कितने बदल गए हैं हम और हमारा समाज, हंसिये मत आप भी हैं इसका ही हिस्सा!
हर मामले में सरकार पर निर्भर रहने के बजाय हमें खुद भी आगे आना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि इन चीजों को स्कूली शिक्षा में शामिल किया जाय
शिल्प कुमार। प्राचीन सभ्यताओं वाले अपने देश के शहरी वर्ग का सामाजिक जीवन जिस तरह बदल रहा है, वह चिंतनीय है। जिस देश की संस्कृति और धर्म ग्रंथों में सामाजिक जीवन व दायित्व को लेकर विस्तृत वर्णन मौजूद हों, उसी देश में इसकी अब लगातार कमी हो रही है। लगातार बढ़ते व्यवसायीकरण, औद्योगीकरण व तकनीक के प्रसार से महानगरों में सामाजिक संपर्क-सहयोग व सामाजिक दायित्व की भावना समाप्त होती जा रही है। लोगों को आज पता नहीं है कि उनके पड़ोस में कौन रहता है। उन्हें यह जानने या उनसे मिलने-जुलने में कोई रूचि भी नहीं रही। पड़ोस की शादी, तीज-त्यौहार, दुर्घटना, मृत्यु, बीमारी आदि की सूचना भी उन्हें मीडिया-सोशल मीडिया के माध्यम से ही मिलती है। पहले ऐसा सिर्फ महानगरों में था, जो अब छोटे शहरों में भी आम होता जा रहा है।
पहले लोग एक दूसरे के सुख-दु:ख में इस भावना के साथ हमेशा खड़े रहते थे कि दु:ख बांटने से घट जाया करता है व सुख बांटने से बढ़ जाता है. यद्यपि गांवों में अभी-भी स्थिति शहरों जैसी विकराल नहीं हुई है। पहले त्यौहार, शादी-विवाह, वर्षगांठ आदि साझे थे, सभी लोग उत्साह से इन अवसरों पर ना सिर्फ हिस्सा लेते थे, बल्कि आनंदित भी होते थे। ऐसे अवसर जीवन में आई नीरसता को दूर कर लोगों के मन में उत्साह और उमंग का संचार करते थे. लोग दूर-दूर से आकर अपने रिश्तेदारों, मित्रों के यहां ऐसे आयोजनों में कई दिनों तक न सिर्फ ठहरते थे, बल्कि भरपूर उत्साह से कार्य में हाथ भी बंटाते थे। जबकि उस जमाने में आने-जाने के लिए यातायात और संचार के इतने साधन भी नहीं थे।
आज हालात बदल गए हैं। यदि कोई कार्यक्रम शाम छह बजे शुरू होना है और भोजन का समय आठ बजे है तो लोग सीधे नौ-दस बजे पहुंचकर मेजबान से शुभकामनाओं की औपचारिकता निभाते हुए खाना खाते हैं और जल्द वापस चले जाते हैं। पहले तो हमारे सामाजिक संपर्क और सामाजिक ढांचा को टीवी के सैकड़ों चैनल्स एवं टेलीफोन ने कम कर दिया। बची खुची कसर इंटरनेट और सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है। आज बच्चों को पार्क व खेल के मैदान से ज्यादा मोबाइल व कंप्यूटर से खेलते देखा जा सकता है। अब हमारे सामाजिक दायरे का मूल्यांकन हमारे सोशल मीडिया के मित्रों की संख्या, अपने पोस्ट की लाइक्स व उन पर आए कमेंट्स से होने लगा है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि यह आभासी दुनिया है। लेकिन हकीकत में हालात अलग हैं। इसे ऐसे समझा जा सकता है।
