बचाव के लिए किए जा रहे उपायों से उत्तर बिहार में काबू में एईएस
वर्ष 2019 में 610 बच्चे एईएस से पीडि़त हुए थे। इसके बाद कई बिंदुओं पर की गई तैयारी। इस साल अब तक 28 मरीज मिले छह की मौत वर्ष 2020 में 89 मरीज आए थे जिनमें 14 की मौत हुई थी। पहले पीएचसी स्तर पर इलाज की व्यवस्था नहीं थी।
मुजफ्फरपुर, [अमरेंद्र तिवारी]। उत्तर बिहार में हर साल गर्मी में बच्चों पर कहर बरपाने वाली बीमारी एईएस (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) सरकार और स्वास्थ्य विभाग के प्रयास से काबू में है। बीते दो साल से बीमार होने और मौत का आंकड़ा काफी कम हुआ है। वर्ष 2019 में 610 बच्चे एईएस से पीडि़त हुए थे। 167 की मौत हुई थी। वहीं इस साल अब तक 28 मरीज आए हैं, जिनमें छह की मौत हुई है। वर्ष 2020 में 89 मरीज आए थे, जिनमें 14 की मौत हुई थी।
बच्चों को बीमारी से बचाने के लिए वर्ष 2019 के बाद 'एडॉप्ट विलेजÓ कार्यक्रम की शुरुआत की गई। इसके तहत एईएस से प्रभावित होने वाले प्रखंडों की जिम्मेदारी एक-एक अधिकारियों को दी गई। धूप में बच्चों को बाहर नहीं निकलने देने, खाली पेट नहीं सुलाने, रात में कुछ मीठा खिलाने के प्रति अभिभावकों को जागरूक किया गया। बच्चों के लिए पोषक आहार के वितरण के अलावा पोस्टर व होॄडग के जरिए भी बीमारी से बचाव का प्रचार-प्रसार किया गया।
पीएचसी स्तर पर इलाज की व्यवस्था
एईएस जागरूकता कोषांग पदाधिकारी कमल सिंह बताते हैं कि पहले पीएचसी स्तर पर एईएस के इलाज की व्यवस्था नहीं थी। लोग बच्चों को जिला मुख्यालय लेकर आते थे। तब तक स्थिति गंभीर हो जाती थी। इससे जान बचानी मुश्किल होती थी। इसे देखते हुए पीएचसी स्तर पर इलाज की व्यवस्था की गई है। एसकेएमसीएच में 100 बेड का पीकू वार्ड बनाने के साथ वायरोलॉजी लैब की स्थापना हुई है।
तापमान और आद्र्रता फैक्टर अहम
इस बीमारी पर शोध करने वाले एसकेएमसीएच के उपाधीक्षक व शिशु रोग विभागाध्यक्ष डॉ. गोपाल शंकर साहनी बताते हैं कि 38 से 40 डिग्री तापमान व 60 से 80 फीसद आद्र्रता जब लगातार तीन से चार दिन रहता है तो बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है। मई और जून में इस तरह की स्थिति होती है। हालांकि पिछले दो साल से मौसम का भी साथ मिल रहा।
बीमारी को लेकर चल रहा शोध
एम्स जोधपुर के शिशु रोग विभागाध्यक्ष व राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के सलाहकार डॉ. अरुण कुमार सिंह बताते हैं कि हाल के शोध में एईएस से मरनेवाले बच्चों का माइटोकॉन्ड्रिया फेल या शिथिल होने की बात सामने आई। यह समस्या एक-दो साल तक के बच्चों में अमूमन नहीं मिलती, मगर पीडि़त सौ बच्चों में यह समस्या थी। इसे ध्यान में रखकर जब इलाज का तरीका बदला गया तो लगभग 40 बच्चों की जान बचा ली गई थी। वह बताते हैं कि इस बीमारी में दूसरा महत्वपूर्ण पहलू जेनेटिक्स इफेक्ट भी है। शोध में इसे भी देखा जा रहा।