गया में खूब जमा काव्य संध्या का रंग- रिश्तों व मौसम से लेकर देश व किसानों के के दर्द तक गई बात
बिहार के गया के हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन में काव्य संध्या का रंग जमा। इसमें रिश्तों मौसम व देश की बात हुई तो किसानों के के दर्द को भी बखूबी उकेरा गया। ऐसे में आश्चर्य नहीं की श्रोता देर रात तक जमे रहे।
गया, जागरण संवाददाता। गया जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन स्थित डॉ. मंजु करण सांस्कृतिक सभागार में काव्य संध्या का आयोजन किया गया। इसकी अध्यक्षता उप सभापति अरुण हरलीवाल ने की। संचालन खालिक हुसैन परदेसी ने किया। मुख्य अतिथि के रूप में बज्मे राही के अध्यक्ष जनाब गुफरान असरफी ने अपनी उपस्थिति दर्ज की। काव्य संध्या का आरंभ करते हुए उन्होंने अपनी कविता में चिंता जताते हुए कहा- 'रिश्ते दूर, दीवारें गूंगी हो गईं।' अंत मे महामंत्री ने सभी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।
नदी, पर्वत, ये नजारे, लगते हैं कितने प्यारे'
काव्य संध्श में पंकज कुमार अमन ने इन शब्दों प्रकृति के सौंदर्य को वर्णित किया- 'नदी, पर्वत, ये नजारे। लगते हैं कितने प्यारे।' विष्णु पाठक ने अपनी कविता में सिंधु घाटी की सभ्यता, अर्थात् भारत की मूल संस्कृति को उदघाटित किया। चन्द्रदेव प्रसाद केशरी एवं डॉ राम परिखा सिंह ने भक्ति भाव से पूर्ण गीत गाया। नन्द किशोर सिंह ने 'चीन की चुनौती' शीर्षक कविता का पाठ कर राष्ट्र प्रेम को प्रकट किया तो गजेन्द्र लाल अधीर ने अपनी कविता 'रे भंवरा, श्याम सदृश तू भी' का पाठ किया।
मौसम के रंग के साथ भारत भूमि भी
मुद्रिका सिंह ने अपनी मगही कविता में मौसम के रंग रस को प्रस्तुत किया- 'सरसो तीसी मटर फुलाएल आमवो हे मोजराएल। झूम रहल गोहमा के बाली, महुआ हे कोचिआयल।' डॉ. प्रकाश गुप्ता ने भारत भूमि की खूबियों का बखान अपने अंदाज में किया तो उदय सिंह ने अपनी कविता में महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे उठाए और सरकार पर सवालों के गोले दागे। जयराम कुमार सत्यार्थी ने 'कलम की पुकार' शीर्षक ओज भरी कविता का पाठ कर सबकी वाहवाही हासिल की। अभ्यानंद मिश्र ने अपने समय की विडंबनाओं को इंगित किया- 'सत्यव्रती का मूल्य नहीं है, फटेहाल है जीवन उसका।' डॉ. राकेश कुमार सिन्हा रवि ने अपने गृहनगर के प्रति अशेष प्रेम को शब्द दिये। वरिष्ठ कवि रामावतार सिंह ने ऋतुराज वसन्त के आगमन पर अपनी सरस-कोमल अनुभूतियों को प्रकट करते हुए कहा- 'जन-जन हृदय में प्रेम सौरभ का नया उल्लास है। अनुराग वैभव सरस गीतों से भरा मधुमास है।'
किसान का दर्द भी दिखा कविताओं में
प्रो. शैलेन्द्र मिश्र शैल ने अपनी मगही कविता में वसन्त के प्रभाव को रेखांकित करते हुए कहा- 'रोगी-दुखिया-बूढ़-पुरनिया के हावा-पानी भी बदल गेल।' खालिक हुसैन परदेसी ने कहा- 'लग गई कई सदियां उन्हें मनाने में।' महामंत्री सुमन्त ने किसानों के दर्द को शब्द देते हुए कहा- 'हम किसान अन्नदाता केवल नाम के। हम तो रहते भरोसे राम के।' अतिथि कवि गुफरान अशरफी ने कहा- 'हाथ में जाम लेके क्या करते, खुद पे इल्जाम लेके क्या करते। जान निकलती तो मेरी शिद्दत से, प्यास का नाम लेके क्या करते।' अरुण हरलीवाल ने उत्पादक श्रम से जुड़े जनों से कहा- 'खटते खेतों बीच रहे हम, इसीलिए क्या नीच रहे हम। सहते-सहते सदियां बीतीं, यूं ना मुट्ठी भींच रहे हम।'