यदि किसी के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फोलोवर की संख्या पांच हजार है, और उसको खून की आवश्यकता हो और इसकी जानकारी वह सोशल मीडिया पर शेयर करे तो हो सकता है कि इस जानकारी को लाखों लोग देखें, उसे लाइक करें, शेयर करें, कमेंट करें, सहानुभूति जताएं, लेकिन हकीकत में खून देना तो दूर, उसे देखने या हाल-चाल जानने के लिए शायद ही कोई अस्पताल जाने का कष्ट उठाएगा। हमें यह समझना होगा कि अपवादों को छोड़कर सोशल मीडिया प्लेटफार्म हमारे सुख दु:ख को बांटने के लिए, मिलने-जुलने, सामाजिक संपर्क का विकल्प नहीं हो सकता। आज कितनी खबरें आती हैं कि किसी घर में कोई लूट-हत्या की दुर्घटना हो गयी और पड़ोसी-मित्रों-रिश्तेदारों को जानकारी आठ-दस दिनों बाद तब मिली, जब लाश से बदबू आने लगी। आज सड़क दुर्घटना होने पर लोग क्षतिग्रस्त वाहन, घायल के साथ सेल्फी लेते हैं, पर कोई नजदीकी अस्पताल या डॉक्टर के पास ले जाने के लिए आगे नहीं आता।
आखिर ऐसा क्यों होता है? क्यों हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं या हमें पता ही नहीं कि हमारा सामाजिक दायित्व क्या है? ऐसा भी अक्सर होता है जब किसी की मदद के लिए कोई व्यक्ति आगे बढ़ता है तो उसे उसके माता-पिता व अन्य रिश्तेदारों द्वारा यह कहकर रोक दिया जाता है कि तुम क्यों मुसीबत में पड़ रहे हो, तुम्हे कोई और काम नहीं है क्या या अपना काम ठीक से होता नहीं, चले हैं दूसरों की मदद करने। इस सोच को बदलने की जरूरत है। आज आवश्यकता है कि हम आने वाली पीढ़ियों को सामाजिक जिम्मेदारियों व समाज सेवा का संस्कार दें क्योंकि आज के बच्चे ही कल के नागरिक हैं। माता-पिता को बचपन से ही इन चीजों की शिक्षा बच्चों को देनी चाहिए। उन्हें बताना होगा कि यदि आप किसी की मदद नहीं करेंगे तो आपको भी मदद की जरूरत होने पर कोई आगे नहीं आएगा। इसके अतिरिक्त, पाठ्यRम में भी सामाजिक कार्य को शामिल किया जाना उचित होगा।
अभी कुछ संस्थाओं में समाज शास्त्र या नैतिक शिक्षा का किताबी ज्ञान दिया जाता है परंतु इसके स्थान पर व्यवहार में समाज सेवा कार्य करना आवश्यक हो जाए तो बेहतर होगा। यदि छोटी कक्षाओं में महीने में एक बार में आधे घंटे व बड़ी कक्षाओं में सप्ताह में एक दिन एक घंटे का सामाजिक कार्य करना आवश्यक हो जाए या फिर सालभर कुछ घंटे का सामाजिक सेवा का कार्य करना छात्रों के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए नौंवी-दसवीं में कुल 40 घंटे, ग्यारहवीं-बारहवीं में 50 घंटे का सामाजिक कार्य हर छात्र के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसी तरह स्नातक के बाद छात्र को 100 घंटे के सामाजिक कार्य का प्रमाण पत्र पेश किए जाने के बाद ही डिग्री देने का प्रावधान किया जाना चाहिए।
अगर इससे ज्यादा कोई छात्र सेवा करता है तो उसे सम्मानित भी किया जाय तो देश की सामाजिक सोच में बदलाव लाने में बड़ी कामयाबी मिल सकेगी। कोई भी छात्र स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से तमाम प्रकार की सामाजिक सेवा का कार्य कर प्रमाण पत्र प्राप्त कर सके, इसकी कोशिश होनी चाहिए। इसके तहत बच्चों और छात्रों को ओल्ड एज होम्स में ले जाकर बड़े-बुजुगोर्ं के साथ खेलना, प्रौढ़ शिक्षा केंद्रों में पढ़ाना, अनाथ बच्चों, दिव्यांगों, मरीजों की सेवा करना, लोगों को शिक्षा की आवश्यकता पर जागरूक करना आदि बहुत से कार्य हो सकते हैं, जिसे नेशनल सर्विस स्कीम से भी जोड़ा जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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