डेहरी में हाशिए पर हस्तकला के कारीगर, बांस की बनी वस्तुओं से चला रहे जीविका; उम्‍मीद नहीं छोड़ी

बांस से बनी वस्तुओं को बना कर अजा परिवार के कई सदस्य अपनी जीविका चला रहे हैं। स्थानीय आइटीआइ के समीप धूपघड़ी के पास समाज के लगभग 25 परिवारों के 150 सदस्य आज भी अपने पुश्तैनी धंधे से जुड़े हुए हैं।

By Prashant KumarEdited By: Publish:Sun, 24 Oct 2021 04:35 PM (IST) Updated:Sun, 24 Oct 2021 04:35 PM (IST)
डेहरी में हाशिए पर हस्तकला के कारीगर, बांस की बनी वस्तुओं से चला रहे जीविका; उम्‍मीद नहीं छोड़ी
बाजार में बिक रही बांस से बनी वस्‍तुएं। सांकेतिक तस्‍वीर।

संवाद सहयोगी, डेहरी आनसोन (सासाराम)। बांस से बनी वस्तुओं को बना कर अजा परिवार के कई सदस्य अपनी जीविका चला रहे हैं। स्थानीय आइटीआइ के समीप धूपघड़ी के पास समाज के लगभग 25 परिवारों के 150 सदस्य आज भी अपने पुश्तैनी धंधे से जुड़े हुए हैं। बांस से बने वस्तुओं को बेचकर परिवार का भरण पोषण करते हैं। इनके रोजगार का एकमात्र साधन भी यही है। गत वर्ष कोरोना के कारण छठ व्रतियों की संख्या में कमी के बाद इनका धंधा मंदा पड़ गया था, इसबार बाजार में उत्साह देख इन सामग्री की बिक्री बढऩे की संभावना प्रबल हो गई है।

टोले के सुनील राम, संगीता देवी, मुन्नी देवी, मीरा देवी, सरस्वती देवी, बिगनी देवी व सुमन देवी समेत अन्य ने इस स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षण लिया है। इनके अनुसार बांस से बनी वस्तुओं को बेचने में परेशानी नहीं होती है, मुख्य समस्या है, उचित दाम की। विकल्प के अभाव में उन्हें औने-पौने दाम पर ही उन सामान को को बेचना पड़ता है।

नहीं मिल रहा उचित दाम

बस्ती के नरेंद्र राम, अक्षय राम आदि का कहना है कि बांस खरीद कर उससे बने वस्तुओं को व्यापारियों के पास भेजते हैं। एक बांस की कीमत 50 से 90 रुपये तक होती है। लागत के हिसाब से वस्तु का सही मूल्य नहीं मिल पाता है, जिससे परिवार चलाने में समस्या होती है। यदि सरकार या कोई एजेंसी उनकी बनाई गई वस्तुओं को उचित मूल्य देकर खरीद ले तो काफी मदद मिलेगी। बैंकों से ऋण मिलता तो काम करने के लिए मशीन की खरीदारी करते, लेकिन डेहरी प्रखंड में बैंकों से ऋण मिलना कठिन काम है।

छठ महापर्व को देख सूप-दउरा का हो रहा निर्माण

छठ महापर्व को देखते हुए कारीगर सुबह से शाम तक सूप और दौरा का निर्माण कर रहे हैं। बाजार में उनकी काफी मांग है। बड़े व्यापारी उनसे औने-पौने दाम पर सूप व दउरा खरीद लेते हैं और बाजार में ऊंची कीमतों पर बेचते हैं। कारीगरों की मजबूरी है कि उन्हें तत्काल पैसों की जरूरत होती है और इसीलिए सस्ती कीमतों पर सामग्री बेचने को विवश होते हैं।

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