Gaya PitruPaksha Mela: सात दशक पहले पितृपक्ष में गुरु-शिष्य परंपरा का होता था निर्वहन

गुरुचरण पूजा के बिना लोग पिंडदान नहीं करते थे। पिंडदान के बाद तीथर्यात्री का विदाई होता था। गुरु के आर्शीवाद के बिना तीर्थयात्री घर नहीं लौटते थे। आर्शीवाद को ही सुफल माना जाता था। गुरु का चरण पूजन नारियल और दक्षिणा चरण पर रखकर किया जाता था।

By Sumita JaiswalEdited By: Publish:Wed, 15 Sep 2021 06:33 AM (IST) Updated:Wed, 15 Sep 2021 06:33 AM (IST)
Gaya PitruPaksha Mela: सात दशक पहले पितृपक्ष में गुरु-शिष्य परंपरा का होता था निर्वहन
गुरु के आशीर्वाद के बगैर पिंडदान नहीं होता था शुरू, सांकेतिक तस्‍वीर।

गया, जागरण संवाददाता। सात दशक पहले पितृपक्ष में पिंडदान व कर्मकांड में गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन होता था। गुरु के आदेश के बिना पिंडदानी अपने पितरों की मोक्ष की कामना को लेकर कर्मकांड नहीं करते थे। उक्त बातें 95 वर्षीय गयापाल पुरोहित गंगा विष्णु गुप्त पीतल किबाड वाले का कहना है। उन्होंने कहा कि गुरुचरण पूजा के बिना लोग पिंडदान नहीं करते थे। पिंडदान के बाद तीथर्यात्री का विदाई होता था। गुरु के आर्शीवाद के बिना तीर्थयात्री घर नहीं लौटते थे। आर्शीवाद को ही सुफल माना जाता था। गुरु का चरण पूजन नारियल और दक्षिणा चरण पर रखकर किया जा था। उसके बाद ही पिंडदानी को कर्मकांड करने का आदेश दिया जाता था।

गुरु देते थे पुरोहित

कर्मकांड करने के लिए गुरु द्वारा पुरोहित दिया जाता था। जो पिंडदानियों को पिंडवेदी के पास ले जाकर कर्मकांड करते थे। पिंडदानी पैदल चलकर पिंडवेदी के पास पहुंचते थे। जहां अपने पितरों की मोक्ष की कामना को लेकर पिंडदान एवं तर्पण करते थे। कर्मकांड का विधि-विधान में किसी तरह के बदलाव नहीं हुआ है। पितृपक्ष में जो पहले कर्मकांड होता था वह आज भी हो रहा है।  जबकि कई अन्‍य चीजों में काफी बदलाव हुआ है।

 गयापाल पुरोहित के घरों में रहते थे पिंडदानी

गयापाल पुरोहित बताते हैं कि कर्मकांड को लेकर जो पिंडदाननी गया में आते थे वह गयापाल पुरोहित के घरों में रहते थे। साथ ही जमीन पर एक चटाई बिछाकर सोते थे। सुबह से शाम तक कर्मकांड करते थे। पिंडदानी पूरी तरह से साधुओं के सामान सादे जीवन में रहते थे। सादगी में रहकर तीन, सात, 15 या 17 दिनों का काम का कर्मकांड पितृपक्ष में करते थे। कर्मकांड की विधि संपन्न होने के बाद तीर्थयात्री दान में गयापाल पुरोहतों को रुपये-पैसे के अलावा सोना, चांदी, जमीन एवं पेड़ दान में देकर सुफल का आर्शीवाद प्राप्त करते थे और अपने घरों को रवाना हो जाते थे।

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