Move to Jagran APP

गुरु की नगरी अमृतसर में आपका स्वागत है

दुनिया के चुनिंदा शहरों में से एक है अमृतसर जो योजनाबद्घ तरीके से बसाया गया, पर बार-बार उजड़ा और फिर आबाद हुआ। फिर भी इसके स्वभाव में वही बेफिक्री, सादगी और मस्तमौलापन है...

By Srishti VermaEdited By: Published: Thu, 13 Apr 2017 11:44 AM (IST)Updated: Fri, 14 Apr 2017 09:06 AM (IST)
गुरु की नगरी अमृतसर में आपका स्वागत है
गुरु की नगरी अमृतसर में आपका स्वागत है

अलग मिजाज का शहर है अमृतसर। इसे ‘पंजाब का दिल’ भी कहते हैं, जहां ‘पंजाबियत’ की खुशबू बिखरी हुई है। यह दुनिया के चुनिंदा शहरों में से एक है जो योजनाबद्घ तरीके से बसाया गया, पर बार-बार उजड़ा और फिर आबाद हुआ। फिर भी इसके स्वभाव में वही बेफिक्री, सादगी और मस्तमौलापन है...

prime article banner

धर्म में आस्था हो न हो, स्वर्णमंदिर में प्रवेश करते ही आप इन सारी बंदिशों से परे हो जाएंगे। इसकी स्वर्णिम आभा मंदिर परिसर से बाहर भी आपको उसी शिद्दत से महसूस होगी, जो मंदिर परिसर के भीतर बिताकर महसूस कर सकते हैं। आज भी यहां आप 17वीं-18वीं सदी में बनी पुराने अमृतसर की इमारतें देख सकते हैं। पुराने कटरे और संकरी गलियों में प्रवेश करने के बाद अतीत के उस अमृतसर में खो जाएंगे जो आजादी से पहले भारत का बड़ा व्यावसायिक केंद्र हुआ करता था। अमृतसर और लाहौर को जुड़वा शहर माना जाता था। अमृतसर किसी समय एशिया के सबसे बड़े व्यापारिक केंद्रों में से एक था। एशियाई देशों में कोई भी वस्तु वाया अमृतसर ही पहुंचती थी। गेहूं, चाय, चावल, अचार और मुरब्बे यहां तक कि साज-शृंगार का सामान भी यहां की मंडियों के माध्यम से ही अन्य देशों के व्यापार का हिस्सा बनता था। यहां के बने सामान विशेषकर गरम कपड़े, लोई, रजाई और गरम शॉल पूरे विश्व में अमृतसर के नाम से ही जाने जाते थे। स्थानीय इतिहासकार सुरिंदर कोछर बताते हैं, ‘शुरू में इसे व्यापारिक उद्देश्य से ही बसाया गया। लाहौर हमारे यहां से कुछ ही किलोमीटर दूर है। इन दोनों शहरों में दुकानों और गलियों के नाम एक जैसे थे, वे आज भी वैसे ही हैं। यहां की पंजाबी भी वही है, जो लाहौर में बोली जाती है।’ डॉक्टर हरमहेंद्र सिंह बेदी कहते हैं, ‘अमृतसर के बिना पंजाबी संस्कृति को नहीं समझा जा सकता। एशिया के देशों में पंजाब के किसी चर्चित शहर का नाम लेना हो तो अमृतसर नंबर एक पर आता है।

 

