पहले क्या शानदार मजा था, एक महीना पहले से होती थी होली की तैयारी
मोतिहारी। होली आपसी भाईचारा सछ्वावना व मेल मिलाप का त्योहार है। एक समय था जब लोगों को शि
मोतिहारी। होली आपसी भाईचारा, सछ्वावना व मेल मिलाप का त्योहार है। एक समय था जब लोगों को शिद्दत से इस पर्व का इंतजार रहता था। होली के महीनों पहले से मंदिर व बथानों पर फगुवा के गीत गाये जाते थे। विशेषकर ग्रामीण इलाकों में होली की छटा देखते ही बनती थी। समय बीतने के साथ अब ये परम्पराएं विलुप्ति के कगार पर हैं। अब तो आलम यह है कि इस त्योहार पर बस औपचारिकता निभाई जाती है। युवाओं को होली के परंपरागत गीतों से ज्यादा फिल्मी गाने भाने लगे हैं।
सुप्रसिद्ध कवियत्री व शिक्षाविद डॉ. मधुबाला सिन्हा कहती है कि ़फाग के रंग होली आने के ह़फ्तों पहले से फिजाओं में घुल जाते थे। होली के गीत वातावरण में गुंजायमान रहते थे। हमलोग सहेलियों के साथ जमकर धमाल मचाते थे। होली के दिन टोलियों में घर-घर जाकर रंग खेलते थे। अब पता ही नहीं चलता कि कब होली आ गई और कब चली गई। टीवी, मोबाइल ने भारतीय त्योहारों का महत्व ही सीमित कर दिया है। लोग एक-दूसरे से मिलने की बजाय अब घर के अंदर रहना पसंद करते हैं।
व्यवसायी सह समाजसेवी राजेश केडिया कहते हैं पहले की होली की बात ही अलग होती थी। पुराने लोग चौराहों पर बड़े-बड़े कड़ाहे रखते थे और लाल-पीले रंग का घोल तैयार करते थे। बड़े मैदान में मिट्टी सानकर कींचड़ बनाया जाता था। पूरे चौराहे को सजाया जाता था। सैकड़ों की तादाद में लोग एकत्रित होते थे, बड़े और बच्चे सभी सम्मिलित होते थे। अब तो होलिका दहन भी महज औपचारिकता बनकर रह गई है।
इनरव्हील क्लब व निस्वार्थ फाउंडेंशन की समाजसेवी चंदा वर्मा कहती है कि हमारे जमाने की होली साधारण होती थी पर बहुत ही मजेदार। हम सब जमकर रंग खेलते थे। रंग का सिलसिला पूरे दिन चलता था। हर उम्र के लोग अपने-अपने ग्रुपों में होली खेलते थे। इस होली में पूरे समाज के लोगों को शामिल किया जाता था। अब चीजें बदल गई हैं। आलम यह है कि लोग अपने परिवार के लोगों को भी इस त्योहार में ठीक से शामिल नहीं करते।
दवा के थोक व्यवसायी मनीष भूषण उर्फ राज : हम लोग एक महीने पहले से ही होली की तैयारी करने लगते थे। लोग बड़ी होलिकादहन के लिए एक से दो टन लकड़ियां एकत्रित करते थे। यहां तक कि घरों में रखी लकड़ियों की चोरी भी की जाती थी। होलिका दहन पर बच्चों, युवाओं, महिलाओं और बुजुर्ग की टोली रातभर होलिका के दर्शन करने पहुंचती थी। होलिका दहन के समय लोग फाग गाते थे। अब ये सब देखने को ही नहीं मिलता। आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज हमारी परम्पराएं पीछे छूटती जा रही हैं।
व्यवसायी रामदर्शन सिंह : पहले हमलोग होली के लिए विशेष तैयारी करते थे। हर मोहल्ले में टोलियां बनती थीं। होलिका दहन की तैयारी होती थी। लकड़ी इकठ्ठा की जाती थी। होलिका को जतन से सजाया जाता था। होलिका दहन के समय नगडिय़ा और ढपली बजाकर फाग गाई जाती थी। दूसरे दिन सुबह से ही रंग लिए टोलियां मोहल्ले-मोहल्ले घूमती थीं। पूरे दिन हुड़दंग का माहौल रहता था। आजकल तो लोगों में जैसे उत्साह ही नहीं रह गया है।