्यवसायिक रूप से होता था। तब इसके खरीदार भी बृहद पैमाने पर थे। सीजन के समय खरीदारों की लाइन लगी होती थी। नवंबर महीने से खपड़ा काटने का कारोबार शुरू होता था जो अप्रैल महीने तक चलता था। अप्रैल महीने के बाद इसकी बिक्री की जाती थी। लोगों में भी खपड़ैल घर बनाने का चलन था। इस घर में ना तो इतनी ठंड लगती थी ना ही गर्मी। आधुनिकता के इस दौर में लोगों ने खपड़ैल घर बनाना छोड़ दिया। तब से यह व्यवसाय पूरी तरह बंद हो गया। दूसरी ओर कई कुम्हार जरूरत के हिसाब से मिट्टी के बर्तन गढ़ने का काम अभी कर रहे है।

कलाकार अब भी पलायन को विवश

सत्यनारायण पंडित बताते है कि किसी तरह जीविका चला रहे हैं। यह व्यवसाय घाटे का सौदा बनकर रह गया। क्योंकि सारी जिंदगी इसमें गुजारी है। इसलिए अब कुछ और नहीं कर पा रहे है। वही खपरैल उद्योग के बंद होने से कई लोगों ने मजदूरी का रास्ता चुन लिया। शिव कुमार पंडित बताते है कि यदि सरकार आर्थिक रूप से सहयोग करें तो बर्तन को वृहद पैमाने पर व्यवसायी को देश से बनाकर बेचने से अच्छा लघु उद्योग स्थापित हो सकता है। पूंजी के अभाव एवं मोटर चालित चाक नहीं रहने के कारण कई कलाकार अब भी पलायन को विवश है। बताते चले कि शहरी क्षेत्रों पर ऑनलाइन मार्केटिंग से मिट्टी के बर्तनों की भारी डिमांड है । यदि इन कारीगरों को बैंकों से ऋण उपलब्ध कराया जाए एवं मिट्टी के बर्तनों के मार्केटिंग के बारे में बताया जाए इन्हें बड़े मार्केट से जोड़ा जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्योग की क्रांति आ जाएगी। 

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