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ऑटिज्म डेः क्यों गुमसुम हो बाबू, आओ मिलकर खेलें खेल

यह बीमारी छोटे बच्चों में ही शुरू हो जाती है। ऐसे बच्चों की 3-4 की आयु में इलाज शुरू हो जाए तो सामाजिक बदलाव आ सकता है।

By Sachin MishraEdited By: Published: Mon, 02 Apr 2018 02:32 PM (IST)Updated: Mon, 02 Apr 2018 02:32 PM (IST)
ऑटिज्म डेः क्यों गुमसुम हो बाबू, आओ मिलकर खेलें खेल
ऑटिज्म डेः क्यों गुमसुम हो बाबू, आओ मिलकर खेलें खेल

कंचन कुमार, रांची। बच्चे राष्ट्र के भविष्य होते हैं। उनकी किसी भी बीमारी की अनदेखी नहीं की जा सकती। बच्चों में होने वाली ऑटिज्म एक ऐसी बीमारी है, जिसमें बच्चे परस्पर संबंध स्थापित नहीं कर पाते। वे लोगों से कटे एवं खोए-खोए रहते हैं। किसी बात या क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं देते। ऑटिज्म पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। बच्चों में दृष्टि, श्रवण दोष या असामान्य व्यवहार की तरफ अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। ऐसे बच्चों के पालन-पोषण के लिए अभिभावकों व परिजनों को विशेष तौर पर प्रशिक्षण दिया जाता है। अभिभावकों को ऐसे बच्चों से ज्यादा से ज्यादा इंटरेक्शन करना चाहिए।

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ऑटिज्म एक अलग तरह की बीमारी

सीआइपी के डॉ. निशांत गोयल ने बताया कि ऑटिज्म एक अलग तरह की बीमारी है। पीड़ित ठीक से बोल एवं समझ नहीं पाते। उनमें एकाग्रता की कमी होती है। समाज में मिलना जुलना नहीं चाहते। वह अलग दुनिया में रहता है। यह बीमारी छोटे बच्चों में ही शुरू हो जाती है। ऐसे बच्चों की 3-4 की आयु में इलाज शुरू हो जाए तो सामाजिक बदलाव आ सकता है। सीआइपी में हर दिन एक-दो पीड़ित बच्चे इलाज कराने पहुंचते हैं। यहां इलाज की सुविधा है।

मनोचिकित्सक की लें मदद

रिनपास के डॉ.कप्तान सिंह ने बताया कि ऑटिज्म का इलाज मेडिसिन आधारित कम है। परिवार के सदस्यों एवं पीडि़त को प्रशिक्षित कर बीमारी दूर करने का प्रयास किया जाता है। ऐसे बच्चों में कम्युनिकेशन, इमोशन, इंटरेक्शन तथा एक्सप्रेशन का अभाव होता है। इलाज के लिए कोई निर्धारित दवा नहीं है। रिनपास के आउटडोर में इसके कुछ मरीज आते हैं। ऐसे बच्चों के इलाज एवं विकास के लिए कई जगहों पर स्कूल भी खोले गए हैं। इसमें खेल तथा कई अन्य तरह की एक्टिविटी कराकर बच्चों का विकास किया जाता है। ऑटिज्म के लक्षण पाए जाने पर तुरंत मनोचिकित्सक से मदद ली जानी चाहिए ताकि बच्चा सामान्य जीवन जी सके। कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस क्षेत्र में काम कर रही हैं।

चिकित्सकों की सलाह

-चिकित्सकों की सलाह होती है कि इससे पीड़ित बच्चे या व्यक्तिसे हमेशा संपर्क में रहना चाहिए। उसे एकांगी और आत्मकेंद्रित होने से बचाएं।

-बातचीत करते रहने से व्यक्तिकों उन लतों के बारे में सोचने का समय नहीं मिलता। पीड़ित को डांट-फटकार से बचना चाहिए। क्योंकि हताशा में वह गलत कदम भी उठा सकता है।

-कई लोग अपने बच्चों की इस बीमारी को छिपाए रखते हैं। उन्हें लगता है कि इसकी चर्चा करने से उनकी समाज में बदनामी होगी। लेकिन उनकी ऐसी सोच बच्चों के हित में नहीं है।

-साइकोथेरेपिस्ट की सहायता से मन में बैठे फोबिया को मिटाने की कोशिश की जा सकती है। रोगी में आत्मविश्वास बढ़ने के साथ उसका भय कम होता जाता है।

- बच्चे की दिन भर में दो तीन बार तारीफ जरूर करें। उन्हें कभी हतोत्साहित न करें। बच्चा कितनी भी बड़ी गलती क्यों न करे, उसे निकम्मा और नालायक नहीं कहना चाहिए। इससे बच्चे के अहम को ठेस पहुंचती है। यदि बच्चे के अहम में लगातार ठेस पहुंचती है तो बच्चे की नकारात्मक एप्रोच हो जाती है और वह आपसे दूर हो जाता है।

-बच्चे को उसकी गलती पर डांटने की बजाए प्यार से समझाना चाहिए। उन्हें प्यार की सबसे ज्यादा जरूरत उस वक्त होती है, जब वह प्यार करने लायक बिल्कुल नहीं हो।

-आसपास के माहौल और चीजों से वाकिफ कराने पर पीड़ित बच्चे समझने लगते हैं। फिर वे बोल भी सकते हैं। ऐसे मरीज को एक बार में एक ही चीज समझाया जाना चाहिए। कुछ बताने के पूर्व उसका आइडिया दें या चित्र दिखाएं। वहीं झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वास अब भी अधिक है। लोगों को यह समझना होगा कि मानसिक रोग बुरी आत्माओं की वजह से पैदा नहीं होते। यह भी अन्य बीमारियों की तरह है। पीड़ित का इलाज कराएं। न कि झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ें। उन्हें समझना होगा कि अवसाद जैसी बीमारी इलाज से ठीक होती है। उपचार के लिए मनोरोग चिकित्सा की जरूरत होती है। चिकित्सकों की निगरानी में दवा लेनी चाहिए। 


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