बचपन से मां ने सिखाया अपने पैरों पर खड़ा होना
फिल्म निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी कहती हैं कि बचपन से ही मां ने मुझे यह सीख दी कि अपने पैरों पर खड़े होना सीखो और अपने सपने को जीना...फिल्म निल बट्टे सन्नाटा की निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी जुड़वां बच्चों की मां हैं। उनके पति फिल्म 'दंगल' के निर्देशक नीतेश तिवारी हैं। अश्विनी के मुताबिक बचपन में वह मदर्स डे वगैरह से अनभिज्ञ थीं।
मम्मी घर और स्कूल में थी प्रिंसिपल
अश्विनी कहती हैं, मेरी मम्मी स्कूल में प्रिंसिपल थीं और पापा विदेश में कार्यरत थे। मैं अपने माता-पिता की इकलौती संतान हूं। मैं मां के साथ ही रहती थी। बहुत बार मम्मी के घर लौटने से पहले मैं घर पहुंच जाती थी। लिहाजा कभी-कभी पड़ोसी के घर भी चली जाती थी। मां के देर से घर आने को लेकर मैंने कभी शिकायत नहीं की। गर्मियों की छुट्टियों में मां मुझे क्रिएटिव चीजों से जुडऩे को प्रोत्साहित करती थीं। 14 की उम्र में ही मैं आत्मनिर्भर हो गई थी। मैंने मुंबई स्थित सोफिया पॉलिटेक्निक में कामर्शियल आर्ट में दाखिला लिया था। मैंने अपनी इंटर्नशिप के लिए खुद ही कंपनियों की खाक छानी थी। मेरी मां का जोर शिक्षित होने पर था। उनका कहना था कि नौकरी करो और शादी करने के बाद सुखी वैवाहिक जीवन बिताओ। साथ ही काम को जारी रखो और अपने सपने को जियो। मैंने उनकी बताई बातें हमेशा जेहन में रखीं।
शादी के बाद बढ़ी जिम्मेदारियां
शादी के बाद निश्चित रूप से जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। उस समय घर और काम में संतुलन साधना जरूरी होता है। अब घरेलू कामों के लिए आपको सहायक मिल जाते हैं। खाना बनाने की चिंता नहीं रहती। बाहर से भी खाना मंगाने की सुविधा है। मेरे मम्मी के दौर में ये सब सुविधाएं नहीं थी। लिहाजा उनकी जिम्मेदारियां बढ़ी हुई थीं। वह थकी-हारी घर आने के बाद खाना बनाती थीं। घर की साफ-सफाई भी हम खुद ही करते थे। अब वह दौर नहीं रहा। लिहाजा मेरे पास बाकी कामों के लिए समय रहता है। शादी के बाद भी जिंदगी में ज्यादा बदलाव नहीं आया। जुड़वां बच्चों के जन्म के बाद मैंने काम से ब्रेक लिया था। सच बताऊं तो जुड़वां बच्चों की खबर से मैं चिंतित थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि दोनों की देखभाल कैसे होगी। मुझे लगा था जिंदगी यहीं पर आकर थम जाएगी। मैं डिप्रेशन में आ गई थी।
मिला पति का सहयोग
वर्किंग मदर के लिए घर का सहयोग बेहद जरूरी होता है। अगर पति से सहयोग न मिले तो जिंदगी की डगर मुश्किल हो जाती है। जिम्मेदारियों का सारा भार आपके कंधों पर आ जाता है। खैर, मुझे नीतेश का पूरा सहयोग मिला। मैं जब शूटिंग करती हूं तो वह बच्चों का पूरा ख्याल रखते हैं। वह मुझे सुपर मदर भी कहते हैं। नीतेश कहते हैं कि बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजना तक आसान होता है। स्कूल में ड्रामा वगैरह के लिए ड्रेस मंगाई जाती है। इसे लाना मेरे बस की बात नहीं। मुझे याद है कि मैं अपनी फिल्म 'बरेली की बर्फी' की शूटिंग कर रही थी। नीतेश ने मुझे फोन किया। उन्होंने बताया कि बच्चों का स्कूल में प्रोग्राम है। उन्हें फलां-फलां रंग की ड्रेस चाहिए। तुम इसे मैनेज करो। मैंने अपनी स्टाइलिस्ट को फोन किया। उसे बताया कि कैसी ड्रेस चाहिए, उसे बनवाकर घर पहुंचाया। बच्चे भी तनाव में थे कि मम्मा हैं नहीं। कैसे होगा सब। घर पर कपड़े पहुंचने पर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था।
मां हमारे जीवन की धुरी होती है
हमारे समाज में पिता ही काम ही पर जाते हैं। लिहाजा वे उनके आदर्श होते हैं। वे उनकी तरह बनने की ख्वाहिश रखते हैं। अब उस नजरिए में बदलाव आया है। बच्चे मां को काम करते देख रहे हैं। वे मां की तरह बनना चाहते हैं। अपनी पत्नी भी मां की तरह वर्किंग चाहते हैं। हाल में मेरी बेटी के क्लास में पूछा गया कि वे बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं। सबने अपने सपने साझा किए। मेरी बेटी ने कहा कि वह निर्देशक बनना चाहती है। इस पर उसके सहपाठियों ने उसका मजाक बनाया। बेटी ने मुझे बताया कि सब उसे डायरेक्टर साहिबा कहकर चिढ़ाते हैं। ये बातें सुनकर अच्छा लगता है कि बच्चे आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं। बहरहाल, मैं कितनी भी व्यस्त हूं अगर बच्चों का फोन आता है तो मैं उठाती हूं। मुझे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मैं उच्च पदस्थ लोगों के साथ बैठी हूं। मैंने कभी मदर्स डे नहीं मनाया, पर मेरे लिए रोज मदर्स डे होता है। बहरहाल, मां हमारे जीवन की धुरी होती है। वह हमें जीवन का पाठ पढ़ाती हैं। हमें बहुत कुछ सिखाती हैं। मुझे लगता है कि पैरेंट्स को सिर्फ सम्मान चाहिए होता है। वह उन्हें हमेशा देना चाहिए।
प्रस्तुती-स्मिता श्रीवास्तव