पलायन और जागरुकता ने मिटा दी दासता की लकीर

जमुई। दो दिसंबर अर्थात बुधवार को संपूर्ण विश्व अंतरराष्ट्रीय दास प्रथा उन्मूलन दिवस मनाएगा। हर स्तर पर दास प्रथा उन्मूलन का श्रेय लेने की कोशिश पहले भी होती रही है और आज फिर होगी लेकिन बड़ा सच यह भी है कि पलायन और जागरुकता ने मिलकर दास प्रथा की लकीर मिटा दी।

By JagranEdited By: Publish:Tue, 01 Dec 2020 06:27 PM (IST) Updated:Tue, 01 Dec 2020 06:27 PM (IST)
पलायन और जागरुकता ने मिटा दी दासता की लकीर
पलायन और जागरुकता ने मिटा दी दासता की लकीर

जमुई। दो दिसंबर अर्थात बुधवार को संपूर्ण विश्व अंतरराष्ट्रीय दास प्रथा उन्मूलन दिवस मनाएगा। हर स्तर पर दास प्रथा उन्मूलन का श्रेय लेने की कोशिश पहले भी होती रही है और आज फिर होगी, लेकिन बड़ा सच यह भी है कि पलायन और जागरुकता ने मिलकर दास प्रथा की लकीर मिटा दी। श्रेय लेने की इस प्रतिस्पर्धा में जाने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि दास प्रथा के कितने स्वरूप थे और समाज से पूरी तरह समाप्त कब हुआ। वैसे दासता की जंजीर तैयार करने की कोशिश करने वालों की कमी अब भी नहीं है लेकिन वक्त इसकी इजाजत नहीं देता है। यही वजह है कि वैसी मानसिकता के लोग या तो सहम जाते हैं या फिर परिणाम की कल्पना कर ठहर जाते हैं।

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अंग्रेजों की विदाई के साथ ही शुरू हो गई थी मुखालफत

देश में दास प्रथा अंग्रेजों के शासन काल में सर्वाधिक था और उनकी विदाई के साथ ही इसके उन्मूलन के लिए उक्त कुरीति के खिलाफ मुखालफत आरंभ हो गई थी, लेकिन बाद के दौर में जमींदारी प्रथा, सामंतवाद, पूंजीवाद एवं जातिवाद की जकड़न से इस कुरीति को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका। वक्त और परिस्थितियां बदली। कई स्तर पर आंदोलन, जागरुकता एवं कानून का असर हुआ। बावजूद इसके 90 के दशक तक बंधुआ मजदूरी कायम रहा। सवैया और डेवढि़या से एक बड़े तबके का गुजर-बसर होता था और बदले में उन्हें बंधुआ मजदूर के रूप में गुलामी की जंजीर से बंधा रहना पड़ता था।

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आंदोलन, जागरुकता और कानून ने थामी लगाम

पूंजीवादी और सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जिला सचिव नवल किशोर सिंह कहते हैं कि दास प्रथा की लगाम आंदोलन, जागरुकता और कानून ने थामी। बंधुआ मजदूरी तो अभी हाल के दिनों तक समाज में अभिशाप बना था। सच तो यह है कि मजदूरों का पलायन इस प्रथा को समाप्त करने में अहम कारक बना। तब 10 कट्ठा और एक बीघा जमीन मजदूरों को जागीर में देकर सालों भर डेढ़ सेर अनाज की मजदूरी पर काम लिया जाता था। मजदूर जब बाहर काम करने लगे तो उनकी आर्थिक समृद्धि बढ़ी और वे आत्मनिर्भर होने लगे। किसानों से निर्भरता कम हुई तो बंधुआ मजदूरी भी स्वत: समाप्त होती चली गई। नवल सिंह मानते हैं कि तमाम कुरीतियों के पीछे गरीबी, अशिक्षा और चंद लोगों की ओछी मानसिकता ही मूल वजह होती है। इसलिए हमें हर हाल में समाज को शिक्षित और समृद्ध करना होगा।

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