हिंदी द‍िवस पर व‍िशेष: 1926 में भागलपुर में हुई थी हिंदी यात्रा की उत्पत्ति

हिंदी द‍िवस पर व‍िशेष आज 14 सितंबर को हिंदी दिवस है। 40 वर्षों तक हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए भागलपुर के कलाकारों ने 1926 में रामकृष्ण आपेरा पार्टी के नाम से देश में पहली हिंदी यात्रा पार्टी की स्थापना की थी।

By Dilip Kumar ShuklaEdited By: Publish:Tue, 14 Sep 2021 06:29 AM (IST) Updated:Tue, 14 Sep 2021 06:29 AM (IST)
हिंदी द‍िवस पर व‍िशेष: 1926 में भागलपुर में हुई थी हिंदी यात्रा की उत्पत्ति
दर्शकों में भरती थी सहभागिता, सहयोग, एकजुटता और सामाजिकता का भाव यात्रा।

भागलपुर [विकास पांडेय]। हिंदी के प्रचार-प्रसार व धर्म साहित्य के महत्व के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए भागलपुर के कलाकारों ने 1926 में रामकृष्ण आपेरा पार्टी के नाम से देश में पहली हिंदी यात्रा पार्टी की स्थापना की थी। भागलपुर के गजेटियर में भी इसका उल्लेख है। बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में करीब चालीस वर्षों तक धूम मचाने के बाद हिंदी फिल्म की चकाचौंध, महंगाई आदि के कारण 1965 में उसका अवसान हो गया था।

इसके संस्थापकों में स्थानीय चंपानगर के प्रसिद्ध कलाकार शारदा प्रसाद आचार्य, गोपाल चंद्र आचार्य, किशोरी मोहन चक्रवर्ती, जेठो शर्मा, उपेंद्र नारायण सिंह आदि शामिल थे। उसमें राधाकृष्ण संप्रदाय के मशहूर संकीर्तनाचार्य कृष्ण चंद्र आचार्य उर्फ किस्टो बाबू व प्रसिद्ध साहित्यकार हंसकुमार तिवारी का सक्रिय सहयोग मिलता था। 1926 में हिंदी यात्रा का पहला मंचन भागलपुर के चंपानगर स्थित दशभुजा दुर्गा मंदिर में हुआ था। उसमें बांग्ला लेखक गिरिश चंद्र घोष की सीता के पाताल प्रवेश कृति का हिंदी रूपांतरित नाटक का सफल मंचन किया गया था। 1927 में यहां के टीएनबी कालेज के प्रांगण में अखिल भारतीय संकीत्र्तन समारोह हुआ था। उसमें किस्टो बाबू की मौजूदगी में सीता का पाताल प्रवेश प्रवेश हिंदी यात्रा की प्रस्तुति की गई थी। उसे देखने हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। इसके संस्थापकों में से एक गोपाल चंद्र आचार्य (अब स्वर्गवास)से कुछ समय पूर्व मिली जानकारी के अनुसार पहली हिंदी यात्रा 1926 में उनके बड़े भाई शारदा प्रसाद आचार्य ने रामकृष्ण आपेरा पार्टी के नाम से खोली थी। उनके अवकाश ग्रहण पर 1944 में उसका नाम बदल कर गोपाल आपेरा पार्टी हो गया था। गोपाल चंद्र आचार्य सिद्धस्त अभिनेता व संकीर्तनाचार्य थे।

यात्रा के दौरान शाम को मंच पर पहले कीर्तन गान होता था। फिर आरती होती थी। उसके बाद भीड़ जम जाने पर हिंदी यात्रा शुरू होती थी। उनके अनुसार लोगों में शुद्ध हिंदी का प्रचार - प्रसार करने के लिए कलाकार बोलचाल की सरल हिंदी में संवाद करते थे। शब्दों के शुद्ध उच्चारण का भी ध्यान रखा जाता था। संवाद तैयार करने व प्रोम्ट करने में यदा-कदा उन्हें प्रसिद्ध लेखक हंसकुमार तिवारी का भी सहयोग मिलता था। यात्रा में मंचित नाटक प्राय: धार्म‍िक, ऐतिहासिक, सामाजिक आदि विषयों के होते थे।

इनमें कृष्ण-सुदामा, ध्रुव चरित, गयासुर, मानधाता, अनंत महात्म्य, अजामिल, मायामाया, त्रिशंकु, सुरत उद्धार , जयदेव, राजमुकुट आदि शामिल थे। यह यात्रा पार्टी बिहार के विभिन्न जिलों सहित झारखंड के कोयलांचलों, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों के विभिन्न जिलों में खासी लोकप्रिय हुई। बनारस, लखनऊ, सीतापुर आदि जिलों में एक-एक पखवारे तक हिंदी यात्रा चलती रहती थी। अधिकांश जगहों पर इसके खर्च का वहन वहां के पूर्व राजे-महाराजे व जमींदार परिवार के वारिश करते थे। लेकिन जमींदारी प्रथा के समाप्त होने, महंगाई बढऩे तथा चलचित्र के चकाचौंध से धीरे-धीरे हिंदी यात्रा के प्रति लोगों की रूझान घटती चली गई। बकौल गोपाल चंद्र आचार्य फिर भी उन लोगों ने हिंदी की सेवा सेवा की गरज से खर्च में भारी कटौती कर उसे 1965 तक चलाया। आखिरकार वह बंद हो गया।

यात्रा अभिनय प्राय: धर्म प्रधान हुआ करता था। धार्मिक कलेवर के जरिए दर्शकों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के साथ उनमें नैतिकता, शिष्टाचार, भला आचरण और कुशल गृहस्थ आश्रम की नींव मजबूत की जाती थी। वह रंगकर्म का ऐसा रूप था जो दर्शकों में सहभागिता, सहयोग, एकजुटता और सामाजिकता का भाव भरता था। इनकी आवश्यकता पहले भी थी और और आज भी है। इसलिए रचनात्मकता की दृष्टि से इस विधा की खासी अहमियत है। - डॉ. अरविंद कुमार, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर।

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