विभाजन के बाद देश के विभिन्न भागों में बसे पंजाबी आज भी लाहौर के बाद अमृतसर को ही याद करते हैं।’ यह सही है कि आज यह शहर बदल रहा है। यातायात के आधुनिक साधनों, हाइवे, रोशनियों से जब रात को यह जगमगाता है तो लगता ही नहीं कि यह कभी आतंकवाद के डरावने दृश्यों से भी भयभीत रहा होगा। सब बदल रहा है। भरावां वाले ढाबे से लेकर श्री दरबार साहिब तक का रास्ता अपनी अलग पहचान रखता है, लेकिन इस बदलाव की प्रक्रिया में भी इस शहर की विरासत हर कोने से झांकती है। डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी अमृतसर को ‘सपनों का शहर’ मानते हैं और इसके लिए सुंदर ख्वाब भी देखते हैं। वे कहते हैं, ‘हम दुनिया के सामने उस अमृतसर को लाना चाहते हैं जो प्राचीन नगरों की गरिमा को विश्व के सामने पंजाबी और भारतीय संस्कृति के नव-सोपानों के साथ स्थापित करने में समर्थ है। यहां से उठने वाली अरदास अमन और शांति का संदेश देती हुई आस्था के नए दीपों को रोशन कर सकती है।’ इसे करीब से महसूस करना चाहते हैं तो ज्यादा दूर नहीं है अमृतसर।

श्री हरिमंदिर साहिब
यहां आप सिख धर्म और संस्कृति का सबसे बड़ा संग्रहालय देख सकते हैं। इसे अलगअलग गैलरियों में ऑडियो विजुअल रूप से पेश किया गया है। मुख्य भवन में सुशोभित श्री गुरु ग्रंथ साहिब के सामने मत्था टेकना और बाहर आने की व्यवस्था भी सुनियोजित है। यहां रखे विजिटर्स बुक में लिखे कमेंट में से अधिकांश में यही लिखा रहता है, ‘यहां आकर मन को शांति मिली’ या ‘ऐसा स्वच्छ धार्मिक स्थल और कहीं नहीं देखा।’ इसे वहां खुद जाकर ही महसूस किया जा सकता है। आप एक चटाई लेकर पूरी रात स्वर्ण मंदिर यानी श्री हरिमंदिर साहिब में बिता सकते हैं। यह एक यादगार अनुभव होगा।

वाघा बॉर्डर पर देशभक्ति का रोमांच


अमृतसर से 25 किमी. दूर अटारी पोस्ट से वाघा बॉर्डर की दूरी महज तीन किलोमीटर है। निजी वाहन अटारी से आगे नहीं जा सकते। लिहाजा आगे का सफर पैदल ही तय करना था। पूरे मार्ग पर बीएसएफ जवानों की पैनी नजर थी। तीन स्थानों पर सुरक्षा जांच से गुजरने के बाद हमने ‘स्वर्ण जयंती द्वार’ से प्रवेश किया और एक जगह चुन बैठ लिए। आसमान से सूरज का ताप बरस रहा था, लेकिन माहौल में गर्मजोशी एवं सुकून था। लौह द्वार के उस पार काली वर्दी में पाकिस्तानी रेंजर्स और स्थानीय वासियों की हलचल थी, जबकि इस ओर बीएसएफ जवान अपनी तैयारियों में जुटे थे। दर्शकों में थे तमाम प्रांतों से आए हर वर्ग के लोग और विदेशी सैलानी। सूर्यास्त के समय होने वाला समारोह उन जवानों की याद से शुरू होता है, जो मातृभूमि की रक्षा करते शहीद हुए। फिर गूंजी बीएसएफ जवान की आवाज... ‘भारत माता की...जय’, ‘वंदे मातरम...’ और देखते ही देखते समूची दर्शक दीर्घा ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम’ के नारों से गूंजने लगी।

