मरुआ-माछ के साथ शुरू हुआ आस्था का महापर्व जितिया

मधुबनी । मिथिलांचल के लोक आस्था का पर्व जितिया सोमवार से शुरू हो गया।

By JagranEdited By: Publish:Mon, 27 Sep 2021 11:05 PM (IST) Updated:Mon, 27 Sep 2021 11:05 PM (IST)
मरुआ-माछ के साथ शुरू हुआ आस्था का महापर्व जितिया
मरुआ-माछ के साथ शुरू हुआ आस्था का महापर्व जितिया

मधुबनी । मिथिलांचल के लोक आस्था का पर्व जितिया सोमवार से शुरू हो गया। इसमें संतान की लंबी आयु और सौभाग्य के लिए महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं। पितराईन महिलाओं को निमंत्रण देकर भोजन कराने के साथ ही यह पर्व शुरू हो जाता है। दूसरे दिन प्रात:काल में बच्चों को दही-चूड़ा खिलाकर महिलाएं जल ग्रहण करती हैं। इसके बाद पूरे दिन व रात व्रति महिलाएं जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करती हैं। मंगलवार को दिन-रात के व्रत के बाद बुधवार की शाम पांच बजे के बाद व्रति पूजा कर अपना व्रत तोड़ेंगी। इस पर्व में मरुआ-मछली का विशेष महत्व माना गया है। व्रत से एक दिन पूर्व मरुआ की रोटी और मछली खाना सौभाग्यसूचक माना गया है। इसमें भगवान जिमुतवाहन की पूजा की जाती है। स्थानीय स्तर पर इसे जितिया पर्व कहा गया है। हर वर्ष पितृपक्ष के दौरान आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को यह व्रत रखा जाता है। -------------- मरुआ-मछली की है महत्ता : आम तौर पर पूजा-पाठ में मछली को निषेध माना गया है, लेकिन जितिया पर्व में व्रत से एक दिन पूर्व मरुआ के साथ मछली खाना सौभाग्यसूचक माना गया है। जितिया को लेकर जहां मरुआ 40 से 50 रुपये किलो बिका, वहीं मछली की बिक्री भी काफी तेज रही। सुबह से ही बाजार में मछली की दुकानों पर लोगों की भीड़ जुटने लगी । ----------------- जिमुतवाहन को तेल-खैर चढ़ाने की है परंपरा : व्रत की समाप्ति पर भगवान जिमुतवाहन को तेल-खैर चढ़ाने की परंपरा रही है। भगवान को चढ़ाए गए तेल को परिवार के सभी लोग श्रद्धा के साथ लगाते हैं। इसके साथ ही झिगनी के पत्ता पर अंकुरी, खीरा आदि प्रसाद चढ़ाया जाता है। प्रसाद ग्रहण करने के बाद ही महिलाएं व्रत समाप्त करती हैं।

पौराणिक काल से मनाई जाती है जितिया : भगवान जिमुतवाहन की पूजा का पर्व जितिया पौराणिक काल से मनाई जा रही है। यह प्रथा कब और कैसे शुरू हुई इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता, पर ऐसा माना जाता है कि इस व्रत को करने से संतान-पति सहित परिवार में सौभाग्य की प्राप्ति होती है। जिमुतवाहन की पूजा की महिमा को लेकर कई प्राचीन कथाएं भी प्रचलित हैं। किवदंतियों के अनुसार राजा मलयकेतु की रानियों को यह व्रत करते देख एक श्रृंगाली और चिली ने भी यह व्रत रखा। चिली ने पूरी आस्था के साथ यह व्रत किया, लेकिन श्रृंगाली को भूख बरदाश्त नही हुई और रात में उसने खा लिया। जन्मांतर में इन दोनों का जन्म राजपरिवार में हुआ। दोनों को संतानें भी हुई पर श्रृंगाली की सभी संतानें काल का ग्रास बनती गई। तब से ही व्रति महिलाएं बिना कुछ खाए-पिये यह व्रत करती आ रहीं हैं।

पुराणों में है उल्लेख : विश्ववविद्यालय पंचांग के प्रधान संपादक ज्योतिषाचार्य पंडित रामचंद्र झा कहते हैं कि जिमुतवाहन पूजा का उल्लेख भविष्योत्तर पुराण में मिलता है। यूं तो यह पर्व अन्य क्षेत्रों में भी मनाए जाते हैं पर मिथिला क्षेत्र में यह काफी प्रचलित है और आस्था के साथ मनाया जाता है।

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