World Disability Day 2019: बच्चों की राह बनाएं आसान, देखभाल के इन तौर-तरीकों को अपनाकर
मानसिक दिव्यांग्ता के साथ जी रहे बच्चे जब किशोर या व्यस्क बनते हैं तो उनके स्वभाव में भी बहुत बदलाव आते हैं। विश्व दिव्यांग दिवस (3 दिसंबर) पर जानें कैसे करें ऐसे बच्चों की देखभाल
बचपन की दहलीज से निकल जब बच्चे किशोरावस्था में कदम रखते हैं तो उनके शारीरिक और व्यवहारिक बर्ताव में भी बहुत अंतर आता है। पेरेंटिंग को चुनौतीपूर्ण बनाने वाली यह अवस्था सामान्य रूप से हर घर में अभिभावक महसूस करते हैं। लेकिन जरा सोचिए, अगर बच्चे का शरीर किशोरावस्था में है या व्यस्क हो गया है और दिमाग छोटे बच्चे जैसा है तो उसकी परवरिश कितनी चुनौतीपूर्ण होगी। इन विशेष बच्चों की जरूरतें भी बदल जाती हैं। हमउम्र दोस्तों या साथियों की कमी, घर से बाहर जाने की आजादी या क्षमता न होना, आदि कारण उन्हें डिप्रेशन का शिकार बना देते हैं। इससे निपटने के लिए जरूरी है कि आप उन्हें चुनौतियों का सामना करते हुए बच्चों को दुनिया के साथ तालमेल बिठाना भी बताएं।
ऐसे करें उनकी देखभाल
डाइट का अहम रोल
इन बच्चों के व्यवहार के साथ-साथ इनकी डाइट का भी विशेष ध्यान रखने की जरूरत होती है। इन्हें दूध व गेहूं से परहेज करवाना चाहिए। ये चीजें पेट में अल्सर पैदा करती हैं, जिनका असर इनकी मानसिक स्थिति पर भी होता है। इनसे परहेज करने से उनके आक्रामक स्वभाव में सुधार होता है और वजन भी कंट्रोल में रहता है।
बनाएं आत्मनिर्भर
किशोरावस्था में बच्चे जब कदम रखते हैं, तो उनकी शारीरिक संरचना में आने वाले बदलाव का असर उनके दिमाग पर भी होता है और व्यवहार पर भी। उन्हें इन बदलावों के बारे में अभिभावकों द्वारा समझाया जाना चाहिए। बार-बार बताने और प्रैक्टिस करवाने से वे सब करने में सक्षम बन जाते हैं। कई मामलों में 15-16 साल तक के बच्चों को भी अभिभावकों ने टॉयलेट ट्रेनिंग नहीं दी होती। ऐसे में समस्या और बढ़ जाती है। खासकर बेटियों के मामले में। उन्हें मासिक धर्म के बारे समझाने व उससे संबंधित स्ट्रेस से निपटने में दिक्कत आने लगती है। इसलिए जरूरी है कि टॉयलेट ट्रेनिंग तो 4-5 साल की उम्र से ही दी जाए और 10-12 साल में उन्हें धीरे-धीरे शारीरिक बदलावों की अन्य जानकारी देकर तैयार किया जाना चाहिए। किशोरावस्था तक पूरी तरह से शारीरिक सफाई के लिए आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश रहनी चाहिए।
सिखाएं समाज का हिस्सा बनना
किशोरावस्था में स्पेशल बच्चों को बार-बार याद दिलाया जाना चाहिए कि वे बड़े हो गए हैं और अब समाज में उठना-बैठना उन्हें सीखना है। उन्हें गुड टच व बैड टच के बारे में सिखाया जाना चाहिए। इसके अलावा 'बिजी हैंड टेकनीक' का इस्तेमाल किया जाना चाहिए यानी उन्हें किसी न किसी काम में लगाए रखें। कुछ अभिभावक मानने लगते हैं कि शादी के बाद उनकी स्थिति में सुधार आएगा लेकिन यह केवल भ्रम है और ऐसी गलती करने से आप किसी अन्य के जीवन से भी खिलवाड़ करेंगे।
आत्मनिर्भरता है अहम
अगर विशेष बच्चे समाज में नहीं विचरेंगे, तो दुनियादारी नहीं समझ पाएंगे। इनके भी दोस्त बनने जरूरी हैं, इसके लिए इन्हें किसी न किसी वोकेशनल सेंटर या स्कूल में डालें। यह समाजिक जरूरत भी है और बच्चे के दिमाग को सही दिशा में व्यस्त रखने का जरिया भी। पेरेंट्स की कोशिश हमेशा यह होनी चाहिए कि वे इन बच्चों को जीवन में जल्द से जल्द अपने सभी काम खुद करना सिखाएं। ऑटिस्टिक बच्चे हों या डाउन सिंड्रोम वाले, वे बार-बार सिखाने से सब सीख जाते हैं। अभिभावकों को धैर्य रखने की जरूरत है। उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाने से ज्यादा जरूरी है आत्मनिर्भरता से जीने की कला सिखाने की।