उधर, सरहद पार भी यही नजारा है। वहां के लोग अपने देश के लिए नारे लगाते हैं। दोनों तरफ के इस शोर में प्रेम दिखता है, कटुता नहीं। लौह दरवाजे खुलते हैं। दोनों ओर के जवान आगे बढ़ते हैं, आंखें मिलती हैं, सांकेतिक गुस्से का इजहार होता है और फिर हाथ मिलाकर समारोह का आगाज करते हैं। दोनों मुल्कों के राष्ट्रीय ध्वजों को नीचे करने की प्रक्रिया शुरू होती है। इस तरह वाघा बॉर्डर पर दो-तीन घंटे कैसे बीत गए, मालूम ही नहीं चला। ध्वजों को पूरे एहतियात के साथ समेट कर निर्धारित कैम्पस में पहुंचा दिया गया। इसके बाद दोबारा दोनों मुल्कों के जवानों ने हाथ मिलाया और दरवाजे बंद हो गए। क्षण भर को मन भावुक हो गया। ‘बीटिंग द रिट्रीट’ समारोह मनाने की यह परंपरा 1959 से चली आ रही है। इस दौरान यहां एक लघु भारत मौजूद होता है।

दुनिया की सबसे बड़ी लंगर का आनंद


पापड़-बड़ियों की खुशबू से पटा बाजार
‘पहले भूखे को भोजन फिर भजन’। सिख धर्म का यह संदेश यहां प्रत्यक्ष साकार होते देखा जा सकता है। आमतौर पर यहां रोजाना करीब दो लाख श्रद्घालु दर्शन के लिए आते हैं और यहां के लंगर का प्रसाद ग्रहण करते हैं। यह अपने आप में रिकॉर्ड है। लंगर तैयार होने से परोसे जाने तक की व्यवस्था बेहद सुनियोजित है। इसके बारे में सुमन सिंह कहती हैं,‘ मैंने देश के अलगअलग गुरुद्वारे में लंगर खाया है पर दरबार साहिब का लंगर स्वाद में ही नहीं, हर तरह से अलग है। जिस अनुशासन से लोग आते हैं और अपनी सेवा भी देते हैं, उस श्रद्घा को देखकर भावविभोर हो जाती हूं।’ लंगर के लिए लाखों की संख्या में रोटियां, दाल और यहां परोसा जाने वाला प्रसाद तैयार करने में इलेक्ट्रॉनिक मशीनों का प्रयोग होता है। रसोई में सैकड़ों की संख्या में सेवादार नि:शुल्क सेवा देते हैं। बाहर से आने वाले दर्शनार्थी भी सेवा देने को तत्पर रहते हैं। वे सब्जियां काटने, धोने और बनाने की प्रक्रिया में तन्मयता से जुटे होते हैं। जूठे बर्तनों को भी आधुनिक मशीनों की सहायता से धोया जाता है। अमृतसर की यादों को संजोने के लिए यहां के कुछ जाने-माने बाजारों से खरीदारी भी कर सकते हैं। पुराने बाजार कटरा के नाम से जाने जाते हैं। इनमें कटरा हरि सिंह बहुत पुराना है।

इसके अलावा कटरा कन्हैया, कटरा बगियां, कटरा रामगढ़िया आदि में पापड़, बडियां, अचार, घी, कुल्चे लेने वालों का हुजूम देखा जा सकता है। स्थानीय निवासी निधि माथुर कहती हैं, ‘अमृतसर के इन कटरों में मैं अक्सर रिक्शे पर जाती हूं। पूरे बाजार में बड़ियों और पापड़ की महक रहती है।’ हर कटरे और बाजार की अलग खासियत है। स्वर्ण मंदिर के पास गुरु बाजार की अलग-अलग लेन में पारंपरिक भारतीय ज्युलरी की खरीदारी कर सकते हैं। इसे सामान्य तौर पर ‘जड़ाउ’ गहने के रूप में जाना जाता है। हाल बाजार में अमृतसरी नान के लिए रोटियां लेने वालों की भीड़ होती है। यहीं फुलकारी और अन्य हस्तकलाओं को खरीद सकते हैं। यहां कृपाण बेचने वाली सजी दुकानें भी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। कटरा जमाल सिंह यहां का सबसे लोकप्रिय बाजार है, जहां उच्च गुणवत्ता के ऊनी कपड़े और अमृतसर में डिजाइन की जाने वाली फुलकारी मिल जाती है। काठ से बनी वस्तुएं भी यहां मिलती हैं। यहां से ब्रिटिश जमाने की चेस यानी शतरंज में इस्तेमाल की जाने वाली गोटियां भी ले सकते हैं जो आइवरी और चंदन की लकड़ियों से बनी होती हैं। लाहौरी गेट मार्केट में भी रेस्टोरेंट, दुकानें और शोरूम मिल जाएंगे। यहां कश्मीरी पश्मीना शॉल, कॉटन और डिजाइनर सूट की भी खूब अच्छी रेंज मिल जाती है।

