Bihar panchayat elections 2021: पंचायत चुनाव में तब गांव के सामाजिक कार्यकर्ता थामते थे मुखिया की बागडोर

Bihar panchayat elections 2021 पुराने लोगों की नजर में वर्तमान चुनाव में धनबल और बाहुबल का प्रयोग गलत अब वोटरों से झूठे वादे कर उन्हें प्रत्‍याशी गुमराह करते हैं। सेवा और विकास की बदौलत चुनाव जितने की न किसी में क्षमता और नहीं साहस।

By Dharmendra Kumar SinghEdited By: Publish:Sat, 16 Oct 2021 05:28 PM (IST) Updated:Sat, 16 Oct 2021 05:29 PM (IST)
Bihar panchayat elections 2021: पंचायत चुनाव में तब गांव के सामाजिक कार्यकर्ता थामते थे मुखिया की बागडोर
अब प्रत्‍याशी जनता से झूठे वादे कर उन्हें गुमराह करते हैं। प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

दरभंगा (केवटी), जासं। पुराने जमाने और आज के पंचायत चुनाव में काफी अंतर है। आज पंचायत चुनाव विधानसभा और लोकसभा चुनाव की तरह ही है। पंचायत चुनाव में प्रत्याशी धनबल, बाहुबल तथा छद्म बल के सहारे कुर्सी हथियाने की जुगत में रहते हैं । जनता से झूठे वादे कर उन्हें गुमराह करते हैं। देखा जाए तो सेवा और विकास के सहारे चुनाव जितने की न किसी में क्षमता और नहीं साहस।

नेता और मतदाता का संबंध दुकानदार और ग्राहक जैसा हो गया है। वहीं 30 - 40 साल पहले ऐसी स्थिति नही थी। उस समय केवल मुखिया और सरपंच का चुनाव होता था। गांव के बुद्धिजीवी व आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति गांव के सामाजिक व्यक्ति को चुनाव लडऩे के लिए खड़ा करते थे, जिसमें नामांकन के अलावा और कोई खर्च नही होता था । अभी चुनाव लडऩा एवं जीत हासिल करना पूर्ण रूप से व्यवसाय बन चुका है। बिके मतदाता चुनाव जीतने वाले प्रत्याशी के पास विकास की बात करने की साहस नहीं कर पाता है। स्थिति शर्मनाक मोड़ पर पहुंच गई है। चुनाव के पूर्व मतदाता का विकास एवं चुनाव के बाद जीते प्रत्याशी का विकास यही चुनाव है। हालांकि इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। विगत 30- 40 वर्ष पूर्व केवल मुखिया एवं सरपंच का चुनाव होता था । गांव के आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत मुख्य व्यक्ति को ही ग्रामीण मतदाता ही मुखिया चुनाव लडऩे का आग्रह करते थे । नामांकन के बाद कोई खर्च प्रत्याशी नहीं करते थे। लेकिन आज उल्टी स्थिति है।

कहते हैं बुद्धिजीवी : तब समर्थक जुटाते थे चंदा

- बिरना गांव के रहने वाले 83 वर्षीय मौजेलाल दास कहते हैं कि उनके जमाने में 30 - 35 साल पहले मुखिया जी चेक नहीं काटते थे। उन्हें घर से ही खर्च करना पड़ता था। इसलिए उस समय चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशियों को समर्थक मतदाता ही चंदा देते थे। गांव के पढ़े लिखे या फिर सामाजिक कार्यकर्ता ही चुनाव मैदान में आने की हिम्मत करते थे। चुनाव काफी साफ सुथरा होता था।

- रनवे गांव के रहने वाले 73 वर्षीय दिनेश झा बताते है कि पहले जो भी उम्मीदवार रहे, उनका एक आदर्श होता था । स्वच्छ छवि के लोग चुनाव में आते थे । लोग उनके नाम पर वोट देते । उन्हें प्रचार के लिए हथकंडे नहीं अपनाने पड़ते थे ।तब , बड़े - बड़े काफिले या गाडिय़ों का हुजूम नहीं चलता था । साइकिल या रिक्शे में या पांव पैदल आ जाते थे । आज वैसी बात नहीं है। पानी की तरह पैसे बहाए जा रहे । राजनीति को लोगों ने पेशा बना लिया है। कार्यकर्ताओं को खर्चा दिया जाता है। जबकि पहले अपने घर से लोग नाश्ता करके निकलते थे ।

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