'हे गाइज, हाउ आर यू? हैप्पी हिंदी डे', विदेशी भाषा का तड़का खड़े कर रहा कई सवाल

हिंदी दिवस के दिन हे गाइज हाउ आर यू? हैप्पी हिंदी डे विश करता है तो कई सवाल जहन में उठ खड़े होते हैं। विदेशी भाषा का तड़का और रोजगार की चिंता ने आज कौन सी दिशा दिखा दी है।

By Shivam BajpaiEdited By: Publish:Mon, 13 Sep 2021 10:47 PM (IST) Updated:Mon, 13 Sep 2021 10:47 PM (IST)
'हे गाइज, हाउ आर यू?  हैप्पी हिंदी डे', विदेशी भाषा का तड़का खड़े कर रहा कई सवाल
हिंदी दिवस विशेष: संस्कृत विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. आयुष गुप्ता के विचार।

जागरण संवाददाता, भागलपुर। यह विडम्बनात्मक वाक्य आज के समय का हास्यास्पद सत्य है। उत्सव प्रिय भारतीयों ने उत्सवों और दिवसों को मनाने की परम्परा को तो भली भांति आत्मसात कर लिया, किन्तु उनके उत्सवों को वे धारण नहीं कर सके। यही वजह है कि आज भी हिंदी दिवस के मौके पर उसकी बधाईयां अंग्रेजी भाषा में मिलती है। विभिन्न माध्यमों के अलावा लोग मिलने पर 'हे गाइज, हाउ आर यू? हैप्पी हिंदी डे' कहकर संबोधित करते हैं। यह बातें तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय (टीएमबीयू) के पीजी संस्कृत विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. आयुष गुप्ता ने हिंदी दिवस पर कही।

डा. गुप्ता ने का मानना है कि संविधान ने जहां विधि के माध्यम से हिंदी के महत्व को स्वीकार किया। उसकी जागरूकता और क्रियान्वयन हेतु जिन आयोजनों की बात कही। वे केवल दिखावे और सरकारी आदेशों का अनमने ढंग से पालन करने का कारण बन सके। हिंदी से गलती यह हो गयी कि वह वैश्वीकरण की भाषा का दर्जा न ले सकी, कारण है भाषाई वैश्विक राजनीति।

आजकल केवल उत्पाद नहीं बिकता, उसके प्रचार में बोली जाने वाली भाषा भी बिकती है। भाव संचार और अभव्यक्ति महज एक गौण विषय हो चुका है, मुख्य बात है विदेशी भाषा का तड़का। जो जब तक बातचीत न हो, लोगों को लगता है कि भाव अभी भी अपूर्ण है। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में हम बड़े सहज ढंग से विदेशी भाषा के प्रयोग को औचित्यपूर्ण बता देते हैं।

हिंदी के पिछड़ने का बड़ा कारण रोजगार की चिंता है। रोजगार के इच्छुक व्यक्ति के मन में विचार आता है कि अंग्रेजी के बिना यह नौकरी नहीं मिल सकती, यह एक भाषाई गुलामी का मानसिक चिह्न है। खाना बनाने वाले, सफाई करने वाले, ड्राइवर इत्यादि की नौकरी में अंग्रेजी के ज्ञान की क्या आवश्यकता ? लोगों को इन इन प्रश्नों पर विचार करने की जरूरत है। हमें सोचना होगा कि कहीं हम भाषाई गुलामी की ओर तो नहीं बढ़ रहे।

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