धरोहर व शान हैं ये स्थल
जालियांवाला बाग


आजादी के आंदोलन में पंजाब के दो लोकप्रिय नेताओं सत्यपाल और डॉ. किचलू की ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तारी के विरोध में आज के ही दिन यानी 13 अप्रैल,1919 को यहां एक सभा रखी गई थी, जिसमें 10-15 हजार लोग जमा थे। तभी इस बाग के एकमात्र रास्ते से ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने जिस क्रूर कार्रवाही का परिचय दिया, वह इतिहास की सबसे त्रासद घटनाओं में से एक है। रोंगटे खड़ी कर देने वाली यादें यहां आकर महसूस कर सकते हैं। वह कुंआ देख सकते हैं जिसमें आनन-फानन में लोगों ने छलांग लगा दी थी। परिसर की दीवारों पर वे निशान आज भी मौजूद हैं, जो ब्रिटिश सैनिकों की गोलीबारी की गवाही देते हैं।

वॉर मेमोरियल


1965, 1971 के युद्ध के दौरान शहीद हुए जवानों की यादों को देखने का अवसर मिलेगा। सात एकड़ क्षेत्र में फैला यह मेमोरियल एक वल्र्ड क्लास वॉर मेमोरियल है। इसका सबसे बड़ा आकर्षण है 50 फीट लंबी तलवार। इस मेमोरियल में 7डी थिएटर भी बनाया गया है। इसमें जंग पर बनी 10 मिनट की फिल्म भी दिखाई जाती है। यहां 1971 के भारत-पाक युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले एयरक्राफ्ट कैरियर शिप ‘आईएनएस विक्रांत’ का मॉडल भी देखा जा सकता है।

श्री दुर्गयाणा मंदिर


सोने और संगमरमर से निर्मित इस मशहूर मंदिर के दर्शन के लिए बस अड्डे से केवल डेढ़ किलोमीटर का सफर तय करना होगा। यह भी स्वर्ण मंदिर की तर्ज पर बनाया गया है। 16वीं शताब्दी के इस मंदिर की प्रसिद्घि का खास कारण है यहां स्थित हनुमान मंदिर में पुत्र प्राप्ति की मन्नत के लिए आने वाले लोग। यहां हर साल एक लंगूर मेला लगता है। रोचक बात यह है कि इस मेले में वे मातापिता अपने बच्चे को लंगूर की वेशभूषा में सजाकर मत्था टेकने लाते हैं, जिनकी मनोकामना पूर्ण हो गई होती है।

सिटी ऑफ वॉल


इसे महाराजा रंजीत सिंह ने मुगलों के हमले से बचने के लिए बनवाया था। अमृतसर का इतिहास और विरासत आज भी इसी चारदीवारी के भीतर देखा जा सकता है। उस समय इसे बनाने में 72 हजार रुपये खर्च हुए थे। तकरीबन तीस फीट ऊंची चारदीवारी के साथ इसमें बारह दरवाजे हैं और हर दरवाजे का अपना एक अलग इतिहास है। इन दीवारों के कारण ही अमृतसर को वॉल सिटी भी कहा जाता है। इन बारह दरवाजों के नाम हैं, अलीउद्दीन, लाहौरी, खजाना, हकीमां, गिलवाली, रामगढ़िया, अहलूवालिया, दोबुर्जी, देवराही कलां, रामबाग, शाहजादा और लोहगढ़। इनमें से कुछ के नाम अब बदल गए हैं। रामगढिया गेट को चाटीविंड गेट, अहलूवालिया को सुल्तानविंड गेट, दोबुर्जी को घी मंडी गेट, देवराही कलां को महा सिंह गेट और दरवाजा-ए-शहराजादा को हाथी गेट कहा जाता है।

