सुपौल से गायब हो रहा पारंपरिक प्रजाति के पौधे, उसके अस्तित्व पर मंडरा रहा संकट

सुपौल जिले में पीपल बरगद इमली बेल कई पुरानी प्रजातियों के आम के पेड़ कोसी के इस इलाके की खास पहचान हुआ करती थी यहां इन पेड़ों की संख्या बहुतायत में हुआ करती थी। पर आज यह विलुप्त हो रहा है।

By Amrendra TiwariEdited By: Publish:Tue, 24 Nov 2020 11:41 AM (IST) Updated:Tue, 24 Nov 2020 11:41 AM (IST)
सुपौल से गायब हो रहा पारंपरिक प्रजाति के पौधे, उसके अस्तित्व पर मंडरा रहा संकट
सुपौल जिले में पारंपरिक पेड़ पौधों के अस्तित्व पर मंडरा रहा खतरा

सुपौल, जेएनएन। बदलते समय और परिवेश के साथ ही यहां के पेड़-पौधे के प्रजातियों में भी काफी बदलाव हुआ है। कल तक जिस वृक्ष के कारण इलाके की पहचान हुआ करती थी आज उनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है। इनकी जगह नई-नई प्रजातियों के पौधों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है। कल तक पीपल, बरगद, इमली, बेल कई पुरानी प्रजातियों के आम के पेड़ कोसी के इस इलाके की खास पहचान हुआ करती थी, यहां इन पेडा़ें की संख्या बहुतायत में हुआ करती थी। अनुकूल जलवायु होने के कारण इनके पौधे को लगाने व बचाने में लोगों को खास मेहनत भी नहीं करनी पड़ती थी। इन प्रजातियों में से कई पेड़ का उपयोग धर्म, कर्मकांड के अलावा उनकी पूजा भी की जाती थी। इन पौधों की वैज्ञानिकता थी कि यह ठंडा हवा और छाया देने के साथ-साथ ऑक्सीजन का बहुत बड़ा उत्सर्जक होता था। परंतु बदलते समय के साथ जब से पौधे का बाजारीकरण और मुद्रीकरण की प्रचलन की शुरुआत हुई है तब से ही पारंपरिक इस पौधे पर ही खतरा आ गया है। आज स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि अब इस इलाके में इन पौधों को खोजने से भी नहीं मिल पा रहा है। इसकी जगह वैसे पौधे ने ले लिया है जो कम समय में अधिक आय देती है। इधर लोगों की मंशा भांप सरकारी और निजी नर्सरी से भी इन पौधों का नामोनिशान मिट जा रहा है।

फलदार पौधे पर भी बाजार की लगी नजर

कोशी का यह इलाका कई फलदार वृक्षों के लिए मशहूर हुआ करता था। जिसमें खास तौर पर आम, बरगद, इमली जैसे पौधे काफी मशहूर थे। इस तरह के वृक्षों से फल के साथ-साथ लकड़ी का उपयोग फर्नीचर तैयार करने में किया जाता था। खासकर आम के लिए तो इस इलाके की पहचान हुआ करती थी। यहां बंबईया, मालदह, गुलाब खास, कलकतिया, रामभोग, कृष्णभोग आदि प्रजाति के आम उगाए जाते थे। यहां के आमों की खूबियां इस तरह थी कि अन्य राज्यों से व्यापारी यहां से आम का व्यापार कर दूसरे राज्य ले जाते थे। इन वृक्षों के संरक्षण में भी किसानों को कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। बड़े-बड़े पौधे होने के कारण इनका उपयोग फल के अलावा लकडिय़ों में भी किया जाता था। परंतु बदलते समय के साथ अपनी मिट्टी में उपजे इन आमों का विलोपन इतनी तेजी से हुआ कि अब महज कुछ जगहों तक ही सीमित होकर रह गया है। लोगों पर बाजारीकरण का ऐसा भूत चढ़ा कि इन वृक्षों की जगह कम समय और अधिक मुनाफा देने वाले पौधों को लगाने में लोगों ने रुचि ले ली। इस इलाके में भी अब हाइब्रिड और बौना किस्म के प्रजातियों के फलदार वृक्ष लगाए जाने लगे हैं। परिणाम है कि अन्य वातावरण में पले-बढ़े इन किस्मों के पौधा को बचाने में लोगों को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। हालांकि इन फलदार वृक्षों में न वह स्वाद होता है और न ही इन वृक्षों का उपयोग लकड़ी के रूप में संभव हो पाता है। हालांकि फल अधिक लगने के कारण लोगों को मुनाफा दिखाई पड़ता है। इसी तरह लकड़ी वाले पौधों का भी हाल है। शीशम, महुआ, जामुन, सखुआ आदि की जगह नए-नए प्रजाति के पौधे महोगनी, कदम आदि ने ले लिया है। जो कम समय में ही बड़ा होकर लोगों को मुनाफा दे रहे हैं।

पुराने किस्मों के पौधों से लोगों का टूटता जा रहा मोह

पुराने किस्म के पौधों से जिले के किसानों का मोह भंग होता जा रहा है। किसानों का मानना है कि अब यहां की जलवायु पुरानी प्रजातियों के पौधे के लिए उपयुक्त नहीं है। एक तो पुराने किस्म के पौधे को तैयार होने में बहुत अधिक दिनों का समय लगता है। वहीं बाजार में भी इसकी मांग कम होने के कारण मुनाफा नहीं मिल पाता है। इस संबंध में जिला वन पदाधिकारी सुनील कुमार शरण ने बताया कि पुराने किस्म के पौधे गुणों से भरपूर है। परंतु बदलते जलवायु व पौधे का हो चुका बाजारीकरण के कारण नए-नए किस किस्म के पौधों को प्राथमिकता दी जा रही है। लोग भी चाहते हैं कि कम समय व कम मेहनत में उन्हें वृक्ष से आमदमी शुरू हो जाए। जिसके कारण सरकार ने भी पारंपरिक पौधों की जगह नए प्रजातियों के पौधे को प्राथमिकता दी जा रही है।

कहते हैं पर्यावरणविद

वनस्पति विज्ञान के प्रो. डॉ. केके सिंह की माने तो पृथ्वी पर मौजूद पौधे की हर एक प्रजाति हमारे अस्तित्व के लिए बेहद जरूरी है। अगर हम कहें कि हम इनका संरक्षण नहीं करेंगे तो मेरे लिए इसका मतलब होगा कि हम अपनी दुनिया को खोने जा रहे हैं। कहा कि यहां के पारंपरिक प्रजाति के पौधे के विलोपन से यहां के पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा है। खासकर वैसे जीव जो यहां के पारंपरिक किस्म के पौधों पर आश्रित था, उनका विनाश हुआ है जो पर्यावरण के लिए शुभ संकेत नहीं है। हमें चाहिए कि पुराने किस्मों के पौधे को संरक्षित करें और नए किस्म के पौधे को भी लगाएं।

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