अतीत का हिस्सा बन कर रह गई कैथी लिपि, 15-20 साल पहले तक काफी लोग थे इसे पढऩे वाले, अब ढूंढऩा भी हुआ मुश्किल

कैथी लिपि में लिखी भूमि से संबंधित कई अभिलेख कई लोगों के घरों में आज भी मौजूद हैं जिसे पढ़वाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। कैथी जिसे कयथी के नाम से भी जाना जाता है और एक पौराणिक लिपि भी है।

By Dilip Kumar ShuklaEdited By: Publish:Mon, 26 Oct 2020 03:56 PM (IST) Updated:Mon, 26 Oct 2020 03:56 PM (IST)
अतीत का हिस्सा बन कर रह गई कैथी लिपि, 15-20 साल पहले तक काफी लोग थे इसे पढऩे वाले, अब ढूंढऩा भी हुआ मुश्किल
कैथी लीपी को पढऩे वाले भी गाहे-बगाहे ही मिलते हैं।

सुपौल, जेएनएन। मिथिला क्षेत्र में कभी धड़ल्ले से प्रयोग होने वाली कैथी लिपि गुमनामी के अंधेरे में गुम हो अतीत का हिस्सा बन गई है। इस लिपि के संरक्षण की बात तो छोड़ दें, अब इसे पढऩे वाले भी गाहे-बगाहे ही मिलते हैं। कैथी लिपि में लिखी भूमि से संबंधित कई अभिलेख कई लोगों के घरों में आज भी मौजूद हैं जिसे पढ़वाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। कैथी, जिसे कयथी के नाम से भी जाना जाता है और एक पौराणिक लिपि भी है। कभी यह लिपि मिथिला के साथ-साथ पूर्ववत्र्ती उत्तर-पश्चिम प्रांत, बंगाल, उड़ीसा व अवध में काफी प्रचलित थी। कहा जाता है कि कैथी की उत्पत्ति कायस्थ शब्द से हुई है। कायस्थ जाति के लोग राजा-रजवाड़ों व ब्रिटिश शासकों के यहां विभिन्न प्रकार के आंकड़ों का प्रबंधन व भंडारण का काम किया करते थे। इन आंकड़ों के प्रबंधन व भंडारण में प्रयुक्त की जाने वाली लिपि बाद में कैथी लिपि के नाम से जाना जाने लगा। इस लिपि का प्रयोग 16वीं सदी में धड़ल्ले से होता था। मुगल सल्तनत के समय भी इसका प्रयोग व्यापक स्तर पर होता था। 1880 के दशक में ब्रिटिश शासन के समय प्राचीन बिहार के न्यायालयों में इस लिपि को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया। लोगों की माने तो पन्द्रह से बीस साल पूर्व तक इस लिपि को पढऩे वाले कई लोग थे, लेकिन वैसे लोगों में से अधिकांश अब इस दुनिया में नहीं हैं। जिला मुख्यालय निवासी संतोष कुमार दास का कहना है कि यहां शिशिर कुमार दास जो दरभंगा में गीत व नाट्य प्रभाग के असिस्टेंट डायरेक्टर थे सहित कुछ और भी लोग कैथी लिपि पढ़ते थे, लेकिन वे सभी अब इस दुनिया में नहीं हैं। जो इक्के-दुक्के हैं उनके बारे में सबको पता नहीं है। ऐसे में इस लिपि में लिखे अभिलेख खास कर जमीन से संबंधित पुराने अभिलेखों को हिन्दी अथवा अन्य भाषा में अनुवाद करवाना लोगों के लिए टेढ़ी खीर साबित होती है। वैसे काम चलाने लायक इस लिपि को पढने वाले तो कई हैं। मौजूदा समय में इस लिपि के संरक्षण की जरुरत है। वर्ना इस लिपि को भविष्य में जानने वाले कोई नहीं रहेंगे। तब लोगों को इस लिपि में लिखे गए जरूरी दस्तावेजों के लिए कई कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ेगा। 

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