श्री रामतीर्थ


अमृतसर से 11 किलोमीटर की दूरी पर है। माना जाता है कि माता सीता ने लव-कुश को यहीं जन्म दिया था। भगवान वाल्मीकि जी के आश्रम (श्री रामतीर्थ) में पवित्र सरोवर है। सीता जी की कुटिया, लव-कुश का मंदिर, माता सीता की बावली, लव-कुश पाठशाला आदि स्थापित हैं।

किला गोबिंदगढ़


42 एकड़ क्षेत्रफल में फैले इस किले को देखकर आपको अपनी विरासत पर गर्व होगा। इसका निर्माण गुज्जर सिंह ने वर्ष 1760 में करवाया था। दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के सम्मान में महाराजा रंजीत सिंह ने इसका नाम गोबिंदगढ़ किला रखा। यह किला चौकोर आकार का है।

अमृतसर की सैर कैसे-कब?
हवाई, सड़क और रेल तीनों में किसी भी मार्ग से अमृतसर जाया जा सकता है। श्री गुरु रामदासजी इंटरनेशनल एयरपोर्ट सिटी सेंटर से कुछ ही किलोमीटर पर है। दिल्ली, चंडीगढ़, जम्मू, श्रीनगर, दुबई, लंदन, टोरंटो सहित दुनिया के दूसरे कई शहरों से यहां हवाई मार्ग से पहुंच सकते हैं। उत्तर भारत के प्रमुख शहरों यानी दिल्ली, देहरादून, शिमला आदि से बस से यहां जा सकते हैं। रेलमार्ग से भी यह सभी बड़े शहरों से जुड़ा है। सड़क मार्ग से दिल्ली से यहां पहुंचने में करीब छह घंटे लगते हैं। वैसे तो यहां कभी भी जा सकते हैं, पर जुलाई से अक्टूबर के बीच का समय यहां जाने के लिए उपयुक्त माना जाता है।

इन्हें भी जानें
-1574 में अमृतसर की नींव गुरु रामदास ने रखी थी। ताजमहल के बाद सबसे अधिक पर्यटक स्वर्ण मंदिर देखने जाते हैं।
-1.5-2 लाख श्रद्घालु यहां हर रोज आते हैं। खास अवसरों पर इस संख्या में और इजाफा हो जाता है। मंदिर निर्माण के दो सदी बाद महाराजा रंजीत सिंह ने इस पर सोने की परत चढ़वाई थी।
-1534 में खालसा कॉलेज की इमारत के ऊंचे गुंबद पर लगी घड़ी लंदन से मंगाई गई थी। यह आज भी चलती है। इसमें दो लीवर हैं, जिसमें सप्ताह में दो बार चाबी भरी जाती है। अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय मंदिर का सोना लूट लिया गया। इसके बाद फिर इस पर सोने की परत चढ़ाई गई।

मेरा पुश्तैनी घर यूं तो पटियाला में है, पर जब से मैंने श्री अमृतसर साहिब में पैर रखा है, तब से मेरा घर यही हो गया। यहीं लवकुश की जन्मस्थली है, श्री दुर्गयाणा तीर्थ का द्वार है और यहीं है शहीद स्थली जलियांवाला बाग, जहां से सद्भावना का संदेश जाता है। यह दुनिया का चौथा सबसे ज्यादा देखा जाने वाला स्थल है। मेरा शरीर कहीं हो, मेरी आत्मा अमृतसर में ही रहती है।
-नवजोत सिंह सिद्घू, पूर्व-क्रिकेटर और राजनेता

