Bihar chunav : कभी साइकिल से ही प्रचार कर मार लिया था चुनाव मैदान, अब महंगी गाड़ी वाले का बोलबाला

Bihar chunav 2020 नकदी चावल गेहूं आदि देकर चुनाव खर्च का बोझ उठाती थी जनता।अब कार्यकर्ता व जनता पर खुद खर्च कर रहे हैं प्रत्याशी। मतगणना का यह हाल है कि एक दिन में सब परिणाम सामने। रात होते-होते तो मुख्यमंत्री का उम्मीदवार तक तय हो जाता है।

By Ajit KumarEdited By: Publish:Sat, 31 Oct 2020 09:15 AM (IST) Updated:Sat, 31 Oct 2020 09:15 AM (IST)
Bihar chunav : कभी साइकिल से ही प्रचार कर मार लिया था चुनाव मैदान, अब महंगी गाड़ी वाले का बोलबाला
एक साथ 25 से 50 साइकिलों का काफिला निकलता था।

मुजफ्फरपुर, [अमरेंद्र तिवारी]। Bihar chunav 2020: चुनाव लोकतंत्र का स्तंभ है। लेकिन, आजादी के बाद से अबतक बहुत बदलाव आया है। पहले बैलेट पेपर पर मतदान होता था। मतगणना में दो से तीन दिन लगते थे। अब तो सबकुछ बदल गया। ईवीएम से वोटिंग से बैलेट पेपर पुराने दिनों की बात हो गई। मतगणना का यह हाल है कि एक दिन में सब परिणाम सामने। रात होते-होते तो मुख्यमंत्री का उम्मीदवार तक तय हो जाता है। बदलाव की चर्चा करते हुए पूर्व विधायक बालेंद्र सिंह ने कहा कि पहले वाली बात अब कहां। 

जनता के सहयोग से चुनाव होता था

बरूराज से 1977 में वह चुनाव लड़े और सदन तक का सफर तय किया। पुराने दिनों की याद करते हुए कहते हैं कि उस समय जनता के सहयोग से चुनाव होता था। जिस गांव में गए वहां जनता के बीच बैठक होती थी। इसमें अपनी हैसियत के हिसाब से लोग दस, बीस, तीस रुपये देते थे। जनता नकदी, चावल, गेहूं आदि देकर चुनाव खर्च का बोझ उठाती थी। जो वोट देता वह और जो नहीं भी देता वह भी प्रत्याशी को बहुत सम्मान देता था। गांव में पहुंचने के बाद हल्ला हो जाता था कि नेताजी आए हैं। महिला-पुरुष सब वहां जुट जाते और भाषण शुरू हो जाता था। माइक की जरूरत नहीं होती थी। लेकिन, अब देख लीजिए कि किस तरह से प्रचार होता है। जनता की नजर में उतना सम्मान नहीं रहता, क्योंकि बहुत कम प्रत्याशी उनके बीच से आ रहे हैं।

साइकिल से निकलते थे प्रचार करने

1977 में यह हाल था कि जो प्रत्याशी होता था वह पैदल व साइकिल से ही ज्यादातर प्रचार में निकलता था। उस समय एसी वाहन का जमाना नहीं था। जीप थी, लेकिन उसका भी बहुत कम लोग उपयोग करते थे। पूर्व विधायक ने कहा कि वह खुद सुबह तैयार होकर साइकिल पर झंडा लगाकर निकलते थे। उनके पीछे-पीछे कार्यकर्ता भी निकलते। एक साथ 25 से 50 साइकिलों का काफिला निकलता था। बहुत कम जीप का उपयोग किया। साइकिल से प्रचार किया और जनता के अपार समर्थन से सदन तक गए। अभी तो यह हाल है कि धनबल हावी है। साइकिल पर प्रत्याशी अगर निकले तो उसको कितना वोट मिलेगा यह कहा नहीं जा सकता। जनता का मिजाज बदला है। वह भी ऐसा उम्मीदवार पसंद करती, जिसके पीछे गाडिय़ों का काफिला हो। उसके काफिला में सुरक्षा बल भी मौजूदगी जरूर रहनी चाहिए। यह सब बदलाव 1980 से शुरू हुआ और 1990 के बाद तो परवान पर है। माहौल यह हो गया है कि न पहले वाले नेता और न पहले वाले कार्यकर्ता व मतदाता ही हैं। सबकी सोच में अंतर आया है। अब हालत यह है कि खुद प्रत्याशी कार्यकर्ता व जनता पर खर्च कर रहे हैं। पार्टी को भी आर्थिक मदद करनी पड़ती है। लेकिन, पहले पार्टी, कार्यकर्ता व जनता के सहयोग से चुनाव लड़ा जाता था।  

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