मैं हूं रांची विश्वविद्यालय, मैं गढ़ता हूं देश का भविष्य-यहां1975 में हुआ था पहला छात्रसंघ चुनाव
रांची विश्वविद्यालय में 1980 तक छात्र संघ का चुनाव हुआ लेकिन इसके बाद यह परंपरा जो टूटी तो फिर 27 सालों के बाद 2007 में ही छात्र अपना प्रतिनिधि चुन सके।
रांची, प्रवीण प्रियदर्शी। रांची विश्वविद्यालय की परिकल्पना महज अध्ययन-अध्यापन तक ही सीमित नहीं, इसके मूल में राष्ट्र को योग्य, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर विश्वास करने वाला मानव संपदा उपलब्ध कराना भी है। इसी परिकल्पना को साकार करने के लिए विश्वविद्यालय प्रबंधन ने कई लोकतांत्रिक संस्थाएं बनाई गई जिसमें छात्रसंघ सबसे प्रमुख है।
नौजवानों को लोकतांत्रिक कार्यविधि से अवगत और अभ्यस्त कराने के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर छात्रसंघ चुनाव की व्यवस्था बनाई गई, लेकिन दुर्भाग्य से रांची विश्वविद्यालय इस व्यवस्था के प्रति कभी गंभीर नहीं रहा। पचास वर्ष से ज्यादा के कार्यकाल के दौरान विवि में मात्र सातवीं बार छात्रसंघ चुनाव होने जा रहा है। विश्वविद्यालय में पहला छात्रसंघ चुनाव 1975 में हुआ था।
उस समय रांची विश्वविद्यालय का कार्य क्षेत्र लगभग पूरा वर्तमान झारखंड था इसमें दुमका से लेकर पलामू व चाईबासा तक के कॉलेज शामिल थे। पहले चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सूर्यमणि सिंह विश्वविद्यालय अध्यक्ष व वर्तमान में नामचीन शिक्षक डॉ. करमा उरांव सचिव चुने गए थे। इसके बाद यह क्रम किसी न किसी रूप में 1980 तक जारी रहा लेकिन इसके बाद यह परंपरा जो टूटी तो फिर 27 सालों के बाद 2007 में ही छात्रसंघ चुनाव हुआ।
2007 में शुरू हुए इस प्रयास को एकबार फिर जारी नहीं रखा जा सका फिर 2010 में चुनाव की सुगबुगाहट दिखी लेकिन यह परवान नहीं चढ़ सका। 2016 में कॉलेज व विश्वविद्यालय स्तर पर चुनाव कराया गया। अब 2018 में चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है, चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। बदल गए हैं छात्रों के मुद्दे अस्सी के दशक में रांची विश्वविद्यालय के छात्र राजनीति में काफी सक्रिय रहे राजीव रंजन मिश्र बताते हैं कि उस समय और वर्तमान में छात्रों के मुद्दे काफी बदल गए हैं।
उस समय हम बहुत मौलिक मांगों के लिए संघर्ष करते थे। सेशन लेट न हो, समय पर रिजल्ट निकले, कॉलेजों में सुविधाएं काफी कम थीं, उसे कैसे छात्रहित में उपयोगी बनाया जाए। ये हमारे मुद्दे थे। आज कॉलेजों में सुविधाएं काफी बढ़ी है, लेकिन पढ़ाई की गुणवत्ता में कमी आई है। उस समय रांची विश्वविद्यालय के कई शिक्षकों की अंतरराष्ट्रीय पहचान थी।
भवन बने, सुविधाएं बढ़ी लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ। रांची विश्वविद्यालय का नाम देश के मानक पर काफी पीछे खिसक गया। अब तो विश्वविद्यालय का आकार काफी छोटा हो गया कभी रांची विश्वविद्यालय की शान रहा रांची कॉलेज अब अलग विश्वविद्यालय बन गया है। ऐसे में रांची विश्वविद्यालय के प्रबंधन की चुनौती काफी कम हेा गई है।
इसका लाभ छात्रों को उपलब्ध कराना विश्वविद्यालय के कुलपति व अन्य पदाधिकारियों का कर्तव्य है। सीनेट व सिंडिकेट चुनाव भी नहीं पूर्व कुलपति डा. एसएस कुशवाहा ने 1999 में विवि में लंबे समय से भुला दी गई सीनेट व सिंडिकेट का चुनाव कराने की परंपरा डाली। पर इसे जीवित नहीं रखा जा सका, कई वादों-इरादों के बाद भी अभी तक उपरोक्त संस्थाओं के चुनाव लंबे समय तक नहीं हो सके। 2007 में सीनेट की बैठक हुई वह भी मनोनयन के आधार पर हां हाल के वर्षो में सीनेट को चयनित प्रतिनिधि मिले।