खाने-खिलाने के शौकीन
अमृतसरी जन्म से ही शेफ होते हैं। श्री हरिमंदिर साहिब में सेवा देकर वे रोटियां बेलने में माहिर हो जाते हैं और सेवा भाव से मेहमाननवाजी का तरीका भी यहीं से सीख लेते हैं। यहां आने वाले पर्यटकों को सबसे अधिक आकर्षित करते हैं यहां के मशहूर ढाबे, जो यहां की हर गली में मिल जाएंगे। इन्हीं में से एक है ‘केसर दा ढाबा’। तकरीबन सौ साल पुराना है। इसमें ‘माह की दाल’ खास पारंपरिक तरीके से पकाई जाती है, जो और कहीं नहीं मिलती। रात भर हल्की आंच पर पकाई जाने वाली यह दाल हल्की और स्वाद से भरपूर होती है। यहां का लच्छा पराठा भी खूब पसंद किया जाता है। इस ढाबे की स्थापना 1916 में लाला केसर लाल ने पाकिस्तान में की थी, पर आजादी के बाद इसे अमृतसर शिफ्ट किया गया। खास बात यह है कि तब से इस ढाबे के पारंपरिक ढांचे में बदलाव नहीं किया गया। ढाबे में कई फिल्मों की शूटिंग हुई है।

इसके नियमित ग्राहकों में लाला लाजपत राय, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी आदि नामी शख्सियतें भी रही हैं। शाह रुख खान और सैफ अली खान जैसी फिल्मी हस्तियां भी यहां का स्वाद चख चुकी हैं। इसी तरह, कुंदन दा ढाबा व भरावां दा ढाबा भी काफी लोकप्रिय है। यहांभी पर्यटकों और स्थानीय खानपान के शौकीनों की भीड़ लगी रहती है। क्वींज रोड पर स्थित फ्रेंड्स ढाबा भी अंबरसरी खाने के लिए मशहूर है। इसके मालिक परमिंदर सिंह राजा कहते हैं,‘अमृतसर का पानी मीठा होने के कारण हर सब्जी जायकेदार बनती है।’ यहां आएं तो लच्छेदार कुल्फी का जायका लेना न भूलें। यहां ज्ञान हलवाई की लस्सी चखे बिना स्वाद की बात पूरी नहीं होगी। नमक मंडी स्थित राधू राम छोलेयां वाले के अमृतसरी कुल्चे खाने के बाद खुद-ब-खुद तारीफ के शब्द निकल पड़ेंगे। मीठे में यहां की फिरनी लाजवाब है।

श्री हरिमंदिर साहिब में मत्था टेकने वाला वह बच्चा बड़ा हो गया है जो वहां रोटियां बेल कर अपनी सेवा भी देता था। मेरा शहर अमृतसर एक बुजुर्ग की तरह मेरे सिर पर हाथ रखे रहता है। मन में बसा रहता है नानी-दादी के हाथ का बना खाना। वहीं जब दूसरी जगहों पर पाता हूं तो खुशी होती है। कर्नाटक, ओडिशा जैसे राज्यों या कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में जाने पर वहां कुल्चा, फुल्का के बारे में सुनकर रोमांचित हो जाता हूं। मुझे गर्व है कि मैं उसी अमृतसर का हूं जो भारतीय खाने का ब्रांड अंबेसडर है। अमृतसरी खाने का टेंपलेट हर छोटे- बड़े ढाबे और बड़े होटलों में देखा जा सकता है।– विकास खन्ना, शेफ

एक दौर ऐसा भी था, जब हमारे दादाजी ढाबे के बाहर बग्गी खड़ी रखते थे। काम खत्म होते ही उस बग्गी में वापस पाकिस्तान लौट जाते थे।- अजय (केसर ढाबा के मालिक लाला केसर लाल के पौत्र)

-जेएनएन

यह भी पढ़ें : क्या स्वर्ण मंदिर की इन खास बातों से अंजान हैं आप?


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.