गुलाबी सर्दी में लखनऊ की गुलाबी चाय का हो साथ तो बन जाए बात
लखनऊ घूमने का जब भी मौका मिले तो यहां पुराने शहर जरूर जाएं। सर्दियों में मिलने वाली गुलाबी चाय का स्वाद नहीं लिया तो मान लीजिए लखनऊ देखा ही नहीं।
चीनी मिट्टी का इक प्याला हो, प्याले में समोसा हो और पड़ी हो एक बड़ी चम्मच बालाई जिसमें फिर लहराई जाए गुलाबी धार तो यूं होता है जो नशा तैयार वह है प्यार ! यानी कश्मीरी चाय।
लखनऊ से बाहर वालों और लखनऊ में रहकर भी पुराने शहर न जाकर नई बस्तियों को ही लखनऊ मान लेने वालों को पहले यह बता दूं कि इस कश्मीरी चाय में पडऩे वाला समोसा दरअसल प्रचलित भाषा में सुहाल या जीरा है। इस समोसे को उर्दू में साबदान कहा जाता है। बालाई होती है मलाई। हालांकि कुछ लोग दोनों में अंतर मानते हैं पर यह चर्चा आगे भी। यह चाय करीब छह घंटे में तैयार होती है। एक बार यह बन जाए तो फिर इसमें घट बढ़ संभव नहीं। यह घर से जितनी बनकर आएगी, यदि उससे अधिक बनानी पड़ जाए, तो फिर घर ही जाना पड़ेगा। घर भी ठीक शब्द नहीं, क्योंकि चाय विक्रेता जहां चाय बनाई जाती है, उस जगह को कारखाना कहते हैं। कुछ समझे आप ! चाय का कारखाना! जहां 61 लीटर के कंटेनर में चाय आती है। चाय कारखाने से आने के बाद एक चूल्हे पर चढ़ी रहती है और लगातार उबला करती है। कभी यह चाय केवल प्याले में बिकती थी, लेकिन उसके महंगे दामों और मोबाइली पीढ़ी के दबाव में बदलाव हुआ और अब यह प्लास्टिक के कप में भी मिल जाती है। हालांकि प्लास्टिक के कप में इस चाय को पीना चाय और चाय वाले दोनों की बेइज्जती करना है। कश्मीरी चाय और प्लास्टिक का कप ! तोबा !
एक प्याला चाय 40 रुपये की है जबकि गिलास वाली 25 रुपये में पड़ती है। प्याले वाली चाय आम चाय की तरह सुड़क कर नहीं पी जाती, बल्कि खायी जाती है-चम्मच से। कश्मीरी चाय में जावित्री, लौंग, जायफल और दूसरे गरम मसाले पड़ते हैं जबकि गुलाबी रंग केसर से आता है। इसकी पत्ती थोड़ी चौड़ी होती है। जाड़ा जब आपके शरीर में घुसा जा रहा हो, हवा जब आपको काटे पड़ी हो तो खुले आसमान के नीचे यह चाय अद्भुत ही आनंद देती है। जैसे मौसम के कैलेंडर में सर्दी है वैसे ही सर्दी में मेरे लिए यह चाय होती है। लखनऊ में यह चाय मैंने तीन जगह पी है। शिया कालेज के पास, अमीनाबाद चौराहे के नजीराबाद मोड़ पर और अकबरी गेट पर। अकबरी गेट पर जब आप ढाल उतर जाते हैं, तो बाएं हाथ पर मोहम्मद मोईन की दुकान दिखती है। कंटेनर दूर से ही दिख जाएगा। वहां जाएं और लखनऊ के नवाबों के समय से चली आ रही इस चाय का मजा लें।
अठारहवीं सदी के अंत में अवध के नवाब आसफुद्दौला ने अपने बेटे वजीर अली की शादी की। कहते हैं उस समय इस शादी पर 40 लाख रुपये से अधिक खर्च हुआ था। शादी के लिए दूर-दूर से खानसामे बुलाए गए थे। कुछ कश्मीर से भी आए और उन्होंने ही कश्मीर के कहवे की तरह यहां चाय बना डाली। धीरे-धीरे यह लखनऊ वालों की ज़ुबान पर चढ़ गई। कुछ लोग इसे नवाबों की ईजाद मानते हैं। उनके मुताबिक कश्मीर चाय का कश्मीर से कोई रिश्ता नहीं। बहस होती रहेगी लेकिन, सर्दियों में अगर आप लखनऊ में हैं और यह चाय नहीं पी तो समझें आप लखनऊ आए ही नहीं।