यूनीक सोच से सुलभ सक्सेस
किसी भी काम को मन लगाकर करेंगे, तो जरूर सफल होंगे। अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर सफलता का यही मंत्र दे रहे हैं भारत में वैज्ञानिक शौचालय की शुरुआत करने वाले सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक...
किसी भी काम को मन लगाकर करेंगे, तो जरूर सफल होंगे। अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर सफलता का यही मंत्र दे रहे हैं भारत में वैज्ञानिक शौचालय की शुरुआत करने वाले सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक...
मेरा जन्म 1943 में बिहार के वैशाली जिले के एक गांव में एक रूढि़वादी ब्राह्मïण परिवार में हुआ। जब मैं 6 साल का था, तब मैंने एक कथित अस्पृश्य महिला को छू लिया था। पता चलने पर मेरी दादी ने शुद्घिकरण के नाम पर मुझे गोबर और गोमूत्र पिलाया था। उसका कड़वा स्वाद आज भी मेरे मुंह में है। यही नहीं माघ महीने में जब कड़ाके की ठंड होती है, उस समय मुझे गंगाजल से नहलाया गया था।
खुले में शौच की पीड़ा
मैं एक बड़े घर में पला-बढ़ा, जिसमें 9 कमरे थे, लेकिन एक भी शौचालय नहीं था। मैं लेटे-लेटे हर सुबह कुछ आवाजें सुनता था। महिलाएं सूर्योदय से पहले शौच के लिए बाहर जा रही होती थीं। कोई महिला बीमार पड़ जाती, तो उसे एक मिट्टी के बर्तन में ही शौच करना पड़ता था। कई महिलाओं को सिर दर्द रहता, क्योंकि उन्हें दिनभर शौच रोककर रखना पड़ता था। यही सब देखते हुए मेरे मन में इस समस्या का समाधान करने की सनक सवार हुई।
दलितों केभले की धुन
1968 की बात है। एक संस्था बनी थी बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति। मैं इस संस्था में सोशल वर्कर के तौर पर भंगी मुक्ति विभाग से जुड़ा था। समिति के जनरल सेक्रेटरी ने मुझे सुरक्षित और सस्ती शौचालय तकनीक विकसित करने और दलितों के सम्मान के लिए काम करने को कहा। हालांकि वहां का समाज उच्च जाति के पढ़े-लिखे युवक के लिए इसे एक गलत कदम मानता था, लेकिन इसने मेरे व्यक्तित्व में बड़ा बदलाव किया और इस तरह मेरे जीवन की दिशा ही बदल गई।
पिता-ससुर-बीवी सब छूटे
समिति ज्वाइन करने के बाद पिताजी मुझसे बहुत नाराज थे। 22 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई थी। मेरे ससुर भी मेरे रवैये से काफी नाराज रहते थे। एक दिन वे इतना नाराज हुए कि बोले मैं आपका चेहरा तक नहीं देखना चाहता। मेरी बेटी की जिंदगी आपने खराब कर दी। हम ब्राह्मïण हैं, इसलिए बेटी की दूसरी शादी भी नहीं कर सकते। तब मैंने कहा, अब इतिहास का पन्ना पलट देते हैं। जब तक मैं सफल नहीं होता, तब तक आप ही अपनी बेटी का ख्याल रखिए।
इनके हाथ का छुआ कौन खाएगा
मैं बेतिया, बिहार की एक दलित बस्ती में तीन महीने के लिए रहने गया। वहां एक नई-नवेली दुल्हन को उसके ससुराल वाले घर का शौचालय साफ करने के लिए मजबूर कर रहे थे। मैंने उन्हें ऐसा करने से रोका, तो उसकी सास ने मुझसे कहा, ठीक है, हम उसे यह काम करने को नहीं कहेंगे, लेकिन बताइए कि कल से वह क्या काम करेगी? अगर सब्जी बेचेगी, तो इसके हाथ से सब्जी कौन खरीदेगा? इस घटना ने मेरे मन पर बहुत गहरा असर डाला।
सपना पूरा करने की शपथ
इसके कुछ दिनों बाद की घटना है, हम लोग बेतिया टाउन में चाय पीने जा रहे थे। एक बच्चा लाल कपड़ा पहने हुए था। उस पर सांड़ ने अटैक कर दिया। सब उसे बचाने के लिए दौड़ पड़े। तभी उनके बीच से कोई चिल्लाया, अरे यह तो वाल्मीकि कॉलोनी का है। सबने उसे छोड़ दिया। वह बुरी तरह लहूलुहान हो गया। हम उसे अस्पताल लेकर गए। उसी दिन मैंने कसम खाई कि महात्मा गांधी का अधूरा सपना मैं पूरा करूंगा।
500 से 2 करोड़ यूजर
डब्ल्यूएचओ की एक किताब पढ़कर और तमाम रिसर्च के बाद मैंने डिस्पोजेबल कंपोस्ट शौचालय का आविष्कार किया, जो स्थानीय वस्तुओं से कम लागत पर बनाया जा सकता है। पहली बार पांच सौ रुपये का फंड मिला। पहले दिन इस्तेमाल करने के लिए 500 लोग आए। आज दो करोड़ से ज्यादा लोग यूज कर रहे हैं।
एकै साधै सब सधे
जिसमें मन लगे, उसी काम को करना चाहिए। जिसमें मन नहीं लगता, उसमें आप सफल नहीं हो पाते। एक सीधी रेखा में चलकर पॉजिटिव तरीके से काम करेंगे, तो वही पैशन बन जाएगा। इसलिए एक ही काम करें, जरूर सफल होंगे।
Dr. Bindeshwar Pathak
Profile
जन्म: 2 अप्रैल 1943
एजुकेशन: एमए (सोशियोलॉजी ऐंड इंग्लिश) पटना यूनिवर्सिटी (1980)
पीएचडी (1985), डीलिट (1994)
फेमस बुक: अ रोड टु फ्रीडम
सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना: 1970, गांधी मैदान, पटना में
पुरस्कार: पद्म भूषण (2003), स्टाकहोम वाटर प्राइज (2009)
इंटरैक्शन: मिथिलेश श्रीवास्तव