कैमूर की मां मुंडेश्‍वरी का दर्शन कर करें नए साल की शुरुआत, विश्‍व के प्राचीन मंदिरों में से एक है यह

कैमूर जिले में स्थित माता मुंडेश्‍वरी का मंदिर आस्‍था का केंद्र है। नव वर्ष के पहले दिन माता का दर्शन कर लोग साल की शुरुआत करते हैं। यह देश के प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसे युनेस्‍को की सूची में शामिल कराने का प्रयास चल रहा है।

By Vyas ChandraEdited By: Publish:Fri, 01 Jan 2021 08:41 AM (IST) Updated:Fri, 01 Jan 2021 08:41 AM (IST)
कैमूर की मां मुंडेश्‍वरी का दर्शन कर करें नए साल की शुरुआत, विश्‍व के प्राचीन मंदिरों में से एक है यह
मंदिर में स्‍थापित माता मुंडेश्‍वरी की प्रतिमा। जागरण अार्काइव

जासं, भभुआ। कैमूर जिले के भगवानपुर प्रखंड में स्थित माता मुंडेश्‍वरी का मंदिर इतिहास के प्राचीन मंदिरों में से एक है। यह मंदिर बिहार के साथ ही देश के सबसे प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। माता का मंदिर भगवानपुर अंचल के रामगढ़ गांव अंतर्गत पवरा पहाड़ी पर लगभग 608 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह पुरातात्विक धरोहर के साथ ही धर्म एवं आध्‍यात्‍म का प्रमुख केंद्र है। मां मुंडेश्‍वरी मंदिर में भगवान शिव का एक पंचमुखी शिवलिंग है। कहा जाता है कि इसका रंग सुबह, दोपहर और शाम को अलग-अलग दिखाई देता है। मंदिर का अष्टाकार गर्भगृह इसके निर्माण से अब तक कायम है। मंदिर के बाहर दक्षिण में नंदी स्थापित है। इसके साथ ही मंदिर के बाहर चारों तरफ मंदिर का ऊपरी हिस्सा का अवेशष बिखरा पड़ा हुआ है।

इस मंदिर को कब और किसने बनाया, यह दावे के साथ कहना कठिन है, लेकिन यहां से प्राप्‍त शिलालेख के अनुसार माना जाता है कि उदय सेन नामक क्षत्रप के शासन काल में इसका निर्माण हुआ था। यह मंदिर अष्टकोणीय है। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से संरक्षित मुंडेश्वरी मंदिर को लेकर कई योजनाएं बनाई गई है। इसे यूनेस्को की लिस्ट में भी शामिल करवाने का प्रयास जारी हैं। मंदिर को वर्ष 2007 में बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद ने अधिग्रहित कर लिया।

अहिंसक बलि की अनूठी प्रथा है इस मंदिर की

मां मुंडेश्‍वरी मंदिर में बलि की अनूठी प्रथा है।  यहा पर बगैर एक बूंद खून गिरे चावल के अक्षत व मंत्र से बकरे की बलि दी जाती है। लोगों का मानना है कि मन्नत पूरी होने पर लोग मनौती वाले पशु (बकरे) को लेकर मां के दरबार में पहुंचते हैं। मंदिर के पुजारी उस बकरे को मां के सामने खड़ा कर देते हैं। पुजारी मां के चरणों में चावल का अक्षत व पुष्प चढ़ा उसे पशु पर फेंकते हैं तो बकरा बेहोश हो जाता है। तब मान लिया जाता है कि बलि की प्रक्रिया पूरी हो गई। इसके बाद उसे श्रद्धालु को सौंप दिया जाता है।

शक्तिपीठ में शामिल है मां मुंडेश्‍वरी स्‍थान

मान्यता है कि मध्य युग में ही यहां उपासना शुरू हो गई थी। यह देश के शक्तिपीठों में से एक है। यहां मां मुंडेश्‍वरी की विभिन्न रूपों में पूजा की जाती है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार इस इलाके में अत्याचारी असुर मुंड रहता था। उस असुर से सभी लोग परेशान रहते थे। मां भगवती द्वारा उस अत्याचारी राक्षस का वध किया गया।तब से देवी का नाम मुंडेश्‍वरी पड़ गया।

19 सौ सालों से चली आ रही पूजा की परंपरा  

यहां पर पूजा की परंपरा 1900 सालों से अविच्छिन्न चली आ रही है। आज भी यह मंदिर पूरी तरह जीवंत है। वर्ष भर यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।  1838 से 1904 ई. के बीच कई ब्रिटिश विद्वान व पर्यटक यहाँ आए थे। प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रांसिस बुकनन भी यहां आए थे। मंदिर का एक शिलालेख कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में है। पुरातत्वविदों के अनुसार यह शिलालेख 349 ई. से 636 ई. के बीच का है। इस मंदिर का उल्लेख कनिंघम ने भी अपनी पुस्तक में किया है। उसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कैमूर में मुंडेश्‍वरी पहाड़ी है, जहां मंदिर ध्वस्त रूप में विद्यमान है।

गड़ेरिये ने की थी मंदिर की खोज

कथा है जब कुछ गडरिये पहाड़ी के ऊपर अपने पशुओं को चराने गए थे तो उसी समय मंदिर के स्वरूप को देखा था।  प्रारम्भ में पहाड़ी के नीचे निवास करने वाले लोग ही इस मंदिर में दीया जलाते और पूजा-अर्चना करते थे। शिलालेख से अनुमान लगाया जाता है कि यह आरंभ में वैष्णव मंदिर रहा होगा, जो बाद में शैव मंदिर हो गया तथा उत्‍तर मध्‍ययुग में शाक्‍त विचारधारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणत हो गया। मंदिर की प्राचीनता का आभास यहां मिले महाराजा दुत्‍तगामनी की मुद्रा से भी होता है। बौद्ध साहित्य के अनुसार वह अनुराधापुर वंश का था और ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका का शासक रहा था।

नव वर्ष तथा हर त्योहार पर लगती है भीड़  

पवरा पहाड़ी के शिखर पर स्थित मां के मंदिर तक पहुंचने के लिए दो तरह के रास्ते हैं। ‌एक सड़क के माध्यम से जो पहाड़ी को काट कर बनाया गया है।‌ दूसरा सीढ़ियों से। पहाड़ को काट कर सीढियां व रेलिंग युक्त सड़क बनाई गई है।  सड़क मार्ग द्वारा कार, बोलेरो, स्कॉर्पियो, बाइक आदि वाहन से पहाड़ के ऊपर मंदिर तक पहुँच सकते है।

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