कोरोना की मार के बावजूद मुजफ्फरपुर के बाग से लंदन के मार्ट तक पहुंची लीची

यास तूफान व बेमौसम बारिश से क्वालिटी को बचाने का रहा संकट समय से पहले शाही व चाइना के बाग हो गए खाली। कोरोना का कहर रहने से शासन-प्रशासन से आर्डर लेने की रही परेशानी स्थानीय बाजार में बेचने का रहा संकट।

By Ajit KumarEdited By: Publish:Wed, 28 Jul 2021 01:23 PM (IST) Updated:Wed, 28 Jul 2021 01:23 PM (IST)
कोरोना की मार के बावजूद मुजफ्फरपुर के बाग से लंदन के मार्ट तक पहुंची लीची
बिहार में 32 हजार हेक्टेयर में लीची की फसल होती है। सभी फाइल फोटो

मुजफ्फरपुर, [अमरेन्द्र तिवारी]। कोरोना के प्रकोप और मौसम ने इस बार लीची पर बुरा प्रभाव डाला। एक तो असमय बारिश और यास तूफान के चलते उत्‍पादन कम हुआ, वहीं दूसरी ओर कोरोना के चलते बाहर से व्‍यापारी भी कम ही आए। बिहार में 32 हजार हेक्टेयर में लीची की फसल होती है इसमें से दस से 12 हजार हेकटेयर मुजफ्फरपुर की हिस्सेदारी रहती है। जानकारी के अनुसार एक हेक्टेयर में अधिकतम दस टन तक उत्पादन होता है। बिहार लीची उत्पादक संघ के अध्यक्ष बच्चा प्रसाद सिंह ने बताया कि इस बार किसान बहुत परेशान रहे। मौसम ने साथ नहीे दिया। सिंह ने बताया कि सामान्य मौसम में मुजफ्फरपुर में करीब एक लाख टन लीची का उत्पादन होता है। 2019 से परेशानी हो रही है। 2020 लॉकडाउन के कारण व मौसम की मार ओला वृषिट के कारण उत्पादन व बाजार नहीं मिला। बाहर से व्यापारी नहीं पाए वाहन नही चला। मौसम की मार से 70 से 80 हज़ार टन ही उत्पादन हो पाया। इस साल भी यास तूफान व जून में होने वाली बारिश के कारण उत्पादन 50 से 60 हजार टन पर सिमट गया। करीब 30 प्रतिशत बर्बाद हुआ 15 से 20 जून तक लीची बाजार में रहती। लेकिन इस बार दस जून तक ही उसका अंत हो गया।

रतवारा के किसान केशवनंद सिंह, मनिका के राजीवर, पुनास के विन्देश्वर प्रसाद, कांटी कपरपुरा के अनिल त्रिपाठी, भोला त्रिपाठी कहते है कि मौसम व कोरोना ने तो रोना ला दिया। मजदूर को बाग में ले जाने के लिए पास बनाने से लेकर कई तरह का संकट आया। लेकिन बाहर लीची भेजने का रास्ता बना इससे राहत रही।

लगातार हो रहा नुकसान

किसानों की माने तो लगातार दो साल से नुकसान में चल रहे लीची किसानों को तीसरे साल यानी 2020 से काफी उम्मीदें थीं। लेकिन बंगाल की खाड़ी में आए चक्रवाती तूफान यास ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। मई के आखिरी स्पताह में आए यास तूफान ने लीची किसानों की तैयार फसल को बर्बाद किया और इस तरह लगातार तीसरे साल भी लीची किसानों को राहत नहीं मिली।

बिहार में 45 हजार से अधिक छोटे और सीमांत किसान लीची की खेती में लगे हुए हैं।

महज़ 30 दिन की ही फसल लीची

बता दें कि लीची मई महीने के तीसरे सप्ताह से अपने पूरे रूप में होती है और 25 मई से पेड़ों से टूटना शुरू होती है और जून के दूसरे तीसरे सप्ताह तक ही रहती है। पेड़ों से टूटने के बाद इसकी लाइफ महज दो से तीन दिन ही होती है।लीची अनुसंधान केन्द्र के निदेशक डा.एसडी पाण्डेय ने कहा कि मौसम के कारण किसान परेशान हुए। लेकिन केन्द्र की ओर से उनको फसल से बचाव के सुझाव के लिए जागरूकता व बाजार के बारे में जानकारी दी गई। कोरोना के कारण ऑन लाइन फसल को लेकर सहयोग किया गया।

लंदन व बंगलोर के बाजार में लीची की धमक

लीची उत्पादक बच्चा प्रसाद सिंह ने कहा कि अन्य साल से अच्छी कीमत मिली,बाजार में आवक कम होने के बावजूद दाम बेहतर मिला। थोक में मुम्बई में 200 किलो मिला। पिछले साल यह कीमत 100-150 के बीच रही थी। वराणसी, बलिया, गाजीपुूर, लखनउ, दिल्ली, अमृतसर, लधुियाना व कोलकाता से व्यापारी आए। काेरोना से लीची के फलन पर कोई असर नहीं रहा इसलिए व्यापारी आते रहे है। इधर आन लाइन बिक्री भी हुई।

2017 के बाद पहली बार गया

इस साल 2017 के बाद पहली बार ट्रेन से लीची को मुम्बई भेजी गई। प्रतिदिन 32 टन गया। 22 मई से 10 जून तक लगातार जाते रहा। इसके बाद ट्रक से भी अलग-अलग जगह पर गया। लखनउ व दिलली प्रतिदिन से पांच-दस ट्रक लखनउ व दिल्ली जाते रहा है। एक ट्रक पर 10 टन लीची भेजने की व्यवस्था की गई थी। उसी तरह से दरभंगा व पटना से हवाई जहाज से बंगलोर, मुम्बई व हैदराबाद नियमित जाते रहा। इस बीच हवाई जहाज से पहली बार से लंदन के लिए एक टन लीची गया था। मडवन चैनपुर के लीची उत्पादक किसान कुंदन कुमार ने बताया केि इस बार एक टन लीची लंदन के लिए भेजा गया। पटना से 500 किलो व लखनउ से 500 किलो गया है। कुंदन कुमार ने कहा कि चार किसान छोटेलाल साह मुरौल के छोटेलाल साह, पुनाास के प्रिंस कुमार के बाग की शाही लीची लंदन गई। कृषि विभाग के एपेडा के सहयोग से भेजा गया। करीब 15 डालर एक किलो के हिसाब से बिका। लेकिन यहां से भेजने में खर्च काटकर उनलोगों को 250 रूपए किलो के हिसाब से भुगतान हुआ। कुंदन कुमार ने कहा कि इस बार इस बार एक अनुभव हुआ कि कैसे पैकिंग किया गया कि वह लंदन जाकर खराब नहीं हो। वहां पर वाल मार्ट के मॉल में बिका। अगले साल 50 टन भेजने का लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए और किसानों से संपर्क किया गया। भेजने के तीसरेे दिन बाद एपेडा के माध्यम से ही पैसा आ गया। कुंदन की माने तो लीची उत्पादक किसान का रूपया बाजार में नहीं रूकता है। सारे बड़े व्यापारी उसको लेते और हर साल उनका कारोबार रहता। कुछ किसान को एडवांस तो कुछ को बिकने के बाद राशि आ जाती है। जीआई टैग मिलने के बाद बाजार में पहली बार लीची आई। इसकी चर्चा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मई महीने में मन की बात में इसकी चर्चा किए तो और बल मिला।

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