भीड़ से दूर राजौरी आकर देखें कश्मीर की खूबसूरती का अलग ही नजारा
जम्मू-कश्मीर घूमने की बात होती है तो दो चार-जगहें ही ध्यान में आती हैं। पर राजौरी ऐसी जगह है जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है लेकिन पर्यटकों के लिए यहां बहुत कुछ है।
राजौरी जगह कैसी है, बस खबरों में ही सुना था। शायद इसीलिए मैं ज्यादा ऊनी कपड़े नहीं ले जा रहा था। सोचा जम्मू जैसा ही होगा। जब जम्मू में ज्यादा ठंड नहीं पड़ती है, तो राजौरी भी ऐसा ही होगा। पर हुआ इसका उल्टा। राजौरी में काफी ठंड थी। ट्रेन समय से निकल पड़ी। पंद्रह घंटे के सफर के बाद हम जम्मू पहुंचे। दिन के दो बजे तक हम अखनूर पार कर चुके थे और उसके बाद राजौरी जिला शुरू हुआ। आगे बढ़ने पर रास्ते में सन्नाटा बढ़ रहा था। जंगल घने हो रहे थे और एक पहाड़ी नदी लगातार हमारे साथ चल रही थी। हम नौशेरा से गुजर रहे थे। उसके बाद तीथवाल पड़ा। 1947-48 में यहां पाकिस्तानी कबाइलियों ने घुसपैठ कर ली थी।
माना जाता है चिंगस में दफन है जहांगीर के शरीर के हिस्से
राजौरी से लगभग 30 किलोमीटर पहले चिंगस नाम की एक जगह है। इसके बारे में बताने से पहले आपको बता दूं कि राजौरी का यह इलाका उस रास्ते का हिस्सा है, जिससे मुगल शासक गर्मियों में कश्मीर घाटी जाते थे। मुगलों द्वारा बनवाई गई सरायों के अवशेष आज भी मिलते हैं। थोड़ी दूर चलने पर चिंगस नाम की वह सराय आ गई, जिसे मुगल बादशाह अकबर ने बनवाया था। आज यह मुख्य सड़क से सटा एक वीरान इलाका है, जहां मुगल बादशाह जहांगीर के शरीर का कुछ हिस्सा दफन है। चिंगस को फारसी भाषा में आंत कहते हैं। किस्सा कुछ यूं है कि मुगल बादशाह जहांगीर अपनी बेगम नूरजहां के साथ अपने वार्षिक प्रवास के बाद कश्मीर से अपनी सल्तनत की ओर लौट रहे थे। चिंगस में उनकी तबीयत खराब हुई और वहीं उनकी मौत हो गई। उत्तराधिकार के संघर्ष को टालने के लिए नूरजहां इस खबर को आगरा पहुंचने से पहले सार्वजनिक नहीं करना चाहती थीं। शरीर के वे हिस्से, जो मौत के बाद सबसे जल्दी सड़ते हैं उन अंगों को इसी जगह काटकर निकाल दिया गया और उन्हें यहीं दफना दिया गया, जिसमें जहांगीर की आंत भी शामिल थी। आंत और पेट के अंदरूनी हिस्से को निकाल कर उसके शरीर को सिलकर इस तरह रखा गया कि आगरा पहुंचने से पहले किसी को भी इस बात का आभास नहीं हुआ कि जहांगीर की मौत हो चुकी है। इस तरह जहांगीर की आंतों को जहां दफनाया गया, वह चिंगस के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यहां जहांगीर की आंतों की कब्र आज भी सुरक्षित है, लेकिन वहां सन्नाटा पसरा था। लगता है यहां ज्यादा लोगों का आना-जाना नहीं है। हालांकि पुरातत्व विभाग द्वारा लगाए गए बोर्ड इस बात की गवाही दे रहे थे कि सरकार के लिए यह स्थल महत्वपूर्ण है। मैंने अपने कैमरे का यहां बखूबी इस्तेमाल किया।
राजौरी
शाम के पांच बजे हमने राजौरी में प्रवेश किया। शांत कस्बाई रंगत वाला शहर, जहां अभी विकास का कीड़ा नहीं लगा था और न लोग प्रगति के पीछे पागल थे। जहां हमारे रुकने की व्यवस्था की गई थी, वह एक सरकारी गेस्ट हाउस था, पर उसके कमरे को देखकर लग रहा था जैसे कोई शानदार होटल हो। राजौरी अंधरे में डूब रहा था। पहाड़ों पर रोशनियां जगमगाने लगी थीं।
अगले दिन हम राजौरी को जानने के लिए निकल पड़े। पहला पड़ाव था राजौरी से तीस किलोमीटर दूर बाबा गुलाम शाह की दरगाह। इन्हीं संत के नाम पर राजौरी में एक विश्र्वविद्यालय भी है। इसे शाहदरा शरीफ भी कहा जाता है। पहाड़ों के चक्कर लगाते हुए हम कई गांवों से गुजर रहे थे। पहाड़ों से निकालने वाले चश्मे आसपास के दृश्यों की सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे। चश्मे प्राकृतिक पानी के ऐसे स्त्रोत हैं, जो पहाड़ों से निकलते हैं। दो घंटे के सफर के बाद हम दरगाह पहुंच चुके थे। ऊंचाई पर बनी दरगाह लगभग 250 साल पुरानी है, जहां 24 घंटे लंगर चलता है। इसमें चावल, दाल और मक्के की रोटी का प्रसाद मिलता है। हमने पहले दरगाह में सजदा किया और चादर चढ़ाई। जो भी चढ़ावा आता है, नाम-पते के साथ उसकी बाकायदा रसीद दी जाती है। एक खास बात यह थी कि इस दरगाह पर सभी मजहब के लोग आते हैं। जिनकी मन्नत पूरी हो जाती है, उनमें कुछ मुर्गे और पशु भी चढ़ाते हैं। खास बात है कि उन पशुओं का वध नहीं किया जाता है,बल्कि जरूरतमंदों को दे दिया जाता है। दरगाह के लंगर में सिर्फ शाकाहारी भोजन ही मिलता है। यहीं नमकीन कश्मीरी चाय भी पीने को मिली।
दरगाह में दो घंटे बिताने के बाद हम चल पड़े पर्यटक स्थल देहरा की गली (डीकेजी) देखने। दरगाह से एक घंटे की यात्रा के बाद हम यहां पहुंचे। क्या नजारे थे। इस जगह पर हमारे सिवा कोई नहीं था। सिर्फ बर्फ से ढके पहाड़, जो पाक अधिकृत कश्मीर में थे। अक्टूबर के महीने में हालांकि धूप तेज थी, पर ठंड अधिक थी। हमारे पीछे पुंछ शहर दिख रहा था और उसके पार पाक अधिकृत कश्मीर।
अनोखा है यहां का खानपान
भुना चिकन खाने के बाद लड्डू जैसा मांस का व्यंजन परोसा गया, जो भेड़ के मांस से बना था। इसे रिस्ता कहते हैं। भेड के मांस को लकड़ी के बर्तन में गूंथ कर दही के साथ पकाया जाता है।
राजौरी में ऐसी बहुत-सी ऐसी जगहें हैं, जो एकदम अनछुई हैं। ऐसे में मेरे जैसे इंसान के लिए, जो भीड़भाड़ कम पसंद करता है, उसके लिए ऐसी जगहें जन्नत से कम नहीं हैं। खाना खाकर हम वहीं घूमे, फोटोग्राफी की। शांति इतनी कि हम अपनी सांसों की आवाज सुन सकते थे। शाम हो रही थी और अब लौटने का वक्त था। रास्ते में दिखते चीड़ के पेड़ों पर जब सूर्य की किरणें पड़तीं तो हरे पेड़ भी सुनहरी आभा देते और बगल में बहने वाले पानी के चश्मे चांदी जैसे चमकते। अपनी आंखों से प्रकृति के सोने-चांदी को पहली बार देख रहा था।
प्रो. मुकुल श्रीवास्तव(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में पत्रकारिता व जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)