सिमरी में उपेक्षा के दौर से गुजर रहा हस्तकरघा उद्योग

बक्सर जिस चरखे को चला राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश में स्वदेशी आंदोलन का बिगुल फूंका था।

By JagranEdited By: Publish:Thu, 22 Jul 2021 05:01 PM (IST) Updated:Thu, 22 Jul 2021 05:01 PM (IST)
सिमरी में उपेक्षा के दौर से गुजर रहा हस्तकरघा उद्योग
सिमरी में उपेक्षा के दौर से गुजर रहा हस्तकरघा उद्योग

बक्सर : जिस चरखे को चला राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश में स्वदेशी आंदोलन का बिगुल फूंका था। वही चरखा व इससे संचालित हस्तकरघा उद्योग जिले के सिमरी प्रखंड में अंतिम सांसें गिन रहा है। व्यवसाय से जुड़े बुनकरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है और दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद भी इन्हें दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल हो रहा है। दरअसल, समय के साथ हस्तकरघा उद्योग में तकनीकी बदलाव के लिए सरकारी मदद नहीं मिलने से यह स्थिति उत्पन्न हुई है।

अब चरखे पर सूत काट इसे चादर, कंबल और दरी का शक्ल देने वाले बुनकरों के कद्रदान भी नहीं बचे हैं। लिहाजा घंटों की कड़ी मेहनत के बाद तैयार हुए कंबल व चादर जैसे गर्म कपड़ों को औने-पौने दामों में बेचना इनकी मजबूरी है। हालांकि, पिछले साल जिला पदाधिकारी राघवेंद्र सिंह द्वारा धनहा गांव में संचालित हस्तकरघा उद्योग का जायजा लिया गया था। इस दौरान उन्होंने बुनकरों के द्वारा कड़ी मेहनत करके तैयार किए जा रहे कंबल निर्माण कार्य को देख न सिर्फ इसे कुटीर उद्योग का दर्जा दिलाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर प्रयास करने का आश्वासन दिया था बल्कि तैयार किए गए कंबल की खरीदारी करने हेतु अधिकारियों को निर्देशित किया था। डीएम के आदेश के आलोक में 538 कंबलों की खरीदारी भी हुई। मगर उसके बाद किसी ने बुनकरों की सुध नहीं ली।

धनहां में आज भी सुनाई देती है चरखे की आवाज

प्रखंड मुख्यालय से करीब सात किमी दूर मझवारी पंचायत के धनहां गांव में आज भी गड़ेरियों के 15-20 कुनबे इस परंपरागत व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। वे लोग खुद ही भेड़ पालते हैं और उनके बाल उतार उसकी धुनाई कर गांव में ही चरखे से सूत तैयार करते हैं। उसी सूत से हस्त संचालित करघे के जरिए चादर व कंबल तैयार किये जाते हैं। हालांकि, गांव में गड़ेरिये के करीब साठ परिवार हैं। लेकिन, दो तिहाई परिवार अपने पुश्तैनी धंधे से मुंह मोड़ कर रोजी-रोटी के लिए अन्य प्रदेशों की ओर रुख कर चुके हैं।

ऐसे तैयार होते हैं चादर व कंबल

हस्तकरघा उद्योग से जुड़े विमल पाल ने बताया कि पालतू भेड़ों के बाल को कतर इसकी धुनाई कराई जाती है। धुने हुए बाल को चरखों की सहायता से सूत बनाया जाता है। जिसे सुखाने के बाद हाथ से चलाए जाने वाले करघे की सहायता से गर्म वस्त्र बनाए जाते हैं। उन्होंने बताया कि एक चादर बनाने में करीब एक से डेढ़ घंटे का समय लगता है। जबकि, कंबल बनाने में तीन से चार घंटे लग जाते हैं। इसके बाद तैयार चादर 200 रुपये में व कंबल 400 से 600 रुपये तक में बिकता है।

मूल्य के हिसाब से नहीं मिलता मजदूरी का खर्च

मूल्य के हिसाब से तो मजदूरी का खर्च भी नहीं मिल पाता है। जबकि, भेड़ों को पालने व उनके चारा का प्रबंध करने से लेकर माल तैयार करने में भी पूंजी लगती है।

सरकारी खरीद हुई बंद

हस्तकरघा से जुड़े बुनकर अपनी माली हालत के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। स्थानीय गांव के दीनदयाल पाल ने बताया कि कुछ दशक पूर्व उनके द्वारा बनाए गए कंबल को सीधे सरकार खरीदती थी। तब गांवों में खाद व ग्रामोद्योग समितियां हुआ करती थीं। जिन्हें कंबल बनाने का आर्डर मिलता था। उन्हीं के बनाए कंबल बिहार पुलिस व होमगार्ड के जवानों को ठंड से बचने के लिए दिए जाते थे।

अधिक गर्मी प्रदान करते हैं भेंड़ के बाल से निर्मित कंबल

भेड़ के बाल से निर्मित ये कंबल अन्य कंबलों की तुलना में अधिक गर्मी भी प्रदान करते हैं। मगर नब्बे के दशक से सरकारी सोच में आए बदलाव के चलते आर्डर मिलना बंद हो गया। बुनकरों को सरकार से अब भी आस

हस्तकरघा उद्योग से जुड़े बुनकरों को अब भी सरकार से आस बनी हुई है। मोहन जी पाल ने कहा कि सरकार द्वारा भेड़ के बाल से बने कंबल नहीं खरीदने से उन लोगों का परंपरागत व्यवसाय बिखर गया है। कभी न कभी सरकार का ध्यान उन पर जरूर होगा और फिर पुराने दिन लौटेंगे। वहीं, बासगीत पाल कहते हैं कि उन लोगों की इतनी पहुंच भी नहीं है कि हस्तकरघा उद्योग के नाम पर लगी प्रदर्शनी में अपने उत्पाद को ले जा सकें। हालांकि, व्यापारी उन्हीं के उत्पाद को खरीद कर बाहर बेहतर कीमत पर बेचते हैं। प्लसमुनी पाल ने कहा कि सरकारी उदासीनता के चलते अब उनके घरों के बच्चे अब चरखे पर सूत कातने के बजाए मजदूरी करना बेहतर समझते हैं। हरिनारायण पाल ने कहा कि अब खेत भी सीमित हो रहे हैं। लिहाजा, भेड़ों को पालना पहले जैसा आसान नहीं रह गया है।

chat bot
